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युगद्रष्टा संघ संस्थापक – डॉ. हेडगेवार

युगद्रष्टा संघ संस्थापक – डॉ. हेडगेवार

by हिंदी विवेक
in अवांतर
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डॉक्टर हेडगेवार सामान्य दिखने वाले पर असामान्य कर्तृत्व के धनी थे। वे युगद्रष्टा थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आज का विस्तार और कार्य उनके चिंतन और संगठन कौशल, राष्ट्रभक्ति का ही परिणाम है। उनकी पुण्य स्मृति को उनके जन्मदिन पर विनम्र अभिवादन। संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार सामान्य से दिखने वाले व्यक्ति थे, परंतु उनकी सोच उनके समय से बहुत आगे की थी, वे युगद्रष्टा थे। इसलिए उनके सामान्य व्यक्तित्व में हमें असामान्यत्व दिखता है।

जन्मजात देशभक्त

जब उनकी आयु आठ-नौ साल की रही होगी, शायद तीसरी कक्षा के छात्र थे, तब रानी विक्टोरिया के नाम से विद्यालय में हुए महोत्सव में मिठाई बंटी। जिस आयु में बच्चे मिठाई के लिए लालायित रहते हैं, उनकी बार-बार मिठाई लेने की इच्छा होती है, उस आयु में उन्होंने मिठाई लेकर फेंक दी। यह घटना सामान्य नहीं है, क्योंकि उस समय तक नागपुर में स्वतंत्रता आंदोलन की धमक नहीं पहुंची थी। वह तो १९०५ के बाद वहां पहुंची। डॉक्टर जी के घर राष्ट्रीय विचार आंदोलन का वातावरण भी नहीं था। पर उनमें गुलामी को लेकर चिढ़ थी और आजादी को लेकर जन्मजात अनुराग था। यह किसी घटना की प्रतिक्रिया में नहीं था।

संगठन कुशलता एवं दृढ़ता

इसी तरह १९०७ में जब सार्वजनिक तौर पर वंदेमातरम बोलने पर प्रतिबंध था तब उन्होंने अपने स्कूल में सभी छात्रों को तैयार किया और जब अंग्रेज अधिकारी कक्षाओं में गया तो हर कक्षा में वंदेमातरम कह कर उसका स्वागत किया गया। इससे डॉ. साहब (तब केशव) की संगठन कुशलता का पता चलता है। और वह संगठन इतना मजबूत था कि प्रिंसिपल के पूछने पर भी किसी छात्र ने नहीं बताया कि किसके कहने पर यह सब हुआ। इस घटना के बाद स्कूल कुछ दिन बंद रहा। बाद में अभिभावकों ने मिल कर मार्ग निकाला कि प्रत्येक विद्यार्थी प्रिंसिपल कक्ष में जाएगा और जब उनसे पूछा जाएगा कि ऐसा दोबारा तो नहीं बोलोगे, तो न में सिर हिला देना। इससे उनको फिर प्रवेश मिल जाएगा। इस तरह स्कूल पुनः शुरू हुआ, लेकिन केशव ने फिर ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, मुझे मेरी माता के वंदन का अधिकार है। इस पर उनको स्कूल से निकाल दिया गया। बाद में पुणे से मैट्रिक पास करने के बाद डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए वे कलकत्ता (अब कोलकाता) गए, क्योंकि वह क्रांतिकारियों का केन्द्र था।

निरंतर सक्रियता

१९१६ में वे डॉक्टरी पढ़ाई पूरी करके नागपुर वापस आए। एक सामान्य परिवार का व्यक्ति उस जमाने में डॉक्टर बन कर घर पर आता था तो घर-परिवार की, समाज की उससे क्या अपेक्षा होती है, वह हम समझ सकते हैं। उस समय कांग्रेस के जितने प्रमुख नेता थे सभी विवाहित थे। घर-परिवार चलाने के लिए कोई अध्यापक था, कोई डॉक्टर, कोई व्यापारी था। घर-परिवार चलाते हुए भी देश को आजाद कराने में उनकी काफी सक्रियता थी। डॉक्टर जी भी ऐसा करते तो कुछ अलग नहीं होता, परंतु उनके मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की इतनी तीव्र इच्छा थी कि अक्सर कहते थे, जब तक देश गुलाम है तब तक अपने बारे में विचार करने के लिए मेरे पास समय नहीं है। इसलिए वह अपनी पूरी शक्ति के साथ आजादी पाने के सभी माध्यमों में सक्रिय हो गए। वे सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में भी उतने ही सक्रिय थे जितने कांग्रेस द्वारा चल रहे अहिंसात्मक आंदोलन में। गांधीजी के आवाहन पर वे असहकार आंदोलन एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन में सहभागी हो कर जेल भी गए थे।

