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सुबह का भूला

सुबह का भूला

by शिवदत्त चतुर्वेदी
in अगस्त-२०२१, कहानी, साहित्य
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आरुषि अभी तक सोफे पर पड़ी सुबक रही थी। आज उसे रह-रह कर रोना आ रहा था। साथ ही उसे पछतावा भी हो रहा था कि उसने अपने पिता समान स्वसुर पर घुरते रहने का आरोप लगाया था। इतना ही नहीं उसने तो यह भी कहा था कि वे उसके साथ कुछ गलत करना चाहते हैं।

आज उसे अपनी सुंदरता से घ्रणा हो रही थी। उसकी सुन्दरता ने ही उसे दर्प में चूर कर दिया था। आज वहीं सुंदरता और जिद उसके साथ हुए हादसे के कारण बने।

सुबकते हुए उसकी नजर दीवार घड़ी पर पड़ी। घड़ी में चार बज चुके थे। वह मुँह धोने के लिए उठी, तभी कॉलबैल बज उठी। यह राजेश के आने का समय था लेकिन वह घबराई हुयी थी। डर के कारण उसका कलेजा मुँह को आ रहा था। वह दरवाजा खोलने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही थी।

राजेश ने आवाज लगाई- आरुषि दरवाजा खोलो। आवाज सुनकर वह आश्वस्त हो गई कि दरवाजे पर राजेश ही है। उसने दरवाजा खोला। राजेश के अन्दर आते ही वह उससे लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी।

राजेश ने उसके बालों को सहलाते हुए पूछा- क्या हुआ आरुषि?

वह रोती रही तो राजेश ने कहा- आरुषि! रोना बंद करो। आरुषि ! मुझे बताओ आखिर हुआ क्या है? …. स्वयं को संसार की सबसे बहादुर स्त्री मानने वाली आरुषि की आँखों में आँसू….? किसलिए….?

वह रोते हुए बोली- राजेश! मैं तुम्हारे लायक नहीं रही।… राजेश आज मेरी बहादुरी काम नहीं आई। …. उन दरिदों ने ….. मेरे साथ ….. दुष्कर्म किया। ….. राजेश! मैं क्या करूँ?

उसकी व्यथा सुनकर राजेश ने पूछा- वे कौन थे? यह कैसे हुआ?

वह सिसकते हुए बोली- सुबह तुम्हारे जाने के बाद से ही…. लाइट नहीं थी। मैंने सोसायटी के गेटकीपर से… फोन पर कहा लाइट नहीं है।

कुछ देर बाद दो लोग इलैक्ट्रीशियन बनकर आए …. और …. मेरे साथ बदसलूकी की… फिर खिड़की से कूदकर भाग गए।

सुनकर राजेश को दुख तो हुआ ही, गुस्सा भी बहुत आया परन्तु वह गुस्से को खून के घ्ाूँट की तरह पीकर रह गया। उसने उसे समझाते हुए कहा- मन छोटा मत करो आरुषि! दोषियों को सजा अवश्य मिलेगी। तुम स्वयं को संभालो।

उसने राजेश की बात को गंभीरता से सुना। वह आँसू पोंछकर बोली- राजेश! आप जो करेंगे करते रहना पर अभी मैं घर वापस चलना चाहती हूँ।

राजेश ने प्रश्न किया- क्यों? तुम्हें तो वह घर पसंद ही नहीं है। वहाँ पापा हर समय तुम्हें घ्ाूरते रहते हैं। वे तुम्हारे साथ कुछ भी कर सकते हैं…. यही कहा था न तुमने।फफ

ऐसा मत कहो, राजेश! मुझे अपने आपसे घ्रणा हो रही है।… मैं पापा से माफी माँग लूँगी। उनकी कोई गलती नहीं थी। वे मुझे अपनी बेटी की तरह देखते थे; यह बात मुझे आज समझ में आई है राजेश!फफ इतना कहते हुए वह फिर से सुबकने लगी। उसकी आँखें लाल हो रही थीं।

इस बार राजेश ने उसे हैरत से देखा और अगला प्रश्न किया- इस बार फिर तुम्हें कोई परेशानी हुई तो क्या करोगी तुम?

