भले ही मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है लेकिन चुनाव में बीजेपी के लिए चेहरा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ही रहेंगे। साथ ही इस बार सत्ता जिसके भी हाथ लगे जीत हार का फैसला बहुत अधिक नहीं रहेगा। आने वाले दिनों में दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों कांग्रेस और बीजेपी में टिकट बंटवारे और उससे उत्पन्न हालत भी चुनाव पर स्थानीय स्तर पर बहुत असर डालेंगे। उसी के बाद तस्वीर साफ होती नजर आएगी।
13 जिलों की 70 विधानसभा सीटों वाले राज्य उत्तराखंड में विधान सभा चुनाव को लेकर अब 3 महीने का समय ही बचा है। इसी के चलते सभी राजनीतिक दलों की सियासी गतिविधियां तेज हो गई हैं। सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के साथ ही आम आदमी पार्टी के नेताओं के दौरों और घोषणाओं से दिन प्रतिदिन समीकरण बनते बिगड़ते नजर आ रहे हैं।
फिलहाल 2017 के विधानसभा चुनावों में मोदी लहर में एक तरफा तीन चौथाई सीटों पर जीत हासिल करने वाली बीजेपी के लिए इस बार हालात उतने सहज और सरल नहीं हैं। 2017 में 2012 के चुनाव के मुकाबले बीजेपी 31 सीटों से 57 सीटों पर पहुंच गई थी। जबकि 32 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 11 पर अटक गई। लेकिन 2022 में होने वाले चुनाव में इसी कमजोर कांग्रेस के साथ उसका मुकाबला कांटे का होता नजर आ रहा है।
इस राजनीतिक सत्य की जमीनी हकीकत को बीजेपी का केंद्रीय हाई कमान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तराखंड बीजेपी संगठन, मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) भी समझ चुका है। इसीलिए चुनाव आयोग द्वारा विधान सभा चुनावों की घोषणा के पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के जरिए अभी से बीजेपी ने उत्तराखंड में अपने पक्ष में माहौल बनाने की कवायद शुरू कर दी है।
7 जिलों वाले गढ़वाल मंडल की 41 सीटों में राजनीतिक समीकरण साधने और मतदाताओं के मन में बीजेपी का प्रभाव दृढ़ करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की एक सभा देहरादून में हो चुकी है। अब 6 जिलों वाले कुमाऊं मंडल की 29 सीटों को साधने के लिए दूसरी रैली 24 दिसंबर को इस क्षेत्र में होनी है। यह नैनीताल जिले के हल्द्वानी या उधमसिंह नगर में होगी। वास्तव में कुमाऊं में नैनीताल, हल्द्वानी और उधमसिंह नगर तथा गढ़वाल में देहरादून, हरिद्वार और रुड़की के तराई और मैदानी इलाकों में बीजेपी अपने गढ़ को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। साथ ही पर्वतीय इलाकों में भी उसको दुश्वारियां साफ नजर आ रही हैं। जिस तरह से बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा लगातार उत्तराखंड के दौरे कर रहे हैं। केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के कार्यक्रम भी लगातार उत्तराखंड में हो रहे हैं, साफ है कि बीजेपी ने भी मान लिया है इस बार मुकाबला कांटे का है।
इसके पीछे जो कारण गिनाए जा सकते हैं उनमें प्रचंड बहुमत के बाद भी तीन मुख्य मंत्री बनाना सबसे बड़ा सवाल है। वैसे भी लगभग 5 साल में मंत्रियों, विधायकों ने जनता के बीच अपना संपर्क नाम मात्र को किया है। अधिकतर समय बर्बाद करने वाले इन सब की कुंडली बीजेपी हाई कमान और आरएसएस के पास है। बीजेपी यह भूल नहीं सकती है कि 2012 के विधान सभा चुनाव में उसको एक सीट कम होने के कारण 5 साल सत्ता से दूर रहना पड़ा था।
कांग्रेस के लिए भी उत्तराखंड में यह चुनाव करो या मरो का सवाल खड़े करने वाला है। क्योंकि इस बार विधानसभा चुनाव हारने का मतलब है लंबे समय के लिए कांग्रेस की पकड़ से इस राज्य का फिसल जाना।
इसलिए कांग्रेस ने भी पूरी ताकत झोंकनी शुरू कर दी है। 16 दिसंबर को देहरादून में राहुल गांधी की रैली इसका प्रमाण है। इस रैली में राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर प्रहार करने को कोई मौका नहीं छोड़ा। साथ ही फौजियों को भी लुभाने का प्रयास किया। इस राज्य में अवकाश प्राप्त सैनिकों की संख्या भी बहुत है। अब बीजेपी की तर्ज पर ही कुमाऊं में भी कांग्रेस राहुल गांधी की रैली करवाएगी। इसको लेकर तैयारिया जोरों शोरों से शुरू कर दी है। जिस तरह से बीजेपी के विधायकों और मंत्रियों के साथ नेताओं ने 2017 के विधान सभा चुनाव के बाद समय बर्बाद किया, उसका लाभ शुरू से उठाने का प्रयास कांग्रेस ने भी नही किया। कांग्रेस के पास पूर्व मुख्य मंत्री हरीश रावत जैसा अनुभवी नेता है। जिनकी मान्यता पूरे राज्य में है लेकिन पार्टी में नेताओं की आपसी लड़ाई ने बहुत नुकसान कांग्रेस को पहुंचाया है। इसी के साथ आम आदमी पार्टी जिस तरह से सक्रियता दिखा रही है उसका बड़ा नुकसान कांग्रेस को और थोड़ा बहुत बीजेपी को भी होता नजर आ रहा है।
