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वर्ष 1990 के बाद से कांग्रेस को नहीं मिला यूपी में मौका

वर्ष 1990 के बाद से कांग्रेस को नहीं मिला यूपी में मौका

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग, राजनीति
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उत्तर प्रदेश में चुनाव की तैयारियां अपने अंतिम चरण पर चल रही है और सभी राजनीतिक दल जनता को सिर्फ यह विश्वास दिलाने में लगे हुए है कि उनकी पार्टी ही जनता की सबसे बड़ी हितैषी है। जनता को विश्वास दिलाने के लिए जाति, धर्म, रोजगार और महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों को खूब भुनाया जा रहा है और सभी की यह कोशिश हो रही है कि जनता उन पर विश्वास करे और उन्हें आने वाले चुनाव में वोट देकर विजयी बनाए। दरअसल चुनाव होता ही कुछ ऐसा है जहां जनता को भी पता होता है कि उसके साथ झूठे वादे किए जा रहे हैं और वह भी उन झूठे वादों पर विश्वास कर हर बार किसी ना किसी को मौका देती है और फिर एक खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। 

उत्तर प्रदेश चुनाव में बड़े तौर पर देखा जाए तो सिर्फ दो ही पार्टियों की लड़ाई है पहली बीजेपी और दूसरी सपा, लेकिन बाकी दल भी खुद को किसी से कम नहीं आंक रहे हैं और सभी यह प्रचार कर रहे हैं कि उनकी ही पार्टी सत्ता में आने वाली है। वर्ष 1989 में कांग्रेस की आखिरी सरकार उत्तर प्रदेश में थी और नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री थे उसके बाद से करीब 3 दशक से अधिक का समय बीत गया लेकिन यूपी में कांग्रेस को सत्ता नसीब नहीं हुई है। राजनीति में यह गैप बहुत लंबा होता है जब किसी पार्टी को 30 सालों से जनता एक भी बार मौका ना दें हालांकि कांग्रेस हर बार यह कह कर चुनाव में उतरती है कि इस बार उसकी जीत तय है लेकिन उसे फिर से मुंह की खानी पड़ती है। कांग्रेस पहले राहुल गांधी के दम पर राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती थी लेकिन यह संभव नहीं हुआ और पार्टी से लेकर जनता के बीच तक सभी जगह राहुल को हार का मुंह देखना पड़ा फिर कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी को मैदान में उतारा गया हालांकि अभी तक प्रियंका गांधी ने भी कोई बड़ा कमाल नहीं दिखाया है लेकिन ऐसा कहा जाता है कि प्रियंका गांधी की नाक उनकी दादी (इंदिरा) से मिलती है ऐसे में उन्हें इंदिरा गांधी बनाने का सपना देखा जा रहा है। 

भ्रमित विचारधारा व गठबंधन

बाकी राजनीतिक दलों पर नजर डालें तो सभी की अपनी अपनी विचारधारा साफ है लेकिन कांग्रेस अभी भी उसी में उलझी हुई है उसके पास ना कोई एक धर्म है और ना ही कोई एक समुदाय इसलिए वह किसी एक की होकर नहीं रह पा रही है। राहुल गांधी कभी जनेऊ धारण कर लेते हैं तो कभी जालीदार टोपी लगा लेते है जबकि बाकी दल अपने अपने धर्म और जाति को लेकर एक सिद्धांत के साथ आगे बढ़ रहे है इसलिए उनका एक समर्थक दल उनके साथ है। बीजेपी हिन्दू वोट के साथ राजनीति कर रही है और उसे बड़ी सफलता मिल रही है सपा, बसपा का भी ओबीसी व दलित वोट निश्चित है जबकि कांग्रेस के पास ऐसा कुछ भी नहीं है शायद इसलिए ही वह बीच चौराहे पर खुद को खड़ी पा रही है। कांग्रेस पार्टी की विचारधारा सिर्फ बीजेपी को हराने की थी और उसने उसके लिए गठबंधन किया लेकिन उसने जिन लोगों के साथ गठबंधन किया वह उसके लिए फायदेमंद साबित नहीं हुए। कांग्रेस ने सपा और बसपा दोनों के साथ गठबंधन किया जिससे उसके दलित व ओबीसी वोट उससे कट गये और वह हमेशा के लिए सपा, बसपा के खाते में चले गये। राज्य के वोटरों को भी यह पता चल चुका था कि अब कांग्रेस एक डूबती जहाज है इसलिए इस पर से उतर जाना ही बेहतर होगा। 

परिवारवाद व विश्वसनीय चेहरा

कांग्रेस को विरोधी दल परिवार की पार्टी बताते रहे है और यह शायद सही भी है क्योंकि पार्टी ने बाहर के लोगों को मौका नहीं दिया है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर परिवार का ही कब्जा अधिक समय तक रहा है पिछले काफी समय से पार्टी के पास अध्यक्ष नहीं है लेकिन उसे किसी भी अन्य नेता को नहीं दिया जा रहा है। राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन वह अपने काम पर खरे नहीं उतर सके इसलिए उन्होंने खुद ही इस्तीफा दे दिया जिसके बाद से सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया और पार्टी उसी के सहारे अभी तक चल रही है। कांग्रेस पार्टी के कई दिग्गज नेता भी इस पर आवाज उठा चुके हैं कि अगर पार्टी के पास एक अध्यक्ष नहीं होगा तो उसका विस्तार कैसे संभव होगा। कांग्रेस की हालत यह है कि उसके पास चेहरों की कमी हो गयी है राज्य के विधानसभा चुनाव में भी राहुल गांधी व प्रियंका गांधी को उतारना पड़ रहा है जबकि राहुल व प्रियंका गांधी परिवार के सदस्य है उन्हें सभी जगह खड़ा कर देना ठीक नहीं है। 

रणनीति की कमी 

कांग्रेस की रणनीति भी कहीं ना कहीं विचार करने योग्य है क्योंकि पार्टी की कथनी और करनी में अंतर होता है। आप को कांग्रेस पार्टी के कुछ पुराने बयान की याद दिलाते हैं। वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने कहा कि वह वाराणसी से चुनाव लड़ेंगी और पीएम मोदी को हराएंगी उसके लिए उन्होंने कई रैली की लेकिन अंत समय में उन्होंने विचार बदल लिया और चुनाव नहीं लड़ी। 2019 लोकसभा चुनाव में ही राहुल गांधी ने अमेठी के पर्चा भरा लेकिन उन्हें इस बात की खबर हो गयी थी कि इस बार जीत मुश्किल है इसलिए उन्होंने केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ा जहां से कांग्रेस की सीट पक्की थी। ऐसी तमाम उदाहरण है जब कांग्रेस ने बिना किसी रणनीति के बयान जारी कर दिया लेकिन बाद में विचार करने बाद उन्हें यह एहसास हुआ है कि उनके बयान गलत है और उन्हें फिर से बदला गया। हाल ही में प्रियंका गांधी ने खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताकर एक बार फिर से राजनीति तेज कर दी है हालांकि उन्हें बाद में सफाई देते हुए कहा कि इस पार आखिरी फैसला पार्टी की तरफ से किया जाएगा। 

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Tags: congresselectionelection commissionhindi vivekhindi vivek magazineuttar pradesh

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