जयंती: धनपत राय से बने मुंशी प्रेमचंद्र

मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही मन में हजारों कहानियां मन में घूमने लगती है, सैकड़ों किताबें याद आने लगती है। एक सफल लेखक, शिक्षक, कुशल वक्ता, संपादक और उपन्यास सम्राट जैसे कई गुणों से भरपूर थे अपने मुंशी जी। उनके लेखन का दौर करीब 1880 से लेकर 1936 तक का रहा था लेकिन उस समय की लिखी हुई कहानियां आज भी एक दम से जीवंत जान पड़ती है। सैकड़ों वर्ष आगे की सोच कर लिख पाना कोई आसान काम नहीं था और मुंशी प्रेमचंद की सोच की तारीफ इस बात से भी की जा सकती है कि करीब 100 वर्ष पहले की कहानी भी लोग आज पूरे चाव से पढ़ते है जबकि दुनिया 100 सालों में बहुत बदल गयी है। 
 
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में लमही गांव में हुआ था उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था लेकिन लेखन क्षेत्र में आने के बाद उनका नाम मुंशी प्रेमचंद हो गया। मुशी जी ने अपनी शुरुआती शिक्षा गांव के पास के एक विद्यालय में पूरी की लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने की वजह से उन्हे नंगे पैर ही स्कूल जाना होता था लेकिन कड़ी मेहनत और अपने परिश्रम के बल पर उन्होंने मैट्रिक पास कर लिया और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की भी उपाधि ले ली। बाद में इन्हे एक स्कूल में डिप्टी इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गयी। 
 
धनपत राय श्रीवास्तव का साहित्यिक जीवन भी कुछ आसान नहीं था उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी के साथ ही कहानी लिखने का काम शुरू किया जिसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपना नाम नवाब राय अपनाया उन्हे कुछ लोग आज भी नवाब के नाम से पुकारते है। नवाब राय ने अपनी पहली कहानी ‘सोजे वतन’ को प्रकाशित किया लेकिन किन्ही कारणों से सरकार ने वह किताब जब्त करवा ली जिसके बाद उन्हे नवाब राय का नाम छोड़ना पड़ा हालांकि उन्होंने हार नहीं मानी और अपना साहित्य का काम जारी रखा और यहीं से फिर उनका साहित्यिक नाम प्रेमचंद प्रसिद्ध हो गया।
 
मुंशी प्रेमचंद ने अपने लेख में समाज को आईना दिखाने का भी काम किया था जिसमें समाज की बात को लोगों तक पहुंचाया जा सके। समाज की बुराइयों को भी उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से खत्म करने का प्रयास किया था और उसमें काफी सफल भी हुए थे। अपने साहित्य के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। उनकी स्मृति में गोरखपुर के उस स्कूल में प्रेमचंद साहित्य की स्थापना की गयी है जिसमें वह शिक्षक थे। वहां एक संग्रहालय भी बनाया गया है जिसमें उनकी वस्तुएं रखी गयी है।
      उन्होने अपने पूरे जीवन काल में 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां और 3 नाटक सहित हजारो लेख लिखे है। 31 जुलाई 1980 को उनके नाम का एक डाक टिकट भी जारी किया गया था। मुंशी प्रेमचंद जैसा हिन्दी साहित्यकार ना फिर कोई हुआ और ना ही शायद कोई ऐसा होगा। उन्होंने अपना पूरा जीवन ही साहित्य को सौंप दिया और फिर 8 अक्टूबर 1936 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।

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