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घर की चारदीवारी में कैद हो गईं अफगान महिलाएं

घर की चारदीवारी में कैद हो गईं अफगान महिलाएं

by कृष्ण्मोहन झा
in ट्रेंडींग, देश-विदेश, महिला, राजनीति, सामाजिक
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हाल में ही अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर जब तालिबान ने कब्जा किया तब वहां के राष्ट्रपति अशरफ गनी अपने निवास स्थान में नहीं थे। वे तालिबान के डर से पहले ही देश छोड़कर भाग गए थे और साथ में काफी कैश भी अपने साथ ले गए थे हालांकि कुछ दिनों पहले ही उन्होंने यह कहा था कि वे तालिबान के डर से देश छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। भागते समय  एक पल के लिए भी‌ उन्होंने यह नहीं सोचा कि  अफगानिस्तान के इतिहास में उनका नाम स्याह अक्षरों में  सबसे कायर  और भगोड़े  राष्ट्रपति के रूप में दर्ज हो जाएगा। कायरता का दूसरा शर्मनाक उदाहरण अफगानिस्तान की सरकारी सैनिकों ने पेश किया  जो तालिबान से लड़े बिना ही अपने  हथियार तथा गोला बारूद छोड़ कर भाग खड़े हुए एवं  सुरक्षित स्थानों पर पहुंचकर अपने प्राण बचा लिए।

और अमेरिका का तो कहना ही क्या जिसने दुनिया का सबसे शक्तिशाली और संपन्न देश होने के जिसने अफगानिस्तान की जनता को तालिबान के रहमो-करम पर छोड़ कर वहां से पलायन करने का विकल्प चुनने में तनिक भी शर्म महसूस नहीं की। वह भी तब जबकि उसे यह अच्छी तरह मालूम था कि अफगानिस्तान में बीस साल से डटे उसके सैनिक जिस दिन अपना बोरिया बिस्तर बांध अफगानिस्तान की धरती छोड़ेंगे उसी दिन से एक बार फिर वहां तालिबान की बर्बरता का नया  सिलसिला शुरू हो जाएगा जो बीस साल पहले से भी अधिक भयानक होगा।

दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और आधुनिक सैन्य उपकरणों से सुसज्जित अफगान सेना ने देश में मौजूद  विषम परिस्थितियों से भयभीत हो कर पलायन करने का जो सबसे आसान रास्ता चुना उसी रास्ते पर चलने का विकल्प सलीमा मजारी भी चुन सकती थी जो तीन साल पहले अफगानिस्तान के एक जिले की गवर्नर बनी थी लेकिन उस बहादुर महिला ने खूंखार तालिबान से डर कर न तो भागने का विकल्प चुना और न ही वह तालिबान के खौफ से उसके आगे आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार हुई। उसने खुद बंदूक उठाकर तालिबानी आतंकियों का मुकाबला करने का प्रण कर लिया । तालिबान को कड़ी टक्कर देने के इरादे से उसने  खुद एक सेना का गठन किया जिसमें पुरुष सैनिक शामिल थे और उस सेना की कमान उसने खुद संभाली। जब तालिबान उसके प्रांत में पहुंचा तो सलीमा मजारी की सेना ने उसका डटकर मुकाबला किया।

अपनी सेना के पुरुष सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए उसने  खुद  बंदूक उठाई।इस लड़ाई में तालिबान की जीत तो होना ही था क्योंकि उसका संख्या बल सलीमा मजारी की सेना से अधिक था परंतु सलीमा मजारी ने जो अदम्य साहस का परिचय दिया उसकी चर्चा आज सारी दुनिया में हो रही है। सलीमा मजारी अब भले‌ ही  तालिबान के कब्जे में हो परंतु वह अब सारी दुनियां की महिलाओं के लिए साहस और शौर्य की ऐसी शानदार मिसाल बन चुकी है जिसने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति और सरकारी सेनाओं सहित उन सभी लोगों को अपने गिरेबान में झांकने के लिए विवश कर दिया है जिन्होंने तालिबान का मुकाबला करने के बजाय या तो उसके आगे आत्मसमर्पण कर दिया अथवा पलायन की राह पकड़ कर अपनी जान बचाने में ही अपनी भलाई समझी।

गौरतलब है कि सलीमा मजारी ने ईरान में अपनी शिक्षा पूरी कर स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की थी और 2018 में अफगानिस्तान के एक प्रांत में गवर्नर के पद के लिए उनका चयन हो गया। सलीमा मजारी अफगानिस्तान की तीन महिला गवर्नरों में से एक थीं जिन्होंने अफगानिस्तान में हमेशा तालिबानी आतंक के खिलाफ आवाज उठाई। सलीमा मजारी फिलहाल तालिबान की हिरासत में हैं और यह पता नहीं चल सका है कि उन्हें हिरासत में कहां रखा गया है परन्तु अब यह अमेरिका सहित दुनिया के सभी देशों का फर्ज है कि वे सलीमा मजारी को तालिबान के चंगुल से छुड़ाने के लिए अफगानिस्तान के तालिबान शासकों पर दबाव बनाएं।

