भारत विविधताओंका देश है। यहाँ वर्षारम्भ भी अलग-अलग होते हैं। कुछेक राज्योंमें सौर है तो कुछमें सौर-चान्द्र। उदाहरणार्थ आसाम, बङ्गाल, पंजाब, हरियाणा, ओडिशा, तमिलनाडु तथा केरलमें सौरमास है तो आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्णाटकमें अमान्त सौर-चान्द्रमास है और उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार एवं पूर्वोत्तर राज्योंमें पूर्णिमान्त। यहाँ तक कि जो सौरमास हैं उनके भी वर्षारम्भ समान नहीं हैं। स्वभावतः प्रश्न यह उठता है कि वेदोपदिष्ट हमारी सनातन काल-गणना कौन सी है? इसके समाधानके लिए सर्व-प्रथम हमें वेद-सम्मत मास एवं वर्ष- परम्परा को समझना पड़ेगा।
वर्तमानमें प्रसिद्ध नौ (९) कालमानोंका वर्णन सूर्यसिद्धान्त (मानाध्यायः) में इस प्रकार आया है:- “ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं गुरोस्तथा। सौरं च सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥१४।१॥“ अर्थात् (१) ब्राह्म (२) दैव (३) पित्र्य (४) प्राजापत्य (५) बार्हस्पत्य (६) सौर (७) सावन (८) चान्द्र तथा (९) नाक्षत्रमास ये नौ (९) विभिन्न कालमान हैं।इनमेंसे मात्र चार- (१) सौर (२) चान्द्र (३) नाक्षत्रमास तथा (४) सावन – मानोंका ही व्यवहार होता है:-“चतुर्भिर्व्यवहारोऽत्र सौरचान्द्रार्क्षसावनैः। बार्हस्पत्येन षष्ट्यब्दं ज्ञेयं नान्यैस्तु नित्यशः॥१४।२॥“
अब इन व्यवहृत मासोंकी परिभाषा दी जाती है।
सौरमास:- सूर्य जितनी अवधि तक एक राशिपर रहता है उस अवधिको एक सौरमास कहते हैं। यह अवधि सभी राशियोंके लिए एक समान नहीं होती है क्योंकि (पृथ्वी के सापेक्ष) सूर्य की परिभ्रमण-कक्षा दीर्घवृत्तीय है।
चान्द्रमास:- यह दो प्रकारका होता है- पूर्णिमान्त तथा अमान्त। कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे शुक्लपक्षकी पूर्णिमा तक को पूर्णिमान्त चान्द्रमास माना जाता है तथा शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे कृष्णपक्षकी अमावस्या तक अमान्त चान्द्रमास माना जाता है। उत्तर भारत में पूर्णिमान्त चान्द्रमास और दक्षिण भारत में अमान्त चान्द्रमास प्रचलित है।
नाक्षत्रमास:-चन्द्रमाद्वारा सभी २७ नक्षत्रोंके एक परिभ्रमण-कालको नाक्षत्रमास कहते हैं।
सावनमास:- एक सूर्योदयसे अगले सूर्योदय तकके कालको सावन दिन कहते हैं तथा ऐसे ३० दिनोंका एक सावनमास माना जाता है।
वेद-सम्मत मास चान्द्र थे। और यह स्वाभाविक भी था। क्योंकि बाकी तीनों मासोंका ठीक प्रारम्भ और ठीक समाप्ति जाननेका कोई भी सरल व उचित साधन नहीं था। पूर्णिमाको पूर्णमासी भी कहते हैं अर्थात् जहाँ मास पूर्ण होता है। इससे सिद्ध होता है कि वेदकालीन मास चान्द्र थे। वस्तुतः सृष्ट्युत्पत्तिके पश्चात् प्रथम-प्रथम सबका मास चान्द्र ही रहा होगा। सौर-मास बादमें प्रचलित हुए होंगे।
