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उत्तराखंड का नशाबंदी आन्दोलन

उत्तराखंड का नशाबंदी आन्दोलन

by डॉ. अम्बिका प्रसाद गौड़
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, सामाजिक
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एक गांव में जहां पर अवैध मदिरा सर्वाधिक बनाई जाती थी, बहुगुणा ने एक पेड़ के नीचे बैठकर आमरण अनशन शुरू किया। यह अनशन उन्होंने ग्रामीण महिलाओं के आग्रह तथा इस आश्वासन पर समाप्त किया कि वे पुरुषों को न तो मदिरा बनाने देंगी और न ही पीने देंगी, यदि वे करेंगे तो वे घर का पूरा काम बन्द कर देंगी यहां तक कि भोजन भी नहीं बनाएंगी।

उत्तराखंड के पिछडे जिलों में मद्यपान को स्वतन्त्रता के पश्चात् उत्तरप्रदेश की सरकारों ने बढ़ावा दिया यह तर्क देते हुए कि राजस्व प्राप्ति के लिए तथा राज्य की प्रगति, विकास एवं उन्नति के लिए यह अत्यावश्यक है। जैसे-जैसे सड़कों ने नए-नए क्षेत्रों को जोड़ना शुरू किया, सरकार ने हर क्षेत्र में एक मदिरा की दुकान को प्रत्याभूति (लाइसेंस) देना शुरू किया जिसमें सरकार की यह शर्त होती थी कि जमानतदाता को प्रतिवर्ष 25 से 30 प्रतिशत अधिक बिक्री करनी होगी। अनुज्ञप्तिधारी गुप्त रूप से विक्रय प्रतिनिधियों के माध्यम से तथा अपनी दुकान से सरकारी नीतियों के अनुपालन में ज्यादा से ज्यादा मदिरा की बिक्री करता था जिससे इस पिछड़े इलाके में मद्यपान को प्रोत्साहन मिला। 1950 के दशक में गढ़वाल जिले के कुछ सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने सोहनलाल “भूमिभिक्षुक” के नेतृत्व में नशाबंदी के लिए अनगिनत गांवों में नशे की दुकानों को बंद करवाने के लिए एक ज्ञापन उत्तर प्रदेश सरकार को भेजा परन्तु यह असफल सिद्ध हुआ। तत्पश्चात सोहनलाल आमरण अनशन पर बैठे किन्तु विनोबा भावे के समझाने पर उन्होंने इस अनशन को तोड़ दिया। मार्च 1964 में टिहरी जिले के घनसाली नामक स्थान पर सर्वोदय कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने शांतिपूर्ण तथा अहिंसक तरीके से एक जन आंदोलन शुरू किया जो कि नशाबंदी आन्दोलन के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ तथा स्थानीय लोगों ने कुछ अन्य सामाजिक समस्याओं जैसे कि कोटद्वार के तराई क्षेत्रों में पानी की कमी एवं टिहरी के चन्द्रबदनी मंदिर में जानवरों की बलि के खिलाफ भी