नहीं जागे तो जोशीमठ से भी बुरा नैनीताल का हाल होगा

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कल्पना कीजिए... जहां कोई आदमी सो रहा हो उसके बेड के नीचे ही जमीन पर मोटी मोटी दरारें पड़ी हों । रात में उन्हीं दरारों से गड़गड़ाने की जोर जोर की डरावनी आवाजें आ रही हों । और भी खतरनाक बात ये कि पूरा इलाका भूकंप के अतिसंवेदनशील जोन 5…

उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा जागर

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जागर की यह परम्परा आज की नहीं अपितु तब से चली आ रही है जब से मानव ने जन्म लिया है। आज विज्ञान की उन्नति के कारण कथित सभ्य समाज इसकी खिल्ली उड़ाता है लेकिन आदिकाल से वैज्ञानिक जिस आत्म तत्व की खोज लाखों वर्षों से करता आ रहा है, उस आत्म तत्व को उत्तराखंड का जागर तन-मन के पर्दे पर डमरू और थाली बजाकर क्षण में उपस्थित कर देता है।

लोग भाषा साहित्य संस्कृति

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सभ्यता खान-पान, रहन-सहन जैसी भौतिक चीजों से सम्बंधित है वहीं संस्कृति वस्तुतः जीवन के प्रति दृष्टिकोण है। इस तरह यह धर्म के ज्यादा निकट है। जिस तरह पृथ्वी के अन्दर का तारल्य और हलचल धरती के ऊपर की वनस्पतियों में अभिव्यक्त होती है, उसी तरह मानव के भीतर के आवेग-संवेग उसके व्यवहार में छलकते हैं और यही मनोभाव संस्कृति के उपादान बनते हैं।

केदारखण्ड (गढ़वाल) की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

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महाराजा प्रद्युम्नशाह के उत्तराधिकारी युवराज सुदर्शन शाह ने अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता मांगी। अंग्रेजों ने गढ़वाल राज्य के बदले पांच लाख रूपये राजा से मांगे लेकिन राजा के पास इतना धन न होने से आधा गढ़वाल अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में देना पड़ा और आधे हिस्से पर सुदर्शन शाह का आधिपत्य हो गया।

कुमाऊंनी-गढ़वाली लोक संस्कृति की पहचान

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कुमाऊं एवं गढ़वाल लोक संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध हैं। प्रदेश में विभिन्न उत्सवों, पर्वों, धार्मिक अनुष्ठानों, देव यात्राओं, मेलों-खेलों, पूजाओं और मांगलिक कार्यक्रमों का वर्ष भर आयोजन होता रहता है ये आमोद-प्रमोद और मनोरंजन के सर्वोत्कृष्ट साधन होने के साथ ही लोक जीवन के आनंद और उल्लास को भी व्यक्त करते हैं।

गढ़वाली संस्कृति का आईना गढ़वाली लोकगीत

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हमारे लोकगीत समय के सही दस्तावेज हैं। जिस लोक में लोकलाज भी व्याप्त है, वह न ऊंचा देखता है न नीचा। लोक को जो उचित लगता है उस पर गीत तैयार कर इतिहास रच देता है।

गढ़वाल की आंचलिक संस्कृति

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मांस-भक्षण करने वाले गढ़वाली कहते हैं कि यह बाणासुर की धरती है इसलिए यहां आसुरी परम्परा है। यह उनकी बुद्धि का भ्रम है जो ॠषि भूमि को अपने अज्ञान से इस प्रकार कलुषित करते हैं। ब्राह्मणों की कितनी ही जातियां है जो मांस खा लेती है और कितनी ही ऐसी भी है जो मांसाहारी नहीं हैं। मद्य के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें से कोई नहीं पीता या सभी पीते हैं। यह उनकी रूचि पर निर्भर है।

महापुरूषों की उत्तराखंड यात्राएं

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हिमालय के इस मध्य भूभाग यानी आज के उत्तराखंड में महत्वपूर्ण हस्तियों की निरंतर यात्राएं होती रही हैं। इनमें साधु-संत, समाज सुधारकों से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्वकर्ताओं तक और राजनीति से लेकर साहित्य जगत के दिग्गज तक शामिल हैं।

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