तैत्तिरीयसंहिता १।६।७।२ में कहा गया है-“ब॒र्हिषा॑ पू॒र्णमा॑से व्र॒तमुपै॑ति व॒त्सैर॑मावा॒स्या॑यामे॒तद्ध्ये॑तयो॑रा॒यत॑नमुप॒स्तीर्यः॒“ अर्थात् बर्हि के द्वारा पूर्णमास का व्रत सम्पन्न करते हैं, वत्सों द्वारा अमावास्या का। यहाँ अमावस्याके साथ पूर्णमास ही शब्द आया है, इससे सिद्ध हो जाता है कि पौर्णमासीमें मासान्त मानते थे।
प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है:- “मासो वै प्रजापतिः ।तस्य कृष्णपक्षः एव रयिः शुक्लः प्राणस्तस्मादेत ऋषयः शुक्ल इष्टं कुर्वन्तीतर इतरस्मिन् ॥ १.१२ ॥“ अर्थात् मास ही प्रजापति अर्थात् सबको जन्म देनेवाला है। उसमें कृष्णपक्ष रयि और शुक्लपक्ष प्राण है। निवृत्तिवादी ऋषिगण शुक्लपक्षरूप प्राणमें इष्ट अर्थात् पूजन करते हैं। जैसे अन्यलोग अर्थात् प्रवृत्तिवादी कृष्णपक्षमें क्योंकि उनको आवागमन अभीष्ट है। (देखें प्रश्नोपनिषद श्रीराघवकृपाभाष्य पृ. सं-११-१२, भाष्यकार-जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामभद्राचार्यजी महाराज।) यहाँ यह ध्यातव्य है कि कृष्णपक्षका नाम पहले आया है। इससे भी पूर्णिमान्त ही मास सिद्ध होता है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।२।३।१) में कहा गया है:- “पूर्वपक्षं देवान्वसृज्यन्त। अपरपक्षमन्वसुराः। ततो देवा अभवन्। परासुराः।“ अर्थात् पूर्वपक्षमें देवता उत्पन्न हुए और अपरपक्षमें असुर, इसलिए देवताओंकी जय और असुरोंकी पराजय हुयी। यहाँ शुक्ल और कॄष्ण पक्ष स्पष्टतया तो नहीं आया है पर पूर्व और अपर पक्ष आया है। पूर्वपक्ष शुभ होनेसे शुक्ल तथा अपरपक्ष अशुभ होनेसे कृष्णपक्ष ज्ञात होता है। इसी तरहसे तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।१०।४।१)- “पूर्वपक्षाश्चितयः। अपरपक्षाः पुरीषम्॥“-से पूर्व और अपर पक्ष क्रमशः शुक्ल तथा कृष्णपक्ष ही द्योतित हो रहा है। इन संदर्भोंसे स्पष्टतया यह निष्कर्ष निकलता है कि वैदिककालमें अमान्तमास का भी प्रचार सिद्ध होता है।
अतः यहाँ यह कहा जा सकता है कि वैदिककालमें चान्द्रमास (पूर्णिमान्त तथा अमान्त दोनों) ही प्रचलित थे।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वर्ष भी चान्द्र था? यदि सौर था तो नाक्षत्र सौर था या साम्पातिक सौर? ऋक् संहिता (१।२५।८) – “वेद॑ मा॒सो धृ॒तव्र॑तो॒ द्वाद॑श प्र॒जाव॑तः । वेदा॒ य उ॑प॒जाय॑ते ॥“-में यह कहा गया है कि नियमानुसार चलनेवाला (वरुणदेव) बारह महीनों और उनमें उत्पन्न होनेवाले प्रजाको जानता है (और उन बारह महीनोंके) पास उत्पन्न होनेवाले (अधिकमास) को जानता है। यद्यपि यहाँपर अधिकमास शब्द नहीं है पर संदर्भसे वही विवक्षित है तथा परम्परासे प्राप्त अर्थ भी वही है। सायणभाष्यमें ’यः’ का अर्थ “त्रयोदशोऽधिकमासः” दिया है। पर इस संदर्भमें त्रयोदश मासका स्पष्टतः उल्लेख भी ब्राह्मण-ग्रन्थोंमें देखा जा सकता है।