जन सत्याग्रह किया । सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने इस जनांदोलन को इस क्षेत्र के आर्थिक पिछडे़पन, राष्ट्रीय सुरक्षा, हिमालयन क्षेत्र की धर्मपरायणता, नशे की वजह से होने वाली दुर्घटनाएं एवं इसकी प्रशासनिक तथा राजनीतिक प्रणाली पर प्रभाव को द़ृष्टिगत कर प्रारम्भ किया जिसे यहां की जनता का, जिसमें महिलाएं भी थीं, पूर्ण समर्थन मिला। घनसाली सत्याग्रह के पूर्व सन् 1964 में सुन्दर लाल बहुगुणा ने विनोबा भावे से सम्पर्क किया जिन्होंने उन्हें जन शक्ति का शांतिपूर्ण धरने के माध्यम से प्रयोग करने की सलाह दी। विनोबा भावे ने हिमालय की धर्म परायणता तथा इस क्षेत्र की युद्धनीतिक महत्व को लोगों के सामने रखते हुए नशाबंदी को अति आवश्यक बताया। जब विनोबा को बताया गया कि कार्यकर्ताओं के नशाबंदी आन्दोलन में शामिल होने पर ग्रामदान अभियान पर कुप्रभाव पड़ेगा तो उन्होंने उत्तर दिया कि अब इस बुराई को समाप्त करने के बाद ही चैन की सांस लेनी है। विनोबा भावे ने सर्वोदय कार्यकर्ताओं को शांतिपूर्ण धरने और सत्याग्रह की इजाजत दे दी। स्थानीय नेतृत्व ग्रामदान तथा नशाबंदी दोनों आन्दोलनों को एक दूसरे का पूरक समझता था क्योंकि सरकारी नीति जो कि मादक द्रव्यों को बढ़ावा दे रही थी, के प्रति सर्वमान्य रोष था। यह अध्ययन मुख्य रूप से दो भागों में बांटा गया है। ग्रामीण क्षेत्र में हुए शांतिपूर्ण तथा अहिंसक सत्याग्रह को घनसाली-बादशाही ठौल क्षेत्र तथा नगरीय क्षेत्र को कोटद्वार-लैन्सडाउन क्षेत्र से लिया गया है। लोग सरकार की गलत नीतियों का विरोध तो कर ही रहे थे, साथ ही साथ अपने समुदाय का कल्याण भी नशाबंदी के माध्यम से करना चाह रहे थे। इन सीमावर्ती इलाकों में जहां प्रति व्यक्ति औसत आय देश में निम्नतम थी, इस आन्दोलन का एक अनोखा महत्व था। ऐसे समय में जबकि संचार के साधन अत्यंत सीमित थे, यातायात के साधनों का अभाव था, ये सर्वोदय कार्यकर्ता अपनी द़ृढ़इच्छाशक्ति के बल पर ग्रामीण तथा नगरीय दोनों जगह अनेकों बाधाओं को पारकर धैर्यपूर्वक, विचारधारा के द्वारा सम्पादित क्रियाकलाप अहिंसा, शान्ति तथा शान्तिपूर्ण विधियों के द्वारा व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन एवम् दुनिया के विचारों को सकारात्मक दिशा में मोड़ना चाहते थे। सर्वोदय कार्यकर्ताओं के बारे में सिर्फ इतना ही कह सकते हैं –

