कांग्रेस बजाय इसके कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर मुद्दे तलाशे, अपने को तैयार करे, कैडर को मजबूत करे, सरकार को संसद व बाहर घेरने की रणनीति बनाए, चीन के साथ विवाद व कोरोना के संकट में देश व सरकार को साथ देने का भरोसा दिलाये, बेवजह की नुक्ताचीनी बंद करे, वह राहुल को अध्यक्ष बनाने की मुहिम छेड़कर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन डाल देने जैसा उपक्रम कर रही है।
कांग्रेसी भले ही इससे सहमत न हों, लेकिन हकीकत तो यही है कि देश का पहला राजनीतिक दल आज अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। उसकी यह दुर्गति भाजपा के उदय से कम और अपने कर्मों से ज्यादा हुई है। कहने को उसके पास देश के दो-पांच राज्य हैं, लेकिन जनता के बीच उसका प्रभाव नगण्य-सा बचा है। वे मानें या न मानें, लेकिन देश ही नहीं दुनिया तक यह मानने लगी है कि कांग्रेस परिवारवाद के दंश से जब तक नहीं उबरेगी, तब तक उसका भला होने से रहा। बावजूद इसके वह घूम-फिर कर परिवारवाद के चक्रव्यूह में खुद को उलझाती जा रही है।
ताजा संकेत इस बात को ही पुख्ता कर रहे हैं। हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में एक बार फिर से राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की मांग उठी है। कहने को यह कांग्रेस का आंतरिक मसला है, किंतु इतने भर से लोगों को बोलने से नहीं रोका जा सकता। यह और बात है कि जिन कांग्रेसियों को इस बारे में बोलना चाहिए। वे केवल मौन नहीं धारण कर लेते हैं, बल्कि इसके उलट जोर-जोर से गांधी-गांधी की पुकार करने लग जाते हैं। वे यह मानने-समझने को तैयार नहीं कि जब तक कांग्रेस में नया नेतृत्व गैर गांधी परिवार से नहीं आयेगा, तब तक दुनिया के इतिहास में चंद सबसे पुराने राजनीतिक दलों में से एक कांग्रेस का कल्याण नहीं हो पाएगा।
यूं सैद्धांतिक तौर पर देखें तो सफलता या असफलता स्थायी नहीं होती, खासकर राजनीति में तो कतई नहीं। तब राहुल या किसी गांधी के आने पर एतराज क्या? कांग्रेस के अस्तित्व के पैमाने को 1977 के बाद से ही देखें तो साफ नजर आता है कि वह सर्वसम्मत या सर्व ग्राह्य दल अब नहीं बचा है। मतदाता को जब भी मौका मिला उसने नसीहत दी, लेकिन मोटी चमड़ी के कांग्रेसी किसी सबक से नहीं गांधी परिवार की बैसाखी से ही राजनीति में कदमताल करने को अभिशप्त नजर आते हैं। उनकी स्थिति वैसी ही हो गई है, जैसे बार-बार जेल या सुधार गृह जाने के बावजूद नशे में डूबे रहने वाले नशेड़ी की हो जाती है। उसे पहले नशा चाहिए फिर नसीहत।
साल 1977 के बाद के भारत की राजनीति को देखें तो पाते हैं कि उसके बाद कांग्रेस का सत्तारोहण कांग्रेस के कमाल की वजह से नहीं विपक्ष की नादानी की वजह से होता रहा। इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापस लौटी तो इसलिए नहीं कि लोग आपातकाल की दुश्वारियां भूल चुके थे, बल्कि इसलिए कि एक तरफ कांग्रेस जैसी जुल्म ढाने वाली पार्टी थी तो दूसरी तरफ ऐसे उतावले महत्त्वाकांक्षियों की फौज थी, जिनमें हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता था। तब कांग्रेस को चुन लिया गया कि वे राज करना तो जानते हैं। फिर ये भ्रम बार-बार टूटता रहा और जनता भी प्रयोग करती रही। कभी नरसिंहराव, कभी वी.पी.सिंह, कभी चंद्रशेखर, कभी देवगौड़ा, कभी इंद्र कुमार गुजराल, कभी अटल बिहारी वाजपेयी को चुनती रही। साथ ही मतदाता ने एक ही दल के हाथ में चाबी देने की बजाय संयुक्त परिवार की सभी बहुओं को बारी-बारी से चाबी सौंपने का सिलसिला प्रारंभ किया। मित्र दलों की सरकार का यह सिलसिला तो 1977 में ही शुरू हो चुका था, जब जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें तमाम गैर कांग्रेसी दल आ जुटे थे। 1998 के बाद तो जैसे यह भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र हो गया। यह प्रयोग 2019 के आम चुनाव तक जारी है, बावजूद इसके कि भाजपा ने अपने बूते 303 सीटें पाकर अपने अकेले के बूते सत्ता पाने की ताकत हासिल कर ली, लेकिन चुनाव पूर्व गठबंधन की वजह से राजग की सरकार केंद्र में बनाई।