यथा:- (१) “तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपं (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।८।३)” अर्थात् १३वाँ मास उसका (ऋषभरूप सम्वत्सरका) विष्टप (पूँछ) है।(२) “तं त्रयोदशान्मासादक्रोणँस्तस्मात् त्रयोदशो मासो नानुविद्यते। (ऐतरेय ब्राह्मण ३।१३)“ अर्थात् उन्होंने उस (सोम) को तेरहवें माससे क्रय किया। अतः १३वाँ मास निन्द्य है। इत्यादि। इतना ही नहीं, वेदोंमें मासोंके नामोंका भी उल्लेख है:-“ मधु॑श्च॒ माध॑वश्च शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ नभ॑श्च नभ॒स्य॑श्चे॒षश्चो॒र्जश्च॒ सह॑श्च सह॒स्य॑श्च॒ तप॑श्च तप॒स्य॑श्चोपया॒मगृ॑हीतोऽसि स॒सर्पोऽस्यहस्पत्याय त्वा॥तैत्तिरीय संहिता १।४।१४॥“ अर्थात् (हे सोम तुम) उपयाम (स्थाली) द्वार गृहीत हुए हो। मधु हो, माधव हो…। यहाँ मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस्, नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस्, सहस्य, तपस्, तपस्य-ये मासोंके १२ नाम आये हैं और संसर्प नाम अधिमासके लिए आया है। माधवाचार्यने अहंस्पतिका अर्थ क्षयमास किया है।
शुक्लयजुर्वेदमें भी १२ मासोंके साथ १३वें मास अहंस्पति (पापके पति या मलमास) के लिए भी आहुति देना लिखा है:-
“मध॑वे॒ स्वाहा॒ माध॑वाय॒ स्वाहा॑ शुक्राय॒ स्वाहा॒ शुच॑ये॒ स्वाहा॒ नभ॑से॒ स्वाहा॑ नभ॒स्या॒य॒ स्वाहे॒षाय॒ स्वाहो॒र्जाय॒ स्वाहा॒ सह॑से॒ स्वाहा॑ सह॒स्या॒य॒ स्वाहा॒ तप॑से॒ स्वाहा॑ तप॒स्या॒य॒ स्वाहा॑ ऽ̐हसस्प॒तये॒ स्वाहा॑ ॥ शुक्लयजुर्वेद वा. सं. २२।३१॥“
जैसा कि हम जानते हैं कि स्वाभाविक रूपसे मास जाननेका साधन चन्द्रमाके दो बार पूर्ण होनेके मध्यका काल है (उपर दिखा भी चुके कि वेदकालीन मास चान्द्र था) तथा दिनका मान स्पष्टतः दो सूर्योदयोंके बीचका काल है उसी प्रकार वर्ष जाननेका सरलतम साधन ऋतुओंकी एक पूर्ण परिक्रमा है जो सूर्य द्वारा होती है। अतः वर्ष सौर ही रहा होगा। तथा च, १२ चान्द्रमासोंमें एक-एक ऋतुकी कल्पना की गयी जिसका वर्णन तैत्तिरीय संहितामें इस प्रकार पाया जाता है:- “मधु॑श्च॒ माध॑वश्च॒ वास॑न्तिकावृ॒तू शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ ग्रैष्मा॑वृ॒तू नभ॑श्च नभ॒स्य॑श्च॒ वाऱ्षि॑कावृ॒तू इ॒षश्चो॒र्जश्च॑ शार॒दावृ॒तू सह॑श्च सह॒स्य॑श्च॒ हैम॑न्तिकावृ॒तू तप॑श्च तप॒स्य॑श्च शैशि॒रावृ॒तू ॥तैत्तिरीय संहिता ४।४।११।१॥“ अर्थात् मधु और माधव वसन्त ऋतुके, शुक्र और शुचि ग्रीष्म ऋतुके, नभस् और नभस्य वर्षा ऋतुके, इष और ऊर्ज शरद् ऋतुके, सहस् और सहस्य हेमन्त ऋतुके एवं तपस् और तपस्य शिशिर ऋतुके मास हैं।
