कहा जाता है कि हनुमान जी ने वज्र सदृश अपने नख से पर्वत की शिलाओं पर पूरी राम कथा लिख दी थी। सोचिए वो अकेली रामकथा होती जो उस कवि के द्वारा लिखी गई होती जिसने राम जी और राम चरित का स्वयं साक्षात्कार किया हो।
ये देखकर महर्षि वाल्मीकि के हृदय में दुःख उत्पन्न हो गया कि अब उनकी रामकथा का उतना आदर नहीं होगा जितना बजरंगबली के द्वारा लिखी रामकथा का होगा। ऋषि को निराश देखकर बजरंग बली ने उन समस्त शिलाओं को समुद्र में प्रवाहित कर दिया।
“वृत पत्र में नाम छपेगा/ पहनूंगा स्वागत समुहार/ छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना/ हिंदू राष्ट्र के तारणहार” वाला जो गीत संघ की शाखाओं में गाई जाती है उसके प्रणेता व्यवहारिक रुप में श्री हनुमान जी ही थे।
संघ प्रणेता डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार अपने साथ हनुमान जी की मूर्ति लेकर चलते थे क्योंकि वो जानते थे कि जब केवल राष्ट्र और धर्म ही हेतु हो तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, मान और अपमान का मोह और दुःख छोड़कर केवल ध्येय साधना सीखनी हो तो हनुमान जी सबसे बड़े आदर्श हैं।