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गढ़वाली संस्कृति का आईना गढ़वाली लोकगीत

गढ़वाली संस्कृति का आईना गढ़वाली लोकगीत

by पार्थसारथी थपलियाल
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, संस्कृति
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हमारे लोकगीत समय के सही दस्तावेज हैं। जिस लोक में लोकलाज भी व्याप्त है, वह न ऊंचा देखता है न नीचा। लोक को जो उचित लगता है उस पर गीत तैयार कर इतिहास रच देता है।

लोकगीत किसी भी समाज का आईना होते हैं। लोकगीत सांस्कृतिक प्रगति का इतिहास भी होते हैं। लोकगीतों में लोकजीवन के वे सभी भाव होते हैं जो किसीसांस्कृतिक भू भाग में होते हैं। पुराणों में कुमाऊं को मानस खंड और गढ़वाल को केदारखंड कहा गया है। पंवार वंशी राजकुमार कनकपाल, जो 887 ई. में धारानगरी (वर्तमान धार) से बदरीनाथ की यात्रा पर आए थे, उस काल में चांदपुर गढ़ी के राजा भौना या भानुप्रताप ने अपनी कन्या का विवाह कनकपाल से किया था। 888 ई. में उन्होंने अपना दायित्व कनकपाल को सौंप दिया और संन्यास ले लिया। उन दिनों गढ़वाल में लगभग 250 गढ़ थे। 1500 ई. में इसी वंश का 37वां राजा अजयपाल हुआ। उस समय तक केदारखंड में 52 बड़े गढ़ थे। इन सब गढ़ों को जीतकर राजा अजयपाल ने गढ़वाल राज्य की स्थापना की। गढ़वाल शब्द तभी से अस्तित्व में आया। उसके बाद एक सामूहिक लोकसंस्कृति समन्वय के साथ विकसित हुई।

गढ़वाली लोकगीत मानवजीवन की व्यथित कहानी को व्यक्त करते हैं। मध्य हिमालय के (जो समुद्र तल से 1200 मीटर से 4500 मीटर की ऊंचाई पर है) के मानव का संघर्ष हिमालय से भी ऊंचा रहा। इस कठोर जीवन में सबसे सराहनीय पक्ष था कोमल हृदय की सुकोमल भावनाएं, जो बरबस गीतों में शब्द बनकर धरती पर उतर आईं। इन लोकभावनाओं से गुंजायमान यहां की पर्वतमालाओं की घाटियां और शिखर आज भी बयां करती हैं। खुदेड गीत (गहरी स्मृति/ जैसे मायके की याद ) की एक बानगी देखिये-

सौंणा क मैना ब्वे कनू कै रैणा, कुएड़ि लौंकली..

अंधेरी रात, बरखा की छमड़ाटखुद तेरी लागली

सौंणा क मैना ब्वे कनू कै रैणा…..

फूली जालो कांस ब्वे फूली जालो कांस

मेलवाड़ी बासलि ब्वे फूली गए बुरांस

मौली गेनी डाली ब्वे हैरी व्हेन डांडी

गांवों की दीदी भूली वेब मैंतू आई गेन..

गढ़वाली लोकगीत और गढ़वाली गीत के शब्दों में अंतर है। जो बहुत पुराने गीत हैं अथवा जिनके लोकगीत अज्ञात लोगों ने लिखे हैं वे गीत लोक गीत हैं। यद्यपि गढ़वाली लोकगीतों के साथ यह पक्ष भी है कि इनके पुराने गीतकारों ने नाम की चिंता नहीं की। गढवाली में लिखने वाले प्रथा नाटककार भवानी दत्त थपलियाल (1867–1932) ने बहुत से थड़िया और चौंफला लिखे। कुछ उनके जय विजय और प्रह्लाद नाटकों में भी उपलब्ध है। इसी प्रकार भजन सिंह, राय बहादुर पंडित, तारा दत्त वकील(सैदेई),  केशवानंद कैंथोला (मन तरंग), गिरिजादत्त नैथानी (मांगल संग्रह), बलदेव प्रसाद शर्मा (बाटा गोड़ाई) आदि गीतकारों के असंख्य गीत जनमन में व्याप्त हैं।

गढ़वाल में लोकगीतों को निम्न लिखित प्रमुख श्रेणियों में माना जाता है।

धार्मिक गीत व नृत्य- देवभूमि उत्तराखंड में किसी भी शुभकार्य को करने से पहले और कई बार बाद में लोक देवताओं की पूजा गीतों और नृत्यों के माध्यम से की जाती है। इनमें, नागराज, नरसिंह, भैरों, निरंकार, घंडियाल, ग्वालि देवता और देवी-भगवती, ज्वालपा, नंदा, बालकुवांरी, झालीमाली, सुरकंडा, धारी देवी आदि के जागर गीत गांवों में मंडाण में बड़ी श्रद्धा भक्ति से गाये जाते हैं इनके जागर अलग-अलग तरह के होते हैं। इन जागर गीतों का सबसे मस्तीभरा माहौल उस मंडाण में मिलता है जिसमे पांडव नृत्य (पंडोंनाच) हो। ढोल की लय और ताल मंडाण की जान होती है। पांडवों की गाथा में यदि किसी नृतक पर भीम उत्तर आये तो कई प्रकार की उछाड-पछाड़ भी हो जाती। इस श्रृंखला में संस्कार गीत (मांगल गीत) पूरे उत्तराखंड में बहुत लय से गाये जाते हैं।