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने सत्तारोहण किया तो तीसरा मोर्चा भी बना, जिसमें गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों ने खिचड़ी पकाई। जब कांग्रेस को यह लग गया कि अब वह अपने बूते केंद्र में सरकार नहीं बना पाएगी तब हेकड़ी छोडक़र उसने भी संयुक्त प्रगितिशील गठबंधन (यूपीए) बनाकर सत्ता सुख पाने की शुरुआत की। इस गठबंधन ने 2004 से 2014 तक देश पर राज तो किया, लेकिन यहीं से कांग्रेस के उस पराभव की शुरूआत हुई, जिसके बारे में कांग्रेसी अभी तक मानने को तैयार नहीं।
कांग्रेस पर गांधी परिवार के शिकंजे का अगला दौर 1998 से प्रारंभ हुआ जब सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया गया। 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या के बाद सात साल तक गैर गांधी परिवार कांग्रेस अध्यक्ष तो रहा, लेकिन तब नरसिंहाराव और सीताराम केसरी जैसे वयोवृद्धों ने पद का लालच नहीं छोड़ा और कांग्रेस को निरंतर नीचे की ओर ही ले गये। संभव था कि तब यदि नेतृत्व अपेक्षाकृत युवा हाथों में होता तो शायद बात कुछ और होती। नरसिंहाराव प्रधानमंत्री व कांग्रेस अध्यक्ष रहते कांग्रेस को लोकसभा में 244 सीटों से 140 पर ले आये। वहीं सीताराम केसरी ने सिर्फ एक सीट का कमाल किया। 1998 के चुनाव में कांग्रेस की 141 सीटें हो गईं और राजद की सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी।
उसी दौरान कांग्रेस का एक और विभाजन भी हुआ और नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने मिलकर तिवारी कांग्रेस तो माधवराव सिंधिया ने मप्र विकास पार्टी बना ली। ये सीताराम केसरी के नेतृत्व से बगावत थी। हालांकि इस बगावत से कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि पहले से ही वह कमजोर तो हो ही चुकी थी। इस बीच ये विद्रोही नेता सोनिया गांधी से कमान संभालने की लगातार मांग करते रहे, जिसमें अर्जुन सिंह सबसे आगे थे। अंतत: जब वे 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बना दी गईं तो ये सारे लोग लौट आये। तब भी एक मौका था, जब कांग्रेसी चाहते तो अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया या राजेश पायलट जैसे ऊर्जावान को कांग्रेस का नेतृत्व सौंप सकते थे, लेकिन गांधी परिवार की रट ने सोनिया को अंतत: सीधे राजनीति में उतरने का अवसर दे दिया। जानकार बताते हैं कि इस दौरान सोनिया गांधी ने राजनीति तो ठीक भारत से ही दूर परिवार सहित इटली चले जाने का इरादा कर लिया था, लेकिन कांग्रेसियों के लगातार आग्रह और दबाव के चलते वे रुक गईं और अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया। वह एक मौका था, जब भारत और कांग्रेस गांधी परिवार से मुक्त हो जाता।
सोनिया गांधी साल 1998 से 2017 तक अध्यक्ष रहीं और इस बीच 2004 में कांग्रेस समर्थित यूपीए की सरकार बनने के बावजूद प्रधानमंत्री नहीं बन पाई, क्योंकि उनके विदेशी मूल के मुद्दे ने विपक्ष और कांग्रेस में भी हलचल शुरू कर दी थी, जिससे कांग्रेस को नुकसान का अंदेशा था। सोनिया के अध्यक्ष रहते 2004 से 2014 तक फिर भी जैसे-तैसे कांग्रेस सरकार में बनी रही, लेकिन 2014 के बाद लगातार सूखा जारी है। 2017 में नरेंद्र मोदी से मुकाबला करने के लिये युवा नेतृत्व के नाम पर एक बार फिर गांधी परिवार के वारिस राहुल को अध्यक्ष बना दिया गया, क्योंकि उन दिनों तबीयत सोनिया गांधी का साथ नहीं दे रही थी। तब भी कांग्रेसियों को लगा कि राहुल गांधी परिवार के नाम पर कोई चमत्कार कर दिखायेंगे और मोदी की चमक फीकी कर देंगे।
