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कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला सतर्क करने वाला

कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला सतर्क करने वाला

by अवधेश कुमार
in ट्रेंडींग, महिला, शिक्षा, सामाजिक
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शिक्षालयों में हिजाब पहनने का विवाद इतनी आसानी से नहीं निपटेगा यह स्पष्ट था। कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला आया नहीं कि सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हो गई। जाहिर है पहले से इसकी तैयारी हो चुकी थी और उच्च न्यायालय के आदेश का अनुमान भी लगा लिया गया था। किंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय कह रहा है इस्लाम मजहब में हिजाब पहनना मजहब प्रथा का अनिवार्य हिस्सा नहीं है तो उसने उसका आधार भी दिया है। जब यह धार्मिक प्रथा का अनिवार्य अंग नहीं है तो  संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित नहीं हो सकता।

इस तरह उच्च न्यायालय ने विद्यालयों, महाविद्यालयों समेत  शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक के आदेश को सही ठहरा दिया है। जो लोग इसे जबरन मजहबी अधिकार मनवाने पर तुले हैं वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। वे इसे मजहबी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन साबित कर रहे थे और उच्च न्यायालय कह रहा है कि नहीं यह धार्मिक मामला है ही नहीं तो मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे हो गया। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट लिखा है कि राज्य सरकार द्वारा विद्यालयों में ड्रेस का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत छात्रों के अधिकारों पर तर्कसंगत नियंत्रण है और 5 फरवरी का कर्नाटक सरकार का आदेश अधिकारों का उल्लंघन नहीं है ।

ध्यान रखिए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित सदस्य पीठ का सर्वसम्मति फैसला है। इस्लाम के जानकारों में भी ऐसे लोग थे जो बता रहे थे कि हिजाब कभी भी मजहब के आईने में इस्लाम की अनिवार्य व्यवस्था रही नहीं। वे माननीय मजहबी पुस्तकों, इस्लामी कानूनों तथा अलग-अलग देशों की प्रथाओं का भी उदाहरण देते रहे। लेकिन हमारे देश में ऐसा बहुत बड़ा वर्ग पैदा हो गया जो किसी सामान्य आदेश को भी अपने मजहब अधिकारों पर उल्लंघन मानकर  इस्लाम के विरुद्ध साबित करने पर तुल जाता है और बात का बतंगड़ बनता है । कितना तनाव कर्नाटक में पैदा हुआ और उसका असर अलग-अलग राज्यों में कैसा हुआ इसे याद करिए तो आपके सामने इसके पीछे की चिंताजनक सोच स्पष्ट हो जाएगी।

कट्टरपंथी तत्व मुस्लिमों के बहुत बड़े समूह के अंदर यह बात गहरे बिठा चुके हैं कि जिस तरह भाजपा सरकार एक काम कर रही हैं और न्यायालयें फैसला दे रही हैं उससे देश में मुसलमानों के लिए अपने मजहबी रीति-रिवाजों परंपराओं का पालन करना कठिन हो जाएगा। इस झूठ ने आम मुसलमानों के अंदर गहरी शंका पैदा की है और उनके आह्वान पर सड़कों पर उतर जाते हैं। इससे केवल संकीर्णता और कट्टरता बढ़ रहा है । ये बार-बार पराजित होते हैं लेकिन इन पर असर नहीं है।

उच्च न्यायालय के सामने इस्लामिक आस्था या धार्मिक प्रथा के प्रश्न के साथ यह भी था कि छात्रों को इस पर आपत्ति करने का अधिकार है या नहीं ।उसने साफ कहा है कि नहीं है। उसने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि सरकार का 5 फरवरी का आदेश गलत, मनमाना और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 यानी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। वास्तव में पूरे फैसले को गहराई से देखें तो यह कई मायनों में दूरगामी महत्व वाला तथा इस्लाम के नाम पर लादी गई प्रथाओं को गलत साबित कर हर वर्ग के जागरूक और सच्चे आस्थावान लोगों की आंखें खोलने वाला है । उदाहरण के लिए मजहबी स्वतंत्रता के अधिकार पर न्यायालय की टिप्पणी है कि संविधान के अनुच्छेद 25 के संरक्षण का सहारा लेने वाले को न केवल अनिवार्य मजहबी प्रथा साबित करनी होती है बल्कि संवैधानिक मूल्यों के साथ अपना जुड़ाव भी दर्शना होता है। यदि प्रथा मजहब का अभिन्न हिस्सा साबित नहीं होती तो मामला संवैधानिक मूल्यों के क्षेत्र में नहीं जाता ।

