दुनिया का नया साल और हिन्दू सभ्यता के नए साल में अंतर है। हमारा नव संवत्सर हमारी संस्कृति, सभ्यता, मौसम के बदलाव और ग्रह- नक्षत्रों की चाल से जुड़ा है। देखा जाए तो किसी सभ्यता का अपनी संस्कृति से जुड़ाव का ये सबसे सही उदाहरण है। कहा जा सकता है कि हम विचारों और पोषाक से कितने भी आधुनिक हो जाएं, पर हमारे संस्कार हमें जड़ों से जोड़े रखते हैं और नव संवत्सर का उत्साह उसी का प्रमाण है।
हमारे देश की खूबसूरती हमारी संस्कृति में झलकती है। हमारे तो व्रत त्यौहार, ग्रह नक्षत्र यहां तक कि मौसम परिवर्तन भी प्रकृति से जुड़े हुए है। जैसे बगिया में अलग – अलग रंगों के फूलों से उसकी शोभा लाख गुना बढ़ जाती है, उसी प्रकार हमारे देश में भी विभिन्न संस्कृति परम्परा को मानने वाले लोग देश की खूबसूरती को सुशोभित करते है। यहां हर त्यौहार का अपना अलग महत्व है, प्रकृति भी हर उत्सव में अपना योगदान देती है। जिस तरह मौसम में परिवर्तन होता है उसी तरह हमारे मन मस्तिष्क में भी परिवर्तन होते है। वर्तमान दौर में देश की आबोहवा बदल रही है। पश्चिमी संस्कृति हमारे संस्कारों का गला घोंट रही है।
दुर्भाग्य देखिए कि हम एक और तो विश्वगुरु होने का दम्भ भरते हैं , स्वदेशी की बात भी करते है लेकिन अपनी ही संस्कृति को छोड़ पश्चिमी संस्कृति और रहन सहन की ओर बढ़ रहे है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी क्या वजह है जो हम अपने संस्कृति को ही बिसार रहे हैं? भारतीय नववर्ष की गरिमा प्रतिष्ठा की महत्ता समाज में स्थापित करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि यदि हमें गौरव के साथ जीने का भाव अपने आप में जगाना है और अपने अंतर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीजों को पल्लवित करना है, तो राष्ट्रीय तिथियों की ओर बढ़ना होगा।
आज हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागे जा रहे है। अंग्रेजी सभ्यता में गुम होकर अपने गौरव व सांस्कृतिक मूल्यों को खोते जा रहे है। हम बात तो हिंदू व हिंदुस्तान की करते है पर अफ़सोस की हम चलते अंग्रेजों की राह पर ही है। हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग भी आज आधुनिकता के नाम पर अपने मूल्यों को खोते जा रहे है। लेकिन, हमारा दुर्भाग्य देखिए कि हम अपने महापुरुषों की कही बातों को भूलते जा रहे हैं। आज हमारा समाज पिछड़ता जा रहा है, क्योंकि हम अपने मूल्यों को बिसार रहे हैं। लोग भले ही अपने मूल्यों अपनी परम्पराओं को भूल जाए, लेकिन प्रकृति अपने मूल्यों को कभी नही बिसारती। यही वजह है कि पश्चिमी देश भी शांति की चाह में भारत का ही रुख करते है। यहां तक कि हमारी योग परम्परा से भी जुड़ रहे है।
अमेरिका जैसे देशों में तो अध्यात्म और शाकाहार जैसे विषयों पर अध्ययन तक शुरू कर दिया गया है। वहीं हमारे देश में आधुनिकता की आड़ में फूहड़ता का नंगा नाच किया जा रहा हैं। भौतिक विकास की अंधी दौड़ में हमे देर से ही सही पर यह अहसास जरूर हुआ कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में क्या क़ीमत चुकाई हमने। पेड़ काटकर कंक्रीट के महल तो जरूर बना लिए पर इन महलों में भी दो पल सुकून न मिला।
आजादी के बाद हम परतंत्रता की जंजीरों से तो मुक्त हो गए। पर सुविधा के नाम पर अपनी सभ्यता व संस्कृति को भी विसार रहे है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नवंबर 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट पेश की। जिसमें विक्रमी संवत को स्वीकार करने की सिफारिश की थी। किंतु, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर अंग्रेजी कैलेंडर (ग्रेगेरियन) को ही सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार कर लिया गया। तर्क दिया गया कि जब संसार के अधिकतर देशों ने इसे स्वीकार कर लिया तो हमें भी दुनिया के साथ चलना चाहिए। हमने सुविधा को आधार मान राष्ट्रीय गौरव से समझौता कर लिया। वहीं आज भी बांग्लादेश और नेपाल का सरकारी कैलेंडर विक्रम संवत ही है।
भारतीय नववर्ष की महत्ता निराली है। इसकी शुरुआत ही एक ऐसे दिन से होती है जब प्रकृति अपने पुराने वस्त्रों को त्याग कर नया श्रृंगार करती हैं। प्रकृति अंकुरित व पुष्पित होने की प्रकिया में होती है। खेतो में फसल तैयार हो चुकी होती है। शीत ऋतु अपने समाप्ति पर होती है तो वहीं ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। भले ही हमारे नववर्ष की शुरुआत अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मार्च अप्रैल के महीने में हो लेकिन इसका प्राकृतिक व सांकृतिक महत्व कही कम नही है। फिर सवाल यह उठता है कि हम क्यों पश्चिमी संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं? क्यों अंग्रेजी नव वर्ष को महत्व देते है जो हमारी ही संस्कृति को अपना कर आगे बढ़ रहा है।
मैं यह नही कहती कि हम दूसरों की संस्कृति और सभ्यता का अपमान करें। हम तो उस संस्कृति से आते है जहां बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का शोर गूँजता है। लेकिन, इसका ये मतलब कतई नहीं कि हम आधुनिकता के नाम पर अपनी ही संस्कृति को भूला दे। हिन्दू धर्म वैज्ञानिक जीवन पद्धति पर आधारित है। हर परम्परा के पीछे वैज्ञानिक रहस्य छिपा है। जिसे हम देख कर भी अनदेखा करने की भूल करते है। हिन्दू धर्म ‘जियो ओर जीने दो’ के सिद्धांतों पर आधारित है।
इसके अलावा भारतीय नववर्ष का ऐतिहासिक पहलू देखे तो दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंतिका पर विजय प्राप्त की थी। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में बांधकर ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रम संवत प्रचलित हुआ। उल्लेखनीय है कि भारतीय नववर्ष के पौराणिक महत्व को देखें तो यह सृष्टि रचना का प्रथम दिन है। इसी दिन प्रभु राम ने लंका पर विजय प्राप्ति के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिए इस दिन को चुना था। इस दिन माँ शक्ति की आराधना की जाती है।
एक ओर हम सांकृतिक होने का दम्भ भरते है तो वही दूसरी औऱ अपने गौरवशाली इतिहास और परपंरा से दूर हो रहे है। आज हमारे देश वासियों को यह समझना होगा कि आधुनिकता का कतई मतलब नही की हम अपनी संस्कृति का गला घोंट दे। आज देश को अपने मूल्यों को समझना होगा तभी हम विश्वगुरु बन सकते और विश्व का नेतृत्व कर सकते। जब विश्व हमारी परंपरा में अपना वजूद बचाने की तलाश करता फ़िर हम दूसरे के पीछे क्यों भगाते? हमें इसे सोचना होगा। हम अपने अतीत को भुलाकर बेहतर भविष्य के सपने नहीं गढ़ सकते हैं।
– सोनम लववंशी