कुछ नहीं करूँगी मैं। मुझे कोई परेशानी भी नहीं होगी। जहाँ माँ-बाप होते हैं, वहाँ बच्चे सुरक्षित होते हैं। यह मेरी समझ में आ गया है।…. मैं तुम्हारे साथ अकेले रहना चाहती थी। इसलिए मैंने पापा पर आरोप लगाया -आरुषि ने उत्तर दिया।

राजेश की आँखें नम हो गईं। वह बोला- आरुषि! हमारी शादी से पन्द्रह साल पहले मेरी माँ का देहान्त हुआ था। मेरे अलावा कोई और पिताजी को सहारा देने वाला नहीं था क्येांकि मैं अपने माँ-पापा की इकलौती संतान हूँ, यह बात तुम अच्छी तरह जानती हो। एक छोटी बहन थी, जो बचपन में ही चल बसी। उसकी मौत के बाद पापा ने दूसरी लड़कियों में अपनी बेटी को खोजना शुरू कर दिया। वे सभी लड़कियों को अपनी गुड़िया मानने लगे। यह बात मैं कह सकता हूँ क्योंकि मैंने उन्हें पूरी तरह समझा है। मैंने खुद उनसे दूसरी शादी के लिए कहा था परंतु उन्होंने ऐसा न कर मुझे नसीहत दी- बेटा! जीवन भर रिश्तों के प्रति सच्ची निष्ठा रखना और रिश्तों के प्रति बफादार रहना क्योंकि यही मनुष्यता है। चरित्र से व्यक्तित्व बनता है, व्यक्तित्व से कृतित्व और कृतित्व से ही अस्तित्व सिद्ध होता है।

यह बताते हुए राजेश भावुक हो उठा। उसने आगे कहा – आरुषि! तुम्हारी जिद पर मैंने पापा को अकेला छोड़ यह लैट लेकर अलग रहना शुरू किया। …. जिससे तुम उन पर … और आरोप न लगा सको। … मैं प्रतिदन यही सोचकर दुखी रहा हूँ…. और … पापा कितने दुखी होंगे, इसका अंदाजा… तुम नहीं लगा सकती।

राजेश की बात सुनकर आरुषि फिर से विलख उठी- स…स.. सॉरी राजेश! …. पापा से माफी माँगना मेरे लिए बहुत जरूरी है।… मुझे वहाँ ले चलो राजेश।

राजेश ने उसकी बात मान ली। वह उसे पापा के घर ले गया। उसने कॉलबेल बजाई तो उसके पापा रमेश पाण्डेय ने दरवाजा खोला। राजेश ने पैर छुए। पाण्डेय जी ने शुभाशीष दिया। आरूषि जैसे ही पैर छूने को झुकी पाण्डेय जी पीछे खिसक गए। आरूषि को देखते ही उनके हृदय के घाव ताजा हो गए। वे पीछे की ओर मुड़े। जेब से रूमाल निकाल कर आँखों में आए आँसू पोंछने लगे। आरुषि तेजी से घर में घ्ाुसी। उसने विद्युत की गति से पाण्डेय जी के पैर पकड़ लिए और उनके पैरों पर अपना सिर रखते हुए बोली – मुझे माफ कर दो पापा! मैं दोषी हूँ। मैंने आपके उजले दामन पर कीचड़ उछाला…. लेकिन पापा। बच्चे चाहे कितनी भी गलतियाँ करें, बड़े उनसे मुँह नहीं फेरते, उन्हें सुधरने का मौका देते हैं।

रमेश पाण्डेय चुपचाप खड़े उसकी बात सुन रहे थे। उनकी आँखों में आँसू थे। आरुषि कहती रही-  पापा! आज जब मेरा दर्प टूटा है, जब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ है, आप मुँह मोड़ रहे हो। आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूँ, आज से बहू नहीं बेटी बनकर दिखाऊँगी। मुझे माफ कर दो पापा। यह कहकर उसने पाण्डेय जी के कदमों पर नाक रगड़ी और बोली- पापा! आप मुझसे मुँह मोड़ेंगे तब भी मैं आखिरी साँस तक आपके चरणों में पड़ी रहूँगी क्योंकि आज आप में मेरी उतनी ही आस्था है जितनी मंदिर में बैठे भगवान में।

आरुषि की बातें सुन पाण्डेय जी का दिल पिघल गया। उन्होंने आरुषि को उठाया और बोले- बेटा! सुबह का भ्ाूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे भ्ाूला नहीं कहते। घर के दरवाजे उसके लिए खोल दिए जाते हैं। आज मैं बहुत खुश हूँ। मैंने बहू को खोकर बेटी को पाया है। इतना कहते-कहते उनकी आँखों बरस पड़ी। आरुषि अपने हाथों से उनकी आँखें पोंछते हुए बोली- पापा! अब आँसू नहीं। आपकी बेटी आपको रोने नहीं देगी।

आरुषि के इस बदले हुए व्यवहार से पाण्डेय जी और राजेश के चेहरे पर भी मुस्कान लौट आई।

 

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