छठ का पर्व प्रारंभ हो गया है। पिछले वर्ष इस त्यौहार के दौरान पटना में करीब 4.5 करोड़ रुपये का सूप का कारोबार हुआ था। सूप बांस से बनने वाला एक बर्तन सा होता है जिसे डोम समुदाय बनाता है। इसके अलावा इस पर्व में केले और टाब-नींबू जैसे स्थानीय फल इस्तेमाल किये जाते हैं। ये सेब, नाशपाती, संतरे की तरह कहीं कश्मीर से नहीं आता, स्थानीय किसानों के पास से ही आने वाली चीज़ है। यानी हिन्दुओं का एक त्यौहार भी सबसे पिछड़े तबके को अच्छा-ख़ासा रोजगार देने में सक्षम है।
मंदिरों की वजह से भी अर्थव्यवस्था पर करीब करीब ऐसा ही असर होता है। फूल बेचने वाला (माली समुदाय), अगरबत्ती, बेलपत्र, दूब, अक्षत, रोली, बद्धी-माला जैसी कई छोटी छोटी चीज़ें होती हैं जिनकी दुकानें आपको दर्जनों की संख्या में किसी भी बड़े मंदिर के आस पास दिख जाएँगी। मंदिर की दान पेटी में डाला गया चढ़ावा सरकार हथिया लेती है, इसलिए दान पेटी में एक अट्ठन्नी भी डालने के हम सख्त खिलाफ हैं। इनके अलावा आस पास बने होटल, ढाबों-रेस्तरां या कपड़े की दुकानों से भी कुछ न कुछ असर आता ही होगा।
आधुनिक समाजशास्त्र के हिसाब से अगर किसी समाज का विघटन जांचना हो तो ये देखा जाता है कि उसके सामुदायिक स्थलों की क्या स्थिति है। मंदिर जो कि हिन्दुओं के इकठ्ठा होने की जगह होती है, उसका क्षय, सीधा-सीधा ये दर्शाता है कि हम ख़त्म होने की तरफ बढ़ रहे हैं। हज़ार साल के लगातार हमलों को झेलते, सबसे लम्बे समय तक सेमेंटिक आक्रमणों में बचे रहने वाले एकमात्र समुदाय के रूप में हिन्दुओं को इसपर ध्यान देना चाहिए। भारत में सेक्युलर सरकार है और ऐसे में सरकार का मंदिरों को चलाना संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप पर सीधा चोट करता है।
भारत विविधताओं का देश है और “विविधता में एकता” हम सभी बचपन से पढ़ते आये हैं। ऐसे में जब हर मंदिर में एक ही किस्म की व्यवस्था को लागू करने की कोशिश होती है तो वो असल में भारत की विविधता की हत्या का प्रयास होता है। जहाँ दूसरे देशों के संविधान उनकी संस्कृति की बात करते हैं वहीँ हमारा भारतीय संविधान संस्कृति के मामले में ज्यादातर चुप्पी साधे हुए है। इनकी वजह से मंदिरों का नियंत्रण अभी राज्य सरकारों के हाथ में होता है, केंद्र के नियंत्रण में नहीं होता।
इसका नुकसान ये है कि छोटे छोटे हिस्सों पर अलग अलग चोट की जा सकती है। उदाहरण के तौर पर सबरीमाला हो सकता है, महाराष्ट्र सरकार का मंदिरों की जमीनें बेचने का फैसला हो सकता है, मंदिरों को दान में मिली संपत्ति का नेताओं (अधिकांश मलेच्छ) द्वारा गबन का मामला भी हो सकता है। अगर किसी एक केन्द्रीय (स्वायत, सरकार से अलग) बोर्ड के नियंत्रण में सारे मंदिरों की व्यवस्था हो तो ये समस्या काफी हद तक सुलझती है। मंदिरों पर जबरन कब्जे के मामले में फिर मुक़दमे के लिए हमें किसी डी.एम./कमिश्नर का मूंह नहीं ताकना होगा।
एक केन्द्रीय बोर्ड के अन्दर फिर कम आबादी वाले संप्रदाय के मंदिरों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था भी की जा सकती है। अभी संविधान तो कहता है कि एक धर्म के पूजास्थल में दूसरे को प्रार्थना की इजाजत नहीं, लेकिन मध्यप्रदेश की ही भोजशाला देख लें तो ऐसा होता नहीं दिखता। संविधान ये भी कहता है कि मंदिर में गैर-हिन्दुओं को प्रवेश मिलेगा या नहीं ये पूरी तरह हिन्दुओं का निजी फैसला है, लेकिन दक्षिण के मंदिरों का व्यवस्थापक ही ईसाइयों को बना देना, इसकी भी धज्जियाँ उड़ा देता है।
जब पूछा जाता है कि अध्यादेश चाहिए तो किस चीज़ के लिए चाहिए? उन सवालों का ये जवाब होता है। हमें मंदिरों के लिए अध्यादेश चाहिए ही। हिन्दुओं का विरोध करने वाली सरकार से अगर हम निष्पक्ष और तुष्टिकरण न करने वाली सरकार की स्थिति में आ गए हैं तो सनातनी हिन्दुओं को भी उनके बुनियादी मानवाधिकार मिलने चाहिए। सवाल ये भी है कि अधिकार मांगने से मिलते कब हैं? अक्सर इनके लिए आंदोलनों की जरूरत पड़ती ही है। अपने मानवाधिकारों के लिए हिन्दुओं को आवाज उठाने का पूरा अधिकार है।
बाकी कुछ लिबरल बिरादरी के लोग मंदिर शब्द सुनते ही “कट्टर-झट्टर” जैसा कुछ आंय-बांय बकने लगते हैं। मूंह से झाग फेंकने के बदले उन्हें थोड़ा ठंडा पानी पी लेना चाहिए। अपने संवैधानिक हितों, अपने मानवाधिकारों कि लड़ाई हम खुद लड़ लेंगे।
– आनन्द कुमार