चुनावों से पहले का दावानल

बेंगलुरु के माउंट कार्मेल पीयू कॉलेज में 17 साल की सिख लड़की को पगड़ी उतारकर कॉलेज आने के लिए कहा गया। कॉलेज का कहना था कि उसे 10 फरवरी को दिए गए हाई कोर्ट के आदेश का पालन करना होगा, जिसमें समान ड्रेस कोड की बात कही गई है। हालांकि हाईकोर्ट के आदेश में किसी भी सिख को पगड़ी उतारने के लिए नहीं कहा गया है, यहां तक कि सेना, पुलिस या अन्य किसी भी क्षेत्र में कभी भी किसी भी सिख को पगड़ी उतरने के लिए नहीं कहा जाता चूंकि सिख हमेशा और हर स्थान पर पगड़ी पहनते हैं।

हम इस वर्ष भारतीय स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। भारत के परतंत्र होने से पहले वह सोने की चिडिया कहलाता था। भारत का वैश्विक व्यापार में अहम हिस्सा था, तत्कालीन तकनीकों में भारत अव्वल था। हमारे पास सशस्त्र सेनाएं थीं, सांस्कृतिक चेतना थी, परन्तु फिर भी भारत परतंत्र हुआ। क्यों? क्योंकि समाज विभक्त था। कहते हैं जो समाज अपना इतिहास भूल जाता है, वह अपना  भविष्य नहीं बना सकता। आज भारतीय समाज फिर समस्याओं के उसी मुहाने पर खडा है। आज भी भारत के पास उत्कृष्ट सेना है, हम दुनिया के लिए और दुनिया हमारे लिए बहुत बडा बाजार है, न्यूनाधिक मात्रा में सांस्कृतिक चेतना भी है, परंतु समाज विभक्त है और इतना विभक्त है कि देश के किसी कोने में घटी छोटी सी घटना पूरे देश को लील लेती है।

पिछले 75 सालों में भारत ने सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण कई छुटपुट हिंसात्मक घटनाओं से लेकर बडे दंगों तक बहुत कुछ देखा है। जिस भारत को आजादी ही सांप्रदायिक बंटवारे के साथ मिली है, उस समाज में ‘सम्पूर्ण’ सामाजिक सौहार्द्रता निर्माण करना और टिकाए रखना बहुत बडी चुनौती है। वैसे तो भारत एक लोकतांत्रिक देश है, संविधान और न्यायपालिका के आधार पर चलने वाला देश है, सर्वधर्म समभाव वाला देश है, परंतु कुछ वर्षों के अंतराल में साम्प्रदायिक कट्टरता अपना मुंह उठाती रहती है और इसे साथ मिलता है, आज भी ‘फूट डालो और शासन करो’ वाली मानसिकता वाले शासनकर्ताओं का। यही कारण है कि जब भी किसी प्रमुख राज्य में चुनाव होनेवाले होते हैं यह साम्प्रदायिकता सामाजिक विमर्श का अहम मुद्दा बन जाती है या कहें कि जानबूझकर बना दी जाती है।

कर्नाटक का हिजाब विवाद भी इसी का एक हिस्सा था, जिसे जानबूझकर विधानसभा चुनावों से पहले दावानल की तरह फैलाया गया। वैसे तो यह अत्यंत सामान्य विषय था जो स्थानीय विद्यालय प्रशासन के अंतर्गत आता है कि विद्यालय का गणवेश क्या हो और किसे क्या पहनने की अनुमति हो या न हो। परंतु चूंकि ‘हिजाब’ कट्टरपंथी मुस्लिम विचारधारा का प्रतीक है, अत: मामला तुरंत मजहब, अल्लाह और कुरान तक पहुंचा दिया गया। क्या यह सही था? वह समाज महिलाओं के अधिकारों की बात करने लगा, जो उनके अधिकारों का सबसे अधिक हनन करता है। हालांकि इस बीच उस ‘हिजाब क्वीन’ के कुछ ऐसे फोटो भी सोशल मीडिया पर ट्रेंड हो रहे थे, जिसमें वो मॉल, आइस्क्रीम पार्लर और अन्य ऐसी जगहों पर बिना हिजाब के दिखाई दी जहां उसे अपनी इच्छा से कपडे पहनने की छूट है, परंतु उसने वहां हिजाब नहीं पहना है। अत: यह कहना अनुचित नहीं कि हिजाब विवाद का प्रमुख उद्देश्य चुनावों के पहले फिर एक बार साम्प्रदायिक विमर्श खडा करना था। इस हिजाब का विरोध करने के लिए विद्यार्थी अपने गले में भगवा गमछा, पट्टी डालकर मैदान में कूद पडे और देखते-देखते एक छोटे से विद्यालय का आंतरिक मामला पूरे देश का सामाजिक विमर्श बन गया।

