नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखंड में न जाने कितने अनपढ़, गैर पेशेवरों को दो-दो पेजों के अखबार खुलवा दिए। तिवारी काल में लोग मुख्य मंत्री के पास गए और एक विशेष किस्म से उन्हें तृप्त कर मोटे-मोटे विज्ञापनों के आदेश जारी करवा लाए। बस यही दौर था जब उत्तराखंड में लोगों ने अखबारों को समाज के आईने के बजाय पैसे कमाने का जरिया समझ लिया।
एक वक्त हुआ करता था, जब पत्रकार होना समाज में एक अलग ही अनुभव दिलाता था। लोग पत्रकारों की ओर बेहद उम्मीद भरी निगाहों से देखते थे। पत्रकार इन उम्मीदों पर खरे भी उतरते थे और बदले में उन्हें जो सम्मान मिलता था, आज उसकी कल्पना करना भी कठिन सा है। उस दौर में पत्रकार समाज के लिए काम करते थे तब समाज से मिलने वाला सम्मान ही पत्रकार पेशे के व्यक्ति के लिए पूंजी थी।
आज पूरे विश्व में ही पत्रकारिता पेशे की रिवायत बदल चुकी है। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। उत्तराखंड की भूमि पढ़े लिखे लोगों की होने के कारण पत्रकारों को स्वाभाविक रूप से पैदा करती आई थी। आज लोग पत्रकारिता को पैसा कमाने या ग्लैमर में रहने अथवा किसी अन्य स्वार्थ की पूर्ति का शार्टकट जरिया मान रहे हों, लेकिन अब से करीब दो दशक पहले तक पत्रकारिता में लोग समाज के लिए कुछ कर गुजरने की नीयत से ही आते रहे थे।
9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य बना। उत्तरप्रदेश से अलग राज्य गठन के बाद यहां की पत्रकारिता में भी बदलाव आना स्वाभाविक था। हर चीज बदली तो पत्रकारिता भी बदल गई। कारण, यह कि राज्य बनने की साथ ही कई किस्म के बदलाव समाज में आ चुके थे। पत्रकारों से ज्यादा इस राज्य में कथित पत्रकार हो गए। शुद्ध पत्रकारों के स्थान पर नीम-हकीमों की तरह कथित पत्रकारों की दुकान सज गई।
पत्रकारिता अब तक सत्ताधीशों के लिए काम करने को तैयार हो चुकी थी। वैसे भी जो पत्रकारिता सत्ता से लड़ती है सत्ताधीश उसे खत्म करने की साजिश आज से 100 साल पहले भी करते थे और आज भी करते हैं। बहरहाल, उत्तराखंड में पत्रकारिता का जो ह्रास आज देखने को मिल रहा है, उसे देखकर आज का पत्रकार कोई भी अपने संतानों को कभी के इस सम्मानजनक पेशे में नहीं आने देना चाहता है। हां, इस मामले में वे लोग अपवाद हो सकते हैं जो पत्रकारिता की आड़ में वह सब कर रहे हैं जो कि इस पेशे के हिसाब से एकदम ही अनुचित है।
खैर! अब हम बात करते हैं उत्तराखंड बनने से पहले की पत्रकारिता की। इसमें पत्रकारिता या पत्रकारों के इतिहास को बताने के बजाय जो हमारे सामने है, उसी की बात करना बेहतर रहेगा। अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की जंग हो या अलग राज्य की मांग का आंदोलन, उत्तराखंड में पत्रकारिता एक बेहद उम्मीद भरी किरण थी। लोग समाचार संसाधनों को बेहद आस भरी निगाहों से देखा करते थे। तब पत्रकारिता के रूप भी सीमित ही थे। इनमें दैनिक अखबार, साप्ताहिक अखबार, पाक्षिक/मासिक पत्रिकाएं, या फिर रेडियो, आकाशवाणी या दूरदर्शन थे। तब पत्रकार भी सीमित थे। हर पत्रकार को लगभग पूरा प्रदेश ही जानता था। कुछ की धाक पूरे देश में भी रही, क्योंकि, पत्रकार के द्वारा भेजा गया समाचार पूरे प्रदेश यहां तक की पूरे देश में पढ़ा जाता था। तब पत्रकारों के ऊपर आचरण में नैतिकता का भी दबाव हुआ करता था। समाज में जितने अधिक लोग आपको जानेंगे उतना ही आपको समाज में नैतिक रूप से मजबूत रहना होता है। इसके अलावा तब पत्रकारों में पैसे का रोग नहीं लगा था। पत्रकार लोग गरीबी में भी अपनी जिंदगी चला लिया करते थे। इसका बड़ा कारण यह था कि पूरा समाज ही पैसे की हनक से दूर एक सामान्य जिंदगी जीने को कोई बुरा नहीं मानता था। न कोई खुद को कम धनवान होने के कारण अपमानित या कमतर समझता था।
अब करते हैं बात उत्तराखंड बनने के बाद की। शुरू में पत्रकारिता में शुचिता कायम थी। लेकिन तत्कालीन सरकार के मुखिया की दरियादिली ने इस पेशे के सम्मान जनक स्थान को नीचे धकेल दिया। अगर उत्तराखंड में पत्रकार पेशे को खराब करने की पड़ताल की जाएगी तो इसके लिए तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी को दोषी पाया जाएगा। 2002 में पहली निर्वाचित सरकार के मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखंड में पत्रकारिता के नाम पर जो गंदगी पैदा की, आज उसकी सड़ांध से पूरा उत्तराखंड गंधा रहा है। यह अलग बात है कि पूरे देश में ही यह स्थिति है, लेकिन हम बात फिलहाल केवल उत्तराखंड के संदर्भ में ही कर रहे हैं। नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखंड में न जाने कितने अनपढ़, गैर पेशेवरों को दो-दो पेजों के अखबार खुलवा दिए। तिवारी काल में लोग मुख्य मंत्री के पास गए और एक विशेष किस्म से उन्हें तृप्त कर मोटे-मोटे विज्ञापनों के आदेश जारी करवा लाए। बस यही दौर था जब उत्तराखंड में लोगों ने अखबारों को समाज के आईने के बजाय पैसे कमाने का जरिया समझ लिया। उत्तराखंड के मूल लोगों के बजाय अन्य राज्यों के कथित पत्रकारों ने जमकर अखबारों के नाम पर धन कमाया।
तिवारी के दिल से निकले इस धंधे को राज्य के सूचना विभाग ने और भी खाद पानी देना शुरू किया। विज्ञापनों के कमीशन का खेल जो शुरू हुआ, उसने आज पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे को गिरा दिया है। यहां उत्तराखंड में गिनती के ही पेशेवर पत्रकार बचे हैं, जो आज भी सामाजिक भलाई के तहत काम कर रहे हैं। बड़ा वर्ग वह है जो इस पेशे के जरिए ब्लैक मेलिंग/स्टिंगबाजी में जुटा है या सरकारी मशीनरी के लिए दलाली कर रहा या फिर विज्ञापनों की धंधेबाजीकरके पत्रकार बने हुए हैं। यह एक कड़वा सच ही होगा, कि हम यह कह दें कि उत्तराखंड में पत्रकारिता गर्त में है।