इस बारे में समूची कांग्रेस के अनुमान बेहद गलत साबित हुए और राहुल की परिपक्वता पर ही सवाल उठने लगे। उनके बयान, संसद और बाहर उनके व्यवहार का मजाक बनने लगा। राजनीतिक परिवार के वारिस होने के बावजूद यह माना जाने लगा कि वे अपेक्षित राजनीतिक समझ, समीकरण, अंतरराष्ट्रीय मसले, कूटनीति, अर्थ नीति, परस्पर सौहार्द्र नहीं जानतेे। यहां तक कि जनता के बीच भी वे प्रभावी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाये। यह लगातार 2014 व 2019 के दो चुनाव में साफ हो गया। 2019 के चुनाव में तो जैसे-तैसे कांग्रेस के सरकार बना लेने के अनुमान थे और कांग्रेसियों ने मंत्रालय तक बांट लिये थे, लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा का वह जादू चला, जिसने स्वतंत्र भारत के इतिहास में लगातार दो बार और भाजपा को पूरी तरह अपने बूते केंद्र में सरकार बनाने लायक बहुमत देकर कांग्रेस की उम्मीदों पर ऐसा तुषारापात किया कि राहुल को अंतत: इस्तीफा देना पड़ा और तो और वे रायबरेली के साथ-साथ केरल के मुस्लिम बहुल वायनाड से भी चुनाव नहीं लड़ते तो उनका लोकसभा पहुंचना भी नहीं हो पाता।
2019 के आम चुनाव को लेकर कांग्रेस अति उत्साह में इसलिये थी कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के तीन राज्य मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ उसके कब्जे में आ गये थे तो उसे लगा कि दिल्ली अब दूर नहीं है। जबकि जनमानस मोदी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाया था। वैसे भी ये तीनों राज्य भाजपा की कमजोरी और कांग्रेस के किसान कर्ज माफी के वादे के जाल में फंसने से वे जीत पाए थे।
राहुल के इस्तीफा देने के बाद फिर से कांग्रेसियों ने गांधी-गांधी का जाप शुरू कर दिया और बातें तो प्रियंका को अध्यक्ष बनाने की होने लगी, लेकिन इसके खतरे भी थे। प्रियंका को लाने से कहीं उनके पति राबर्ट वाड्रा की फाइलें न खुल जायें, यह सोचकर प्रियंका की बजाय अस्वस्थता के बावजूद सोनिया गांधी ही फिर से अध्यक्ष बन गई। अब फिर से राहुल को लाने की मांग उठना समझ से परे है। राहुल का ऐसा कोई राजनीतिक कायांतर नहीं हुआ कि उन्हें नेतृत्व सौंप दिया जाये। उलटे चीन के साथ विवाद को लेकर उनके बयानों का एक बार फिर मजाक बना है और उनकी गंभीरता पर अंगुलिया उठने लगी हैं। इसे देश व सेना के खिलाफ माना जा रहा है और वे हैं कि आये दिन बयान दे रहे हैं। यहां तक कि एक पाकिस्तानी टीवी चैनल तक पर चर्चा में एक विश्लेषक ने राहुल के बचकाना बयान पर अफसोस जाहिर किया है।
इन हालात के मद्देनजर कांग्रेस बजाय इसके कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर मुद्दे तलाशे, अपने को तैयार करे, कैडर को मजबूत करे, सरकार को संसद व बाहर घेरने की रणनीति बनाए, चीन के साथ विवाद व कोरोना के संकट में देश व सरकार को साथ देने का भरोसा दिलाये, बेवजह की नुक्ताचीनी बंद करे, वह राहुल को अध्यक्ष बनाने की मुहिम छेडक़र शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन डाल देने जैसा उपक्रम कर रही है। उसे यह क्यों लगता है कि राहुल या कोई गांधी ही कांग्रेस की नैया पार लगा सकेगा, यह तो वे ही जानें, किन्तु इतना तय है कि इस वक्त इस तरह की बातों से वे कांग्रेस के जनाधार को कमजोर ही करेंगे। भारतीय मतदाता ने उसे अनेक बार अवसर दिये तो अनेक बार सबक भी दिया, लेकिन पता नहीं कांग्रेस का डीएनए किस तरह से दुर्बल हो चला है कि उस पर कोई विटामीन, प्रोटीन काम नहीं कर पा रहा है। ऐसे में कांग्रेस के शरीर ने एंटीबॉडी बनाना पूरी तरह बंद कर दिया और प्रतिरोधक क्षमता चूक गई तो आत्ममुग्धता और चापलूसी का वायरस कांग्रेस को अस्तित्वहीन न कर दे?