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बांग्लादेश में हिन्दू उत्पीड़न सदियों पुरानी व्यथा-कथा

बांग्लादेश में हिन्दू उत्पीड़न सदियों पुरानी व्यथा-कथा

by अरुण आनंद
in दिसंबर २०२१, देश-विदेश, विशेष, सामाजिक
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क्या शिक्षा वाकई कट्टरपंथ की प्रभावी काट है? शायद नहीं। कम से कम बंगाल के मामले में तो ऐसा नहीं लगता है। 19वीं सदी में बंगाल के दो प्रमुख अलगाववादी मुस्लिम संगठनों का गठन हुआ। साल 1863 में मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी और 1877 में सेंट्रल मोहम्मडन एसोसिएशन। इन दोनों को चलाने वाले मुस्लिम अभिजात्य वर्ग के लोग थे।

ग्लादेश में हिन्दुओं का नरसंहार और उनके धार्मिक आस्था के प्रतीकों का विखंडन जारी है। हाल ही में जो घटनाएं हुईं हैं, उनकी जड़ें कई सदियों पहले के घटनाक्रम से जुड़ी हैं। पश्चिम बंगाल हो या बांग्लादेश, बांग्ला समाज में मुस्लिम समुदाय ने अपनी एक अलग पहचान बना कर रखी है। समय के साथ यह पहचान और अधिक मजबूत व आक्रामक होती गई। यह पहचान दारुल-उल-उलूम अर्थात पूरी जमीन पर इस्लाम का शासन के सिद्धांत पर टिकी है इसलिए यह हिन्दू विरोधी और आक्रामक भी है।

कई इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने निष्कर्ष निकाला है कि बांग्ला समाज में मुस्लिम व हिन्दू पहले तो एक साथ थे, लेकिन भारत में अंग्रेजी शासन ने दोनों के बीच खाई पैदा की है। यह पूरा सच नहीं है। अंग्रेजी शासन में बांटो और राज करो की नीति के चलते मुस्लिम समुदाय को और अधिक मतांध बनाने के पूरे प्रयास किए गए। उन्हें हिन्दुओं के खिलाफ भी खड़ा किया गया। इसका एक कारण बंगाल में विशेषकर 19वीं सदी में हिंदू समाज ने ’राष्ट्र और राष्ट्रीय’ के विचार को मजबूती से खड़ा किया, जिससे अंग्रेजों को खतरा महसूस होने लगा था इसलिए मुस्लिम समुदाय को हिंदू विरोध के लिए हवा दी गई। उन्हें इस बात का अहसास दिलाया गया कि हिन्दू उनका शोषण कर रहे हैं। जिसे हम आज बांग्लादेश कहते हैं, बंगाल के उस पूर्वी हिस्से में ज्यादातर स्थानों पर जमींदार हिन्दू थे और उनके खेतों आदि पर काम करने वालों में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अधिक थी। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम जमींदार नहीं थे। वे भी थे और वे अपने कारिंदों का खूब शोषण भी करते थे पर बदनाम सिर्फ हिन्दू जमींदारों को किया गया। मजदूर और मालिक अथवा श्रमिक व पूंजीपति के बीच का टकराव दिखाकर एक ऐसा विमर्श खड़ा किया गया, जिससे 20वीं सदी के साहित्य तथा इतिहास में बंगाल के हिन्दू समाज की छवि एक रूढ़िवादी, पुरूष प्रधान तथा स्त्री विरोधी व सड़ चुके समाज की बना दी गई। इसमें सच कम था और झूठ बहुत ज्यादा। हिन्दी फिल्मों में कलात्मकता के लिए बेजोड़ कही जाने वाली फिल्म ‘साहब, बीवी और गुलाम’ की कहानी इसी गलत विमर्श पर आधारित थी।