“जिसे जीतने का विश्वास हो वह अवश्य जीतेगा”

ग्रामीण क्षेत्र में मद्यनिषेध आन्दोलन का असर

घनसाली के नशाबन्दी सत्याग्रह ने इस जिले की राजनीति पर एक अप्रतिम छाप छोड़ी है। आन्दोलन में शामिल सभी कार्यकर्ता इस बात पर एकमत थे कि दूसरे सभी आन्दोलन हमारी तकनीकों से प्रेरित एवं आधारित होंगे। यह आजादी के बाद पहली बार था कि प्रशासनिक व्यवस्था को चुनौती दी गई थी तथा मादक द्रव्य की दुकान को जारी की गई अनुज्ञप्ति को वापस लेने की मांग की गई थी। 1952-53 में टिहरी से पक्की सड़क द्वारा जुड़ने के बाद घनसाली का महत्व काफी बढ़ गया था। बाद में जब सड़क को तीर्थस्थली, केदारनाथ के पास स्थित फाटा तक बढ़ा दिया गया तो यह जगह बस पकड़ने के लिए एक प्रमुख सड़क मार्ग के रूप में प्रसिद्ध हो गई। आर्थिक तथा सामाजिक रूप से यह एक पिछड़े जिले का पिछड़ा भाग है। यहां की पूरी जनसंख्या कृषि तथा वन आधारित श्रम पर अपनी आजीविका चलाती थी। कुछ सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी भी यहां रहते थे, जिन्होंने सत्याग्रह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूर्व के अनुभव भी अच्छे नहीं थे तथा जब भी यहां के लोगों ने राजशाही नीतियों का या ब्रिटिश अधिकारियों का विरोध किया था, इनका बर्बरतापूर्वक दमन किया गया था। इन्हें एकजुट कर सरकारी नीतियों के विरुद्ध खड़ा करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। 1956 में सुन्दर लाल बहुगुणा ने राजनीति से सेवानिवृत्ति की घोषणा की तथा घनसाली से तीन मील दूर सिलिआरा में ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ नाम से एक संस्था खोली। यहां पर मद्यपान करने वाले काफी लोग थे। जब बहुगुणा को पता लगा कि लोग अवैध रूप से मदिरा बना कर चौबीसों घण्टे नशे में धुत रहते हैं, उन्होंने व्यक्तिगत रूप से लोगों से मिलकर उन्हें समझाना शुरू किया कि तुम लोग शपथ लो कि मदिरा नहीं बनाओगे तथा जनसमूह के सामने उन उपकरणों को तोड़ो जिससे मदिरा बनाई जाती है। लोग जब तक बहुगुणा रहते थे, अपनी गतिविधियों को काफी सीमित कर देते थे परन्तु उनके जाने के बाद वे फिर अवैध मदिरा निर्माण में संलिप्त हो जाते थे। एक गांव में जहां पर अवैध मदिरा सर्वाधिक बनाई जाती थी, बहुगुणा ने एक पेड़ के नीचे बैठकर आमरण अनशन शुरू किया। यह अनशन उन्होंने ग्रामीण महिलाओं के आग्रह तथा इस आश्वासन पर समाप्त किया कि वे पुरुषों को न तो मदिरा बनाने देंगी और न ही पीने देंगी, यदि वे करेंगे तो वे घर का पूरा काम बन्द कर देंगी यहां तक कि भोजन भी नहीं बनाएंगी। महिलाएं जो कि मदिरा की वजह से घरेलू हिंसा का शिकार तो होती ही थीं साथ ही साथ उनके गहनों को भी मदिरा के लिए औने पौने दामों में बेच दिया जाता था, उनके साथ ने बहुगुणा को एक अनोखी ऊर्जा दी और अन्तत: यह आन्दोलन सफल हो सका। हालांकि भारत जैसे अति लोकतांत्रिक देश में किसी भी आन्दोलन का पूर्ण रूप से सफल हो पाना सम्भव नहीं रहा।

नगरीय क्षेत्र में मद्यनिषेध आन्दोलन

1965 से 1969 के मध्य उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों में सर्वोदय कार्यकर्ताओं द्वारा नशामुक्ति के लिए अनेकों आन्दोलन किए गए। वे चाहते थे कि 1969-70 वित्तवर्ष के लिए किसी भी दुकान की नीलामी न हो। मेहरबान सिंह, विधायक एवं जिलापरिषद् अध्यक्ष की अध्यक्षता में एक शिष्टमण्डल ने तत्कालीन राज्यपाल डा0 गोपाल रेड्डी को धरना देने वालों की इस मांग को बलपूर्वक मानने के लिए विनती की। मार्च 1969 में कोटद्वार में नशामुक्ति सत्याग्रह का प्रारम्भ हुआ। सर्वोदय कार्यकर्ता तथा जिला गांधी शताब्दी समिति के सचिव मानसिंह रावत इस सत्याग्रह आंदोलन के नायक थे। पहली बार कोटद्वार में सभी वर्गों की महिलाओं ने एक आन्दोलन में भाग लिया।