यह ऐसी टिप्पणी है जिसका आने वाले समय में बार-बार उल्लेख किया जाएगा। हालांकि हमें उच्चतम न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए लेकिन उच्च न्यायालय की टिप्पणियों को देखने के बाद यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इसके फैसले आने किसी तरह का फैसला आने की संभावना नहीं है । अगर उच्च न्यायालय को कहीं से भी यह प्रमाण मिल जाता कि वाकई हिजाब इस्लाम मजहब का अभिन्न हिस्सा है और छात्राएं न पहनने के बाद इस्लाम मजहब से खारिज हो जाएंगी तो वह ऐसा फैसला कतई नहीं देता। ऐसा है ही नहीं और स्वयं इस्लामी देशों में भी इसके प्रमाण हैं तो कोई न्यायालय अलग फैसला कैसे दे सकता है। इस याचिका में कॉलेज अथॉरिटी के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच का आदेश देने का  मुकदमा दायर करने की अपील पर न्यायालय ने कहा है कि प्रतिभागियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का मामला नहीं बनता। याचिकाओं में कोई मेरिट नहीं है और यह कहते हुए याचिका खारिज कर दिया गया।

जैसा हम जानते हैं कि उच्च न्यायालय ने 11 दिनों तक सभी पक्षों को सुना और पिछले 25 फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था। आम मुसलमानों और देश को यह बताया जाना आवश्यक है कि न्यायालय ने फैसले में स्पष्ट कहा है कि प्रथमदृष्टया रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की गई जिससे साबित होता है कि हिजाब पहनना इस्लाम में मजहब का अभिन्न हिस्सा है और याचिकाकर्ता छात्राएं शुरू से ही पहन रही हैं। उन छात्राओं की तस्वीरें आ चुकी है जिसमें वो पहले कॉलेज यूनिफॉर्म में जाती थी। अनेक मुस्लिम छात्राएं उसी इनफॉर्म में जातीं रहीं। अचानक उन्होंने हिजाब पहन लिया और इसे भी न्यायालय ने अपने फैसले में उद्धृत किया है। न्यायालय की टिप्पणी है कि ऐसा नहीं है कि अगर हिजाब पहनने की परंपरा नहीं निभाई गई या जिन्होंने हिजाब नहीं पहना वे गुनाहगार होंगी, इस्लाम अपना गौरव खो देगा और मजहब के तौर पर उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा।

जरा सोचिए,  तर्क यही दिया जाता था और है कि महिलाएं मजहब के अनुसार गुनाहगार साबित हो जाएंगी, इस्लाम पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा और  इसका अस्तित्व मिट सकता है। जाहिर है, कट्टरपंथी समाज में विद्वेष पैदा करने के इरादे से झूठ फैला रहे थे। वास्तव में न्यायालय ने अपना फैसला इससे जुड़े सभी पहलुओं को ध्यान रखते हुए दिया है, जिसमें शिक्षा, विद्यालय, शिक्षक, वस्त्र आदि की अवधारणा, महत्व आदि का व्यापक विश्लेषण है। वास्तव में विद्यालय की अवधारणा शिक्षक, शिक्षा और यूनिफार्म के बगैर अपूर्ण है और यह सब मिलकर एकीकरण करते हैं।

वास्तव में स्कूल में यूनिफार्म की अवधारणा नई नहीं है। अनेक मुस्लिम देशों में भी इस तरह के स्कूल चलते हैं और वहां मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर नहीं जाती। एक याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि यूनिफॉर्म पहली बार अंग्रेजों के समय लाया गया था। न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि यह अवधारणा पुराने गुरुकुल काल से चली आ रही है। भारतीय ग्रंथों समवस्त्र, शुभ्रवेश आदि का जिक्र है, उसके विवरण हैं। विदेशी यात्रियों  ने भी उस समय चलने वाले गुरुकुलों -शिक्षालयों में लड़के लड़कियों के वस्त्रों का विवरण दिया है। एक याचिकाकर्ता ने बड़ी चालाकी से अपील की थी कि यूनिफार्म के रंग की हिजाब की इजाजत दे दिया जाए। जाहिर है, न्यायालय ऐसा कर देता तो स्कूल के यूनिफॉर्म का कोई मतलब नहीं रह जाता। निश्चित रूप से इससे छात्राओं की दो श्रेणियां हो जातीं जिनमें एक हिजाब के साथ यूनिफार्म पहनने वाली और दूसरी बगैर हिजाब के। इससे यूनिफॉर्म का उद्देश्य विफल हो जाता। न्यायालय की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए- नियम का उद्देश्य एक सुरक्षित स्थान बनाना है जहां ऐसी विभाजन कारी रेखाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और समतावाद के आदर्श सभी छात्रों के लिए समान रूप से स्पष्ट होने चाहिए।