अंग्रेजों के मत्थे मढ़ा सारा दोष

जिस अधूरे सच या आधे झूठ की बात हमने ऊपर की है, उसका एक ऐसा पक्ष है जिसे बड़ी चालाकी से छुपा कर सारा दोष अंग्रेजों के मत्थे मढ़ दिया गया। जो आक्रामकता आज बांग्ला समाज में हिन्दुओं के विरुद्ध मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी तबके द्वारा दिखाई जा रही है। उसकी जड़ों में कहीं 19वीं सदी में चले ऐसे आंदोलन भी हैं, जिन्होंने इस्लामी कट्टरपंथ को बंगाल में बढ़ावा दिया। इनमें से एक आंदोलन वहाबी और दूसरे का नाम फराज़ी था। इन दोनों आंदोलनों का मूल लक्ष्य ’इस्लाम का शुद्धिकरण’ करना था। इसके लिए मुस्लिम समुदाय को बंगाल की सांस्कृतिक परंपरा को छोड़ देने के लिए प्रेरित किया गया क्योंकि उनमें कई ऐसी हिंदू परंपराएं थीं, जो इन आंदोलन को चलाने वाले नेताओं के अनुसार गैर इस्लामी थीं। वहाबी आंदोलन की स्थापना राय बरेली में जन्मे सैयद अहमद ने की थी। इस आंदोलन का प्रभाव देश भर में ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ा और आज भी पड़ रहा है। बरेलवी आंदोलन के तहत हिन्दू जमींदारों, अंग्रेजों व सिक्खों के खिलाफ जेहाद की घोषणा की गई। सन 1831 में बालाकोट के युद्ध में सैयद अहमद ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना के हाथों अपनी जान गंवाई। इसके बाद अंग्रेजों ने भी इस आंदोलन को दबाने के लिए सैन्य अभियान छेड़ा लेकिन बंगाल में मुस्लिम समाज का एक वर्ग बरेलवी आंदोलन के प्रभाव में कट्टरपंथी हो गया और पीढ़ी दर पीढ़ी इस विचारधारा को आगे बढ़ाया गया। यह हाल साल 1819 में तत्कालीन पूर्व बंगाल और आज के बांग्लादेश में साल 1819 में आरंभ हुए फराज़ी आंदोलन का था। इस पर सुधारवाद का मुलम्मा चढ़ा कर इस्लामी कट्टरपंथ को हवा दी गई। हाजी शरायतुल्लाह के नेतृत्व में आरंभ हुए इस आंदोलन का गहरा प्रभाव ढाका, फरीदपुर, बारीसाल, मैमनसिंह तथा कोमिला में था। आगे चलकर हाजी शरायतुल्लाह के बेटे दादू मियां द्वारा इस आंदोलन के तहत हिन्दू जमींदारों को खासतौर से निशाने पर लिया गया। कुल मिलाकर इन आंदोलनों ने मुस्लिम समाज में मुल्लाओं के प्रभाव में जबरदस्त इजाफा हुआ।

 अलगाववाद को मिला मुसलमानों का बढ़ावा

दुर्भाग्य की बात है कि कट्टरपंथ और अलगाववाद को पढ़े-लिखे मुसलमानों के एक वर्ग द्वारा भी बढ़ावा मिला। इससे समसामयिक संदर्भों में भी एक सवाल खड़ा होता है कि क्या शिक्षा वाकई कट्टरपंथ की प्रभावी काट है? शायद नहीं। कम से कम बंगाल के मामले में तो ऐसा नहीं लगता है। 19वीं सदी में बंगाल के दो प्रमुख अलगाववादी मुस्लिम संगठनों का गठन हुआ। साल 1863 में मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी और 1877 में सेंट्रल मोहम्मडन एसोसिएशन। इन दोनों को चलाने वाले मुस्लिम अभिजात्य वर्ग के लोग थे। उनकी मांग को अपने हित में मानते हुए अंग्रेजी सरकार ने सरकार की कार्यकारी व विधायी परिषण में मुस्लिमों का अलग से नामांकन आरंभ कर दिया। इस अलगाववादी प्रवृत्ति की परिणति साल 1905 में बंगाल के विभाजन के रूप में हुई। अगला स्वाभाविक कदम मुस्लिम लीग के रूप में एक कट्टरपंथी-अलगाववादी संगठन की स्थापना करना था, जिसने अंतत: भारत का विभाजन करवाने में अहम भूमिका निभाई। साल 1909 में मुस्लिमों को अलग से विधान परिषद में मत के आधार पर सींटें दे दी गईं। कट्टरपंथ की यह विचारधारा विभाजन के बाद और फली-फूली। 1970 के दशक में बांग्लादेश को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया गया। हिन्दुओं का उत्पीड़न वहां कोई नई घटना नहीं है। इस्लामी कट्टरपंथ के कारण बांग्ला समाज में हिन्दुओं का उत्पीड़न सदियों से चल रहा है। बांग्लादेश के जमात-ए-इस्लामी तथा हिफाजत-ए-इस्लाम उस कट्टरपंथ की अभिव्यक्ति हैं, जिनके बीज कई सदियों पहले बोए गए थे। बिना इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझे हम बांग्ला समाज में उत्पीड़ित हिन्दुओं को फौरी समाधान तो उपलब्ध करवा सकते हैं पर स्थायी समाधान नहीं।

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Tags: anti hindu riotsbangaladeshhindi vivekhindi vivek magazinehindu minorityislamic countryislamic radicalism

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Comments 1

  1. Praas says:
    3 years ago

    A verygood històrica l narracions

    Reply

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