रही बात बीजेपी के वर्तमान मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी की तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि उनको समय भले ही कम मिला हो लेकिन मुख्य मंत्री बनने के बाद उन्होंने बीजेपी की दुश्वारियां कम करने वाले फैसले जरूर किए हैं। जिसमें चार धाम देव स्थानम प्रबंधन बोर्ड अधिनियम को समाप्त करना एक बड़ा फैसला है। इस अधिनियम को त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने लागू किया था, जो उनको हटाए जाने के कारणों में से एक बताया जाता है। इस अधिनियम के कारण पंडे, पुरोहितों, साधु संतो और उनके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग बीजेपी से बहुत नाराज हो गया था। जिससे विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए बड़े नुकसान का खतरा पैदा हो गया था। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने इसका लाभ उठाने के लिए बयानबाजी भी खूब की थी। इसी के साथ सालों से अटके नजूल भूमि पर कब्जेदारों को आवंटन, प्रदेश की पहली निर्यात नीति, अतिथि शिक्षिको को न हटाने का फैसला चुनावी लाभ दे सकते हैं।
आंगनबाड़ी कार्यकत्री, ग्राम प्रधान, पंचायत अध्यक्ष, जिला परिषद आदि आदि के मानदेय बढ़ाकर भी धामी सरकार ने चुनाव मैदान में जाने से पहले अपनी उपलब्धियों में शामिल कर लिया है।
पुष्कर धामी को लेकर आम जनता में धारणा यह बन रही है कि राज्य को पहली बार कोई ऐसा मुख्यमंत्री मिला है जो इसकी मूलभूत समस्याओं को दूर करने की दृष्टि रखता है। अपने गठन के बाद से ही उत्तराखंड में कांग्रेस और बीजेपी की सरकारों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। नित्यानंद स्वामी और भगत सिंह कोश्यारी जैसे अपवादों को छोड़कर कर तमाम मुख्य मंत्री, मंत्री, नौकरशाही और सरकारी मशीनरी भ्रष्टाचार के आरोपों से लथपथ रही है, पर 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत से लेकर अब तक पुष्कर सिंह धामी तीन मुख्यमंत्री बने हैं, उनके कट्टर विरोधी भी व्यक्तिगत तौर पर इन तीनों पर भ्रष्ट्राचार का कोई आरोप लगाने का साहस नहीं जुटा पाया है। यह भी बीजेपी की छवि के लिए एक बड़ा मुद्दा है जिसे वह भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। इस बीच चारधाम यात्रा मार्ग पर केंद्र सरकार का स्टैंड और सुप्रीम कोर्ट से सड़क निर्माण की अनुमति मिलने का श्रेय लेना भी बीजेपी नहीं भूलेगी। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में विकास का एक बड़ा ढांचा भी विस्तारित होगा। साथ ही सेना के लिए किए गए इस फैसले का असर चीन के खिलाफ सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने पर भी पड़ेगा। इसका असर राज्य के अवकाश प्राप्त सैनिकों पर भी पड़ेगा, जिनके वोट किसी भी दल को जिताने और हराने में महती भूमिका निभाते हैं।
अब सब कुछ टिकट बंटवारे पर आ कर टिक गया है। लगता तो यही है कि बीजेपी में इस बार बड़े पैमाने पर निष्क्रिय और खराब छवि वाले विधायकों के टिकट काटे जाने वाले हैं क्योंकि बीजेपी को किसी विद्रोह का खतरा नहीं है। उत्तराखंड में बीजेपी में आज तक जिसने विद्रोह का प्रयास किया वे सभी राजनीतिक तौर पर लगभग समाप्त ही हो गए। हां कांग्रेस के संदर्भ में यह बात नहीं कही जा सकती है क्योंकि कांग्रेस से विद्रोह कर बीजेपी में शामिल नेता आज भी सत्ता में हैं और बीजेपी में उनकी स्थिति अच्छी मानी जाती है।
इन सब के बावजूद कांग्रेस को इस बार बीजेपी हल्के में लेने का खतरा नहीं उठा सकती है क्योंकि अभी तक हर पांच साल में सत्तारूढ़ दल को हटाने का इस राज्य का इतिहास रहा है। लोगों में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ पनपे आक्रोश को कांग्रेस कितना भुना पाती है, यही जीत हार का कारण और अंतर पैदा करेगा। बीजेपी भी यह जानती है इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे कर उस आक्रोश को कम करने और थामने की नीति पर काम कर रही है। भले ही मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है लेकिन चुनाव में बीजेपी के लिए चेहरा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ही रहेंगे। साथ ही इस बार सत्ता जिसके भी हाथ लगे जीत हार का फैसला बहुत अधिक नहीं रहेगा। आने वाले दिनों में दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों कांग्रेस और बीजेपी में टिकट बंटवारे और उससे उत्पन्न हालत भी चुनाव पर स्थानीय स्तर पर बहुत असर डालेंगे। उसी के बाद तस्वीर साफ होती नजर आएगी। फिलहाल बीजेपी के पुनः सत्ता में आने के लिए बहुमत प्राप्त करने के दावे के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि बहुत कठिन है राह पनघट की।