अगर उद्देश्य वाकई अपनी धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करनी होती तो ऐसे मामले विवादित नहीं बनते और न न्यायालय में जाते। इनके पीछे उद्देश्य हमेशा गलत होता है। ध्यान रखिए , उच्च न्यायालय ने ही कहा है  कि  सामाजिक शांति और सौहार्द बिगाड़ने के लिए अदृश्य शक्तियों ने हिजाब विवाद को पैदा किया। इसे बेवजह तूल देने पर भी पीठ की पंक्ति है कि जिस तरह से हिजाब विवाद सामने आया है उससे इस तर्क की गुंजाइश को बल मिलता है कि सामाजिक अशांति और असमंजस पैदा करने के लिए कुछ अदृष्य ताकतें काम कर रहीं हैं। ध्यान रखने की बात है कि जब न्यायालय के समक्ष कुछ वकीलों ने इसमें पीएफआई के छात्र संगठन केंपस फ्रंट ऑफ इंडिया तथा कुछ अन्य मुस्लिम संगठनों की भूमिका की ओर इशारा किया तो न्यायालय ने सरकार से जानकारी मांगी।

राज्य के महाधिवक्ता की ओर से बंद लिफाफे में न्यायालय को कुछ कागजात दिए गए थे। न्यायालय ने इस पर कुछ स्पष्ट करने की बजाय केवल इतना लिखा है कि जो कागजात हमें सौंपे गए थे हमने उसे देखने के बाद वापस कर दिया है और हम उम्मीद करते हैं कि इस मामले में त्वरित और प्रभावी जांच होगी और दोषियों के खिलाफ बिना देर किए कार्रवाई की जाएगी। निश्चय ही ये पंक्तियां उन सारी शक्तियों को नागवार गुजरेंगी जो पुलिस जांच को पक्षपातपूर्ण और मुसलमानों  व कुछ संगठन के लोगों को उत्पीड़ित करने वाला बता रहे थे। इससे साफ हो जाता है कि न्यायालय की नजर में पुलिस ने अभी तक जो कार्रवाई की वह गलत नहीं है। यह ऐसा पक्ष है जिसकी ओर कम ध्यान दिया जा रहा है। तो मान कर चलिए कि आने वाले दिनों में जिन तत्वों ने इस विवाद को भड़काया और जिसके बारे में पीठ ने कहा है कि वह इस बात से निराश है कि शैक्षणिक सत्र के बीच में यह मामला पैदा हो गया और इसके पीछे की ताकतों ने इसे तूल दे दिया उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। हालांकि फैसला कुछ भी आ जाए इस देश में इस्लाम के नाम पर छाती पीटने वाले मानेंगे नहीं।

उदाहरण के लिए नेशनल कांफ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा कि फैसले से हैरान और हताश हूं। आप हिजाब के बारे में क्या सोचते हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन हिजाब सिर्फ शरीर को ढकने के लिए कपड़ों का हिस्सा मात्र नहीं है। यह महिलाओं के उस अधिकार से जुड़ा है जो उन्हें उनकी इच्छानुसार कपड़ा पहनने की इजाजत देता है। इसी तरह महबूबा मुफ्ती कह रही है कि फैसला निराशाजनक है। उनके अनुसार एक तरफ हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं और दूसरी तरफ हम उन्हें उनकी एक साधारण इच्छा और अधिकार से वंचित कर रहे हैं। यह सिर्फ धर्म का मामला नहीं है चयन की स्वतंत्रता से भी जुड़ा हुआ है ।जरा सोचिए, उमर और महबूबा उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। महबूबा बेटियों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और अगर उन्होंने हिजाब पहना था तो उसकी तस्वीर भी उन्हें सामने लाना चाहिए। इस तरह के दोहरे चरित्र वाले लोग समाज के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। न्यायालय ने इसकी ओर सचेत किया है। उच्चतम न्यायालय का फैसला भी आने दीजिए, पर ऐसे तत्वों के प्रति प्रतीक सतर्क रहना और इनका तार्किक विरोध करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का दायित्व बन जाता है।

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Tags: hijab controversyhijab is not integral part of islamhindi vivekkarnataka high courtno hijab in schools

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