इसके बाद बेंगलुरु के माउंट कार्मेल पीयू कॉलेज में 17 साल की सिख लड़की को पगड़ी उतारकर कॉलेज आने के लिए कहा गया। कॉलेज का कहना था कि उसे 10 फरवरी को दिए गए हाई कोर्ट के आदेश का पालन करना होगा, जिसमें समान ड्रेस कोड की बात कही गई है। हालांकि हाईकोर्ट के आदेश में किसी भी सिख को पगड़ी उतारने के लिए नहीं कहा गया है, यहां तक कि सेना, पुलिस या अन्य किसी भी क्षेत्र में कभी भी किसी भी सिख को पगड़ी उतरने के लिए नहीं कहा जाता चूंकि सिख हमेशा और हर स्थान पर पगड़ी पहनते हैं। वे इस हिजाब क्वीन की तरह सुविधानुसार पगड़ी उतारते या पहनते नहीं हैं। अतः हिजाबधारी लड़कियों का पगड़ीधारी लड़की से पगड़ी उतरने के लिए कहना केवल विरोध के लिए विरोध दर्शाता है, जिसका कोई आधार नहीं है। और चूंकि कालेज प्रशासन मिशनरी है अतः उनका इस विषय को बढ़ावा देना कोई नई बात नहीं है.

इन सभी घटनाक्रमों का समग्रता से विचार किया जाए तो चार प्रमुख मुद्दे दिखाई देते हैं। पहला यह कि 75 साल की आजादी के बाद भी हर भारतवासी के मन में अभी तक ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना जागृत नहीं हुई है, दूसरा यह कि इस विवाद में अब विद्यार्थियों को घसीटा जा रहा है, जिनका उद्देश्य अभी केवल उचित शिक्षा प्राप्त करना होना चाहिए जिससे वे अपना और देश का भविष्य उज्ज्वल कर सकें, तीसरा वह देश जो विकास का दृष्टिकोण अपना चुका है, आत्मनिर्भर बनने की ओर अग्रसर हो चुका है उसे फिर से साम्प्रदायिकता, कट्टरता की ओर धकेला जा रहा है और चौथा यह कि तकनीक और सोशल मीडिया समाज में इतनी गहराई तक अपनी पैठ बना चुका है कि वह पल भर में समाज का मानस बना और बिगाड सकता है।

ये सभी मुद्दे एक दूसरे से जुडे हुए हैं। नई पीढ़ी के मन में ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना जागृत करना पुरानी पीढ़ी का काम है। अगर उनकी युवावस्था का प्रयोग साम्प्रदायिक कट्टरता को बढ़ाने में किया गया तो हमारे सामने एक कट्टर साम्प्रदायिक पीढ़ी ही आएगी, जिसे राष्ट्र, उसके संविधान या उसके विकास से कोई लेना-देना नहीं होगा और यह पीढ़ी सोशल मीडिया पर आनेवाली घटनाओं से प्रेरित होकर अपना मत तय करेगी। अगर हम इससे अलग समाज बनाना चाहते हैं तो संवैधानिक तरीके से न्यायपालिका के नियमों का उचित परंतु सख्त पालन बिना किसी भेदभाव के करना होगा। सभी पर समान कानून लागू करने होंगे और सभी को समान अधिकार देना होगा। सोशल मीडिया के कंटेंट पर भी लगाम कसनी होगी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मर्यादा भी तय करनी होगी।

अगर अब ऐसा नहीं किया गया तो साम्प्रदायिक क्रियाओं पर प्रतिक्रियाएं होती रहेंगी। हम यूं ही हिजाब और भगवे गमछों में उलझे रहेंगे, फिर वही दंगे और बम विस्फोट होंगे और भारत फिर से एक दशक पीछे चला जाएगा।

 

This Post Has 2 Comments

  1. सुरेश गोविंद घरत,कळंब,वसई,पालघर.

    बहुत अच्छा लगा आपका ये आर्टिकल!
    पर मुझे लगता है की हिंदुत्व ही मानवता
    धर्म तत्व है।और अधर्म किसीं की भी
    हिंदुत्व की पगडी ना उतार सके इसलीए
    शीख संप्रदाय बना है।तो किसीं भी शीख
    की पगडी उताराना एने ईश्वर,अल्ला और
    ईसा का अपमान है।

  2. Shailesh Choudhary

    एकदम सटिक

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