अब हमारे ऋषियोंने यह अनुभव किया होगा कि १२ चान्द्रमास का मान १ सौर वर्षसे थोड़ा कम रह जाता है –मोटे तौरपर लगभग ११ दिन। इसी कमीकी पूर्तिके लिए उन्होंने अधिकमासकी व्यवस्था दी थी जिससे ऋतुओंका सामञ्जस्य चान्द्रमाससे बना रहे। इसीलिए वेदाङ्ग-ज्यौतिषमें प्रत्येक ३० चान्द्रमासोंके बाद १ अधिकमासकी कल्पना की गयी (जो वेद-सम्मत ही था) जो परवर्ती कालमें गणनाके आधारपर लगभग ३३ चान्द्रमासोंके बाद १ अधिकमास माना गया। इसे इस प्रकारसे भी समझा जा सकता है। सूर्यका निरयण राशि-चक्रके १ पूर्ण मध्यम परिभ्रमण-काल (सौर वर्ष) ३६५.२५६३६ दिन होता है तथा चन्द्रमाका दो क्रमागत अमावस्या अथवा पूर्णिमाके मध्यका अन्तराल (पूर्णिमान्त अथवा अमान्त चान्द्रमास) का मध्यम मान २९.५३०५८९ दिन होता है। अर्थात् मध्यम चान्द्रवर्ष २९.५३०५८९१२= ३५४.३६७०६८ दिनका होगा जो मध्यम सौर माससे १०.८८९२९२ दिन कम है। अतः लगभग २.७१२ (२९.५३०५८९/१०.८८९२९२) वर्षों अर्थात् ३२.५ या ३३ मासोंमें १ मास अधिक होगा और यही व्यवस्था उपर दी गयी है। १९ वर्षोंमें ३६५.२५६३६१९ अर्थात् ६९३९.८७०८४ मध्यम सौर दिन होंगे तथा २३५ चान्द्रमासोंमें २३५*२९.५३०५८९ अर्थात् ६९३९.६८८४१५ चान्द्र दिन (तिथि) होंगे। स्पष्टतः १९ सौरवर्ष २३५ चान्द्रमास (अर्थात् १९ चान्द्रवर्ष तथा ७ चान्द्रमास) के सन्निकट है। गतार्थ हुआ कि १९ सौरवर्षोंमें ७ अधिकमास होंगे। भास्कराचार्यने सिद्धान्तशिरोमणिके भगणाध्याय, श्लोक १०, में लिखा है- “लक्षाहता देवनवेषुचन्द्राः (१५९३३०००००) कल्पेऽधिमासाः कथिता: सुधीभिः” अर्थात् ४३२००००००० सौरवर्ष (१ कल्प) में १५९३३००००० अधिकमास होंगे। अतः १४४०० सौरवर्षोंमें ५३११ अधिकमास होंगे। अब यदि १४४००/५३११ को संतत-भिन्नमें बदलें तो इनके क्रमागत संसृत भिन्न होंगे- २/१, १/३, ३/८, १९/७, १२२/४५, १४१/५२ इत्यादि। ध्यातव्य है कि संसृत भिन्नों १९/७, १२२/४५, १४१/५२ का अर्थ है कि अधिकमासोंकी संख्या ७, ४५, और ५२ क्रमशः १९, १२२ तथा १४१ सौरवर्षोंमें होंगी। स्पष्ट है कि हमारे सर्वज्ञकल्प ऋषि-महर्षियोंने यज्ञ-यागादि, त्योहारों एवं व्रतोत्सवोंका ऋतुओंसे सामञ्जस्य रखनेके लिए ही अधिक/क्षयमासोंकी व्यवस्था दी थी जो अपने-आपमें एक अद्भुत वैज्ञानिक व्यवस्था थी।
