शिक्षा का उद्दिष्ट : ‘स्व’ की पहचान

विद्यालय प्रारंभ करते समय उद्देश्य सामने रखा गया था कि प्रचलित शिक्षा-प्रणाली में धर्म, नीति, राष्ट्रभक्ति, मातृभूमि के प्रति अनन्य श्रद्धा आदि के संस्कार देने की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है। इस कमी को पूरा करने का प्रयास इस विद्यालय में करेंगे। आज यह देखकर बड़ा आनंद हुआ कि उस समय धारण किया हुआ विश्वास पूरा हो रहा है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने इस देश में योजनापूर्वक लंबे समय तक इस बात का प्रयास किया कि इस देश का राष्ट्रीय समाज अपने इतिहास, संस्कृति तथा सभ्यता को पूरी तरह भुला दें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने शिक्षा की एक योजना बनाई थी। इस योजना के अंग्रेज मूलपुरुष ने कहा था कि भारत में काले अंग्रेजों का निर्माण करना है। वही स्वत्वशून्य शिक्षा की रचना हमारे देश में चलती रही। अंग्रेजों की इस कूटनीति को उस समय हमारे देश के जानकार लोगों ने पहचान लिया था। इसीलिए देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान अंग्रेजी शिक्षा का विरोध भी होता रहा।

इसलिए पराधीनता के उस काल में स्वत्व और स्वाभिमान का आवेश था। राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से कुछ प्रयत्न भी प्रारंभ हुए थे। उसी परंपरा के आधार पर शिक्षा-दीक्षा के लिए समाज प्रयत्नशील था। परंतु परकीय शासन समाप्त होते ही स्वत्व की यह प्रेरणा लुप्त हो गई। हमारा जीवन परानुकरण के दुश्चक्र में फंस गया। अपने ‘स्व’ का विस्मरण ही नहीं हुआ, अपितु हम उसका निषेध तक करने लगे। रहन-सहन, चारित्र्य, कर्तव्यबोध, वैचारिक भूमिका आदि सभी दिशाओं में विवेकशून्य अंधानुकरण चल रहा है।

अपनेपन का विस्मरण और विदेशियों की अंधी नकल के फेर में पड़कर हम अपने जीवन के मूलगामी सिद्धांतों को भी भुलाते जा रहे हैं। इसीलिए शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझने में भी हम असमर्थ हो रहे हैं। बड़े-बड़े लोगों के मुँह से सुनने को मिलता है कि शिक्षा रोजगार-उन्मुख होनी चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता है। पैसा कमाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा मनुष्य को पैसा कमाने योग्य बनाती है। शिक्षा का यह अर्थ अत्यंत निकृष्ट है।

अमरीका या रूस किसी में जीवनदर्शन सिद्धी नहीं।

आदि सृष्टि से हिन्दुजाति की पूर्ण-धर्म उपलब्धि रही।।

संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पू.श्रीगुरुजी के संकलित विचार- नित्यप्रेरणा

 – राजेन्द्र  चडढा

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