मांगल गीत- किसी भी मांगलिक अवसर पर विशेष रूप से नामकरण, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत और पाणिग्रहण संस्कार पर मंलेर मांगल गाती थीं। अब केवल पाणिग्रहण संस्कार के अवसर पर ही कभी कभार मांगल सुनने को मिलते हैं। कौवे को संदेश वाहक बनाने की कल्पना अद्वितीय है। कौवा मोक्ष मार्ग को भी प्रशस्त करता है और जातकर्म को भी।

न्योता भेजने के लिए-

बोल कागा चौदिस सगुन,

त्वे द्योलु कागा दूध की भत्ती।

गणेश पूजन के लिए-

दैणा होयां खोली को गणेशा

दैणा होयां पंचनामा देवता

बान देते समय, बारात प्रस्थान के समय, वागद्वारी के समय, धूलयर्घ के समय, पाणिग्रहण संस्कार के समय, फेरों के समय, गाय दान के समय, बारात विदाई के समय तरह-तरह के मांगलगीत गए जाते थे। यहां तक कि बारात आने पर पौणों को प्यारी-प्यारी मीठी-मीठी गालियां तो अब सुनाई भी नहीं देती।

अतृप्त आत्माओं या हन्त्या के जागर- अल्पायु, अपघात से हुई मृत्यु, दुर्घटना में हुई मृत्यु के कारण मृतक की लालसा को तृप्त करने के लिए यह आयोजन होता है। यह नृत्य मंडाण की बजाय घड्यालू में किया जाता है। इसमें ढोल दमाऊ के स्थान पर डौंर थाली बजाकर जागर लगाये जाते है। इसी वर्ग में कमोबेेश सैदों (सैयदों) के नृत्य और रणभूतों के नृत्य भी शामिल हैं।

सामाजिक गीत व नृत्य- इस वर्ग में आनेवाले लोकगीत व नृत्य सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। लेख को सीमा में बनाये रखने के उद्देश्य से इन्हें लघुतम स्वरूप में बताया जा रहा है। थड़िया गीत, चौंफला, झुमैलो, चांचरी, केदारानृत्य, छोपति, छपेली, सरौं नृत्य व गीत, फोफती, झोड़ा, छूड़ा, दूड़ा, खुसौड़ा, लामण, तांदी, जात्रा गीत, खुदेड़गीत, बाजूबंद, घुघती नृत्य, मयूर नृत्य, घुड़ेतों के गीत आदि बहुत से गीत गढ़वाल में गाए जाते रहे हैं। जीवन अब विशिष्ट बन गया है, वे लोक गीत उनके गायकों के साथ ही मुख्यधारा से लुप्त हो गए हैं। व्यावसायिक जातियों के गीत- इस वर्ग में चैती गीत, बेड़ियों के गीत, कुलाचार के गीत, रास-सरौं नृत्य, लांग लगाने पर नृत्य, गद्दियों के गीत, पयारी खरकों के गीत, भोटान्तिकों के गीत, बगानों के गीत।

समय के साक्षी हमारे लोक गीत- गढ़वाल में दर्जनों गीत प्राचीन समय की गाथाओं को स्वयम में समेटे हुए हैं। माधो सिंह भंडारी की मलेथा की कूल हो या गजे सिंह का रानीहाट जाने की हट और उसी क्रम में समय का इतिहास सार-

1 राणिहाट नी जाणु गजे सिंह। मेरो बुलयूं मान्याल गाजे सिंह॥

   हलजोत क दिन गजे सिंह। तू होंसिया बैख गजे सिंह॥

2 बांकी किलै मारी तड़ियाली तिलोगा

   बांकी किलै मारी अम्सरी का सैण…

3 सात समुद्र पार च जाणा ब्वे! जाज म जाण की ना

   सात भयों की सात छन ब्वारी ब्वे, जाज म जाण कि…

  1. तू व्हेली ऊंची डांडियों मा बीरा घसिर्यों का भेस मा

    खुद मा तेरी रुणु छों बीरा सड़क्यों मा परदेस मा…

  1. द्वी हज़ार आठ भादों क मासा

    सतपुली मोटर बौगीन खास…

  1. मारी जालु मैंरा.. मारी जालु मैरा

    गढ़वाल मा बाघ लगयूं बाघ की च डैरा…

  1. बौजी, सतपुली का सैण, मेरी बौउ सरेला!

    बौजी, झगड़न होण, मेरी बौउ सरेला…

हमारे लोकगीत समय के सही दस्तावेज हैं। जिस लोक में लोकलाज भी व्याप्त है, वह न ऊंचा देखता है न नीचा। लोक को जो उचित लगता है उस पर गीत तैयार कर इतिहास रच देता है।

छुम्मा बौ का गीत-

झंगोरा की बाल, झंगोरा की बाल.

छुम्मा परसिद्ध व्हेगे सारा गढ़वाल

प्यारी छुम्मा बौ..

नए गीतों का भी स्वागत है, लेकिन हम पुराने लोकगीतों और उनकी शैलियों को बचाने का सामूहिक प्रयास करें तो हम उन मानवीय संवेदनाओं और भावों को बचा पाएंगे जो अभिव्यक्ति की अनमोल धरोहर हैं।

 

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