तालिबान के साथ में अफगानिस्तान की सत्ता आने के मीडिया से जुड़ी महिलाओं भी अब काम करना मुश्किल हो गया है।एक महिला पत्रकार के अनुसार खबरें जुटाने के लिए रोज अलग अलग रास्ते से उसकी मजबूरी हो गया है ताकि तालिबान उसे पकड़ न सकें। अफगानिस्तान में   कार्यरत महिला पत्रकारों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप के बिना अफगानिस्तान के हालात सुधरना बहुत मुश्किल है।अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता कायम होने से महिलाओं पर मानों मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है और अब वे खुद को अपने घरों के अंदर भी सुरक्षित नहीं मान रही है। तालिबान ने फरमान जारी कर दिया है कि कोई भी महिला अब अकेले घर के बाहर कदम नहीं रख सकेगी। अगर वह घर के पुरुष सदस्य को साथ लिए बिना किसी दुकान में सामान खरीदने पहुंचेगी तो दुकानदार उसे सामान दिए बिना लौटा देगा।

महिलाओं को घर से बाहर निकलने परंतु खुद को सिर से पांव तक ढकना होगा। अफगानिस्तान से आने वाली खबरों के अनुसार  मौलवियों को यह आदेश दे दिया गया है कि वे 15‌ साल से अधिक आयु की लड़कियों और 45 साल से कम आयु की विधवाओं की शादी केवल तालिबान लड़ाकों से ही करवा सकेंगे। देश के अनेक हिस्सों में मस्जिदों के बाहर इस तरह के आदेश वाले पोस्टर चिपकाए गए हैं कि सभी के लिए तालिबानी कानून मानना अनिवार्य है।  नए तालिबान शासकों ने शुरू में भले ही यह कहा था कि   महिलाओं के घर से  बाहर जाकर काम  करने और लड़कियों के स्कूल जाने पर कोई रोक नहीं लगाई गई है परंतु वह सब तालिबानी पाखंड था ।

हकीकत यह है कि न तो उन्हें सत्ता में भागीदारी करने का मौका दिया जाएगा और न ही उन्हें घर के बाहर निकलकर काम करने की आजादी होगी। लड़कियों के स्कूल कालेज खुलने के बारे में अभी पूरे विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। कालेजों में अपनी स्नातक शिक्षा पूरी करने की ओर अग्रसर अफगान छात्राओं को अब यह चिंता सता रही है कि तालिबानी कायदे कानून    उनकी अब तक की सारी मेहनत पर पानी फेर सकते हैं। कुछ मिलाकर तालिबान के अफगानिस्तान में महिलाओं को अब घर की चहारदीवारी के अंदर तालिबानी आतंक के साए में जीने की आदत डालनी होगी और कोई नहीं जानता कि यह सब कब तक चलेगा।

सुंदर भविष्य के सपने बुनने की आजादी महिलाओं से छीन कर तालिबानी शासक  भले ही अपनी जीत का जश्न मना रहे हों परन्तु वे शायद यह नहीं जानते कि दुनिया के जिस देश में महिलाओं को आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध नहीं हैं वह कभी प्रगति के मार्ग पर नहीं चल पाया। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। अफगानिस्तान की महिलाओं को खुली हवा में सांस लेने का सौभाग्य तभी मिल सकता है जब तालिबान के आतंकी शासन से उसे मुक्ति मिले और यह तभी संभव हो सकता है जबकि अफगानिस्तान की सेनाएं उसका मुकाबला करने का साहस जुटाकर उसे परास्त करें अथवा दूसरे देश उसी तरह अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करे जिस तरह 20 साल पहले अमेरिका ने वहां हस्तक्षेप किया था।

अफगानिस्तान की महिलाएं अब अंतरराष्ट्रीय जगत से मदद की आस लगाए बैठी हैं और गुहार लगा रही हैं कि अफगानिस्तान के तालिबानी शासकों के ऊपर दबाव डालकर उन्हें पहले की तरह खुली हवा में सांस लेने लायक वातावरण उपलब्ध कराने में मदद करें पर अब तो यह कहना मुश्किल है कि अफगानिस्तान में यह सब कब और कैसे संभव हो पाएगा। अतीत में तालिबानी बर्बरता का शिकार बन चुकीं नोबल शांति पुरस्कार विजेता मलाला युसूफजई कहती हैं कि  इस नाजुक घड़ी में अगर अफगानिस्तान की महिलाएं और लड़कियां मदद की गुहार लगा रही हैं तो अंतरराष्ट्रीय जगत को उनकी आवाज सुनना ही चाहिए। महिलाओं के साथ तालिबानी बर्बरता के इतिहास को देखते हुए  अंतरराष्ट्रीय समुदाय तत्काल  पहल करनी चाहिए।

(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के सलाहकार है)

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Tags: afghanafghan womenafghanistanamericaamerican armyhuman rightstalibanterrorismterrorist

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