18 अक्टूबर, 1968 को जिला गांधी शताब्दी समिति ने पौड़ी में गढ़वाल के जिलाधिकारी तथा समिति के अध्यक्ष रमेशचन्द्र को सभापति बनाकर एक सभा की। इस सभा में सचिव मानसिंह रावत ने सदस्यों का ध्यान जिले के पिछड़ेपन की ओर आकृष्ट किया। मुख्य वार्ता का केन्द्र नशामुक्ति ही था। यह निर्णय लिया गया कि सभी ग्राम प्रधान तथा पटवारी अवैध शराब के कारोबारियों के खिलाफ मोर्चा खोल दें। दिसम्बर 1968 में कोटद्वार में एक सभा की गई जिसमें यह निर्णय लिया गया कि एक महिला मण्डल की स्थापना की जाएगी। शराब का सेवन न सिर्फ एक सामाजिक समस्या थी बल्कि एक घरेलू समस्या भी थी तथा महिलाएं इसे दूर करने में अत्यधिक सहायता प्रदान कर सकती थीं। सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने शराब की दुकान पर 1 फरवरी, 1969 से 6 फरवरी, 1969 तक लगातार सुबह दस बजे से रात्रि दस बजे तक धरना दिया। कोटद्वार के लोगों को समस्या की गम्भीरता बताने के लिए प्रचार का सहारा लिया गया। पर्चियां बांटी गईं तथा समाचारपत्रों में विज्ञापन दिए गए। मानसिंह रावत ने लोगों से बिनती की कि हमारे देश में खुशी, शान्ति और समृद्धि नशामुक्ति द्वारा ही लाई जा सकती है। जो लोग नशे की कमाई खा रहे हैं वे देश के सबसे बडे़ शत्रु हैं। उन्होंने लोगों से विनती की कि गांधी शताब्दी वर्ष में बापू को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि न तो खुद शराब पिएगें, न दूसरों को पीने देंगे तथा सभी शराब की दुकानों को बन्द करवाएंगे। 1 मार्च, 1969 को शराब की दुकान पर धरना शुरू हुआ। इस नशामुक्ति आन्दोलन में शामिल होने के लिए 7 मार्च, 1969 को सम्पूर्ण भारत नशामुक्ति समिति की अध्यक्षा, डॉ. सुशीला नायर, कोटद्वार पहुंची। विष्णुसिंह रावत की अध्यक्षता में 9 मार्च, 1969 को शान्तिपूर्ण धरने के समर्थन में एक जनसभा बुलाई गई जिसमें चौदह राजनीतिक दलों तथा अनेकों संगठनों ने भाग लिया। यह सभा रामचन्द्र उनियाल तथा संयुक्त समाजवादी दल के नेता, हरिराम चंचल ने आयोजित की थी। यह निश्चय किया गया कि सरकार से नीलामी रोकने की विनती की जाएगी तथा 11 मार्च को नशामुक्ति के समर्थन में पूर्ण बन्दी का आह्वान किया जाएगा। 11 मार्च की बन्दी पूर्ण रूप से सफल रही। 12 मार्च को मानसिंह रावत के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल लैन्सडाउन पहुंचा जहां पर दुकानों की अगले वित्तवर्ष के लिए नीलामी होनी थी तथा अनेकों ठेकेदार आए हुए थे लेकिन सत्याग्रह की वजह से कोटद्वार में शराब की बिक्री कम हो चुकी थी तथा शिष्टमण्डल द्वारा दबाव डालने पर नीलामी को कुछ दिनों के लिए आगे बढ़ा दिया गया। मार्च के तीसरे सप्ताह तक  मानसिंह रावत द्वारा प्रारम्भ किया गया शान्तिपूर्ण धरना एक वृहद् जनांदोलन का रूप ले चुका था। शराब की दुकान के ठीक सामने रूपचंद्र वर्मा का मकान था जो कि नशेड़ियों द्वारा मचाए जाने वाले शोरगुल की वजह से इस समस्या से पूर्ण छुटकारा चाहते थे। अत: उन्होंने भी इस आन्दोलन को पूर्ण समर्थन दिया।

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