यादवराव कृष्ण जोशी का जीवन बहुत ही साधारण रहा है और उन्होंने पूरा जीवन देश के लिए समर्पित किया था। 3 सितंबर 1914 को महाराष्ट्र के नागपुर में कृष्ण जोशी जी का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था उनके पिता जी एक पुजारी थे जिससे उनका जीवन शुरू से ही संघर्षमय रहा है। कम सुविधाओं के साथ ही इन्होंने जीवन को अपना लिया और यही वजह रही कि वह बहुत जल्दी ही संघ से जुड़ गए और आजीवन देश की सेवा करते रहे।
यादवराव जी संगीत के प्रेमी थे और उसका अच्छा अभ्यास भी किया था इसलिए ही उन्हें संगीत का बाल भास्कर कहा जाता था। यह संगीत ही उन्हें संघ तक ले आया। दरअसल एक कार्यक्रम के दौरान यादवराव की मुलाकात सरसंघचालक डॉक्टर हेडगेवार जी से हुई थी और उसके बाद वह संघ से लगातार जुड़ते गये। एक घटना का जिक्र किया जाता है कि एक बार डॉक्टर जी शाखा आते है और सभी को एकत्र कर के कहते है कि “बिट्रिश सरकार ने वीर सावरकर की नजर बंदी दो साल के लिए और बढ़ा दी है इसलिए आज सभी लोग प्रार्थना कर के चुपचाप घर चले जायेंगे” इस घटना के बाद यादवराव जी का डॉक्टर के प्रति प्रेम और बढ़ गया।
यादवराव कृष्ण जोशी जी संगीत के कलाकार थे इसलिए उन्हें पहली बार संघ की प्रार्थना गाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वर्ष 1940 से संघ में प्रार्थना का चलन शुरू हुआ और इसका प्रथम गायन संघ शिक्षा वर्ग में यादवराव जी ने ही लिया था। संघ में आगे बढ़ते हुए यादवराव जी को प्रचारक की जिम्मेदारी दे दी गयी और उन्हें कुछ समय के लिए झांसी भेज दिया गया लेकिन करीब 4 महीने बाद डॉक्टर जी की तबीयत बिगड़ गई जिससे उन्हें फिर से नागपुर बुला लिया गया।
प्रचारक रहने के दौरान यादवराव जी ने दक्षिण भारत में बहुत काम किया। वर्ष 1941 में उन्हें दक्षिण में कर्नाटक प्रांत का प्रचारक बनाया गया इसके बाद वह दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख और सेवा प्रमुख जैसे पदों की जिम्मेदारी को निभाया और देश के लिए बड़ा योगदान दिया। दक्षिण भारत में पुस्तक प्रकाशन, सेवा, संस्कृत प्रचार जैसे कामों के पीछे इनकी ही प्रेरणा थी।
जैसा की हमने शुरू में ही कहा कि यादवराव जी का जीवन बहुत ही सादगीपूर्ण था। साधारण भोजन, सूती कपड़े और नेक विचार के धनी थे लेकिन उनके भाषण किसी को भी झकझोर देता था इसलिए ही एक नेता ने उनकी तुलना सेना के जनरल से की थी। खान-पान व वेशभूषा में साधारण से दिखने वाले यादवराव जी अपने बयानों के उतने ही कट्टर और राष्ट्रवादी थे। दक्षिण भारत में उन्होंने वह सब कुछ किया जो शायद किसी और के लिए नामुमकिन होता। वर्ष 1948 में 8 हजार गणवेशधारी तरुणों का शिविर लगाया फिर 1962 को 10 हजार गणवेशधारी तरुणों का शिविर। वर्ष 1982 में बैंगलोर में 23 हजार लोगों का हिन्दू सम्मेलन। वर्ष 1969 में विश्व हिन्दू परिषद का प्रथम सम्मेलन, 1983 में विश्व हिन्दू परिषद का दूसरा सम्मेलन जिसमें 70 हजार प्रतिनिधि और 1 लाख पर्यवेक्षक शामिल हुए।
भारत के साथ साथ उन्होंने विदेशों में भी यात्रा की और लोगों के जागरुक किया। केन्या जाकर उन्होंने कहा कि भारत के लोग जहां भी रहते है वहां की उन्नति करते है क्योंकि भारतवासियों के लिए पूरा विश्व की उनका परिवार है। जीवन के अंत समय में वह कैंसर से पीड़ित हो गये और 20 अगस्त 1992 को बैंगलोर संघ कार्यालय में ही अपनी देह को त्याग दिया।