यह तो हुआ विश्लेषणात्मक पक्ष। अब हम व्यावहारिक पक्षको भी देखें। महाभारतकालमें भी काल-निर्णय अधिकमासकी व्यवस्थाके साथ ही हुआ करता था। मात्र एक उदाहरण यथेष्ट होगा। पाण्डवोंके वन गये कितने दिन हुए , दुर्योधन द्वारा पूछे गये इस प्रश्नके उत्तरमें पितामह भीष्म (विराट पर्व, अध्याय ५२) कहते हैं:-
तेषां कालातिरेकेण ज्योतिषाञ्च व्यतिक्रमात्। पञ्चमे पञ्चमे वर्षे द्वौ मासानुपजायतः॥३॥
एषामभ्यधिकाः मासाः पञ्च च द्वादशक्षपाः। त्रयोदशानां वर्षाणमिति मे वर्तते मतिः ॥४॥
अर्थात्, इन (मास-पक्षादिके) समयके बढ़ने-घटनेसे और ग्रह-नक्षत्रोंकी गतिके व्यतिक्रमसे हर पाँचवें वर्षमें दो महीने अधिकमासके बढ़ जाते हैं। इस प्रकार इन तेरह वर्षोंके पूर्ण होनेके पश्चात् भी पाण्डवोंके पाँच महीने बारह दिन और अधिक व्यतीत हो चुके हैं। ऐसा मेरा विचार है। वेदाङ्ग-ज्योतिषके अनुसार भी यही गणना सिद्ध होती है। यह तभी संभव है जब काल-गणना चान्द्र-सौर हो। अतः निश्चितरूपसे भारतीय सनातन काल-गणना चान्द्र-सौर है।
अब सनातन वर्षारम्भ कब था? वेदोंमें जहाँ छः ऋतुओंका एकत्र निर्देश है वहाँ आरम्भ वसन्त है। इसके अतिरिक्त “ऋतुओंमें वसन्त मुख्य है” इसके स्वतन्त्र प्रमाण भी हैं जहाँ वसन्त ऋतुओंका मुख कहा गया है- “मुखं॒ वा ए॒तदृ॑तू॒नाम्, यद्व॑स॒न्तः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण १।१।२।६,७)“ एवं- “तस्य ते वसन्तः शिरः। ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः। वर्षा पुच्छं। शरदुत्तरः पक्षः। हेमन्तो मध्यम् “(तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१०।४।१)“। चूँकि वर्ष जाननेका सरलतम साधन ऋतुओंकी एक परिक्रमा है तथा ऋतुओंका मुख अथवा शिर वसन्त कहा गया है (एवं मधु॑श्च॒ माध॑वश्च॒ …..॥तैत्तिरीय संहिता १।४।१४॥में भी मधु अर्थात् वसन्त ही प्रथम है)। यहाँ यह प्रश्न भी उठ सकता है कि जब वैदिककालमें चान्द्रमास पूर्णिमान्त तथा अमान्त दोनों ही प्रचलित थे तब संवत्सरारम्भ शुक्ल पक्षसे होगा अथवा कृष्ण पक्षसे? इसका समाधान यह है कि कृष्ण पक्षके आरम्भमें मलमास आनेकी सम्भावना रहती है और शुक्लमें नहीं रहती। अतः सम्वत्सरारम्भकी प्रवृत्ति शुक्ल प्रतिपदासे ही अनुकूल होगी। दूसरी बात यह भी कि ब्रह्माजीने सृष्टिका आरम्भ इसी शुक्ल प्रतिपदाको किया था:- “चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रं वै तदा सूर्योदये सति॥ (नारद पुराण पू. ११०।५)”। साथ ही मत्स्यावतारका आविर्भाव तथा सत्ययुगका प्रारम्भ भी इसी दिनसे हआ था।
अतः स्पष्टतः वर्षका प्रारम्भ भी मधु-मास अर्थात् चैत्र शुक्ल पक्षकी प्रतिपदासे होगा। अतः यह प्रमाणित हुआ कि भारतीय सनातन काल-गणना चान्द्र-सौर पूर्णिमान्त तथा वर्षारम्भ चैत्र है।
– डॉ. रामाधार शर्मा