दूरदृष्टि एवं वैश्विक सोच

१९२० के नागपुर में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में सारी व्यवस्था की जिम्मेदारी उनके पास थी, जिसके लिए उन्होंने १२०० स्वयंसेवकों को भरती कराया। परंतु उन्होंने अखिल भारतीय प्रस्ताव समिति को जो प्रस्ताव दिया, वह बहुत महत्व का है। उनका प्रस्ताव था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को सम्पूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त कराना और दुनिया को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त कराना यह होना चाहिए। सम्पूर्ण स्वातंत्र्य के प्रस्ताव को कांग्रेस ने दिसम्बर, १९२९ में लाहौर अधिवेशन में स्वीकार किया था। इसलिए २६ जनवरी १९३० को सभी शाखाओं में कांग्रेस का अभिनंदन करने की सूचना दी गई थी। डॉक्टर जी के सम्पूर्ण स्वातंत्र्य के इस प्रस्ताव को कांग्रेस ने १० साल बाद मान्य किया। उनकी दूरदृष्टि का यह भी एक उदाहरण है।

सभी से समान नजदीकी

उस समय नागपुर, विदर्भ में समाज अनेक खेमों में बंटा हुआ था। कांग्रेस में तिलकवादी गुट और गांधीवादी गुट, कांग्रेस और क्रांतिकारी आंदोलन, कांग्रेस और हिन्दू महासभा की आपस में बनती नहीं थी। किन्तु जो असामान्य-अनूठी बात दिखती है वह यह कि इस स्थिति में भी डॉक्टर जी का सभी के साथ समान सम्पर्क था। सामान्य नजदीकी थी। इस पर भी खास बात यह कि किसी भी एक खेमे में ना बंधते हुए वे, सभी से समान दूरी रखने के बजाय उनकी सभी से समान नजदीकी थी। इसलिए जब १९२१ में वर्हाड कांग्रेस के अधिवेशन में क्रांतिकारियों का निषेध करने का प्रस्ताव लाने वाले थे, वे लोकनायक अणे से मिले। लोकनायक अणे उसके अध्यक्ष थे। डॉक्टर जी ने उनसे कहा, ‘‘उनका मार्ग आपको पसंद नहीं, यह हम समझ सकते हैं लेकिन उनकी देशभक्ति पर शंका नहीं करनी चाहिए। हम अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाय आपस में लड़ रहे हैं, यह ठीक नहीं है।’’ अंत में हुआ यह कि कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित नहीं किया।

जननेता

१९२१ के आंदोलन में भी वे सहभागी हुए। उस समय मान्यता थी कि जेल में जाना मतलब देशभक्ति का परिचय देना। इसलिए न्यायालय में अपना बचाव करना एक डरपोक मानसिकता दिखाने वाली बात थी। डॉक्टर जी को यह कतई मंजूर नहीं था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह में भी भाग लिया, न्यायालय में अपना बचाव किया, बचाव करने का भी बचाव किया और अंत में जमानत मिलने पर उसे ठुकरा कर कारावास स्वीकार किया। गांधी जी द्वारा खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने के निर्णय से असहमत होने पर भी उन्हें गांधी जी के साथ कार्य करने में कोई हिचक नहीं थी। उनका कहना था कि आपसी असहमति के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आंदोलन कमजोर नहीं होने देना चाहिए। वे एक साल जेल में रहे। जेल से छूटने के बाद उनके स्वागत के लिए जेल के बाहर भारी वर्षा में भी हजारों की संख्या में लोग उपस्थित थे। वहां उनकी जयजयकार हो रही थी। जेल के बाहर ही उन्होंने कहा, ‘‘जेल में जाने से मेरी योग्यता बढ़ नहीं गई है। यदि आप ऐसा मानते हो तो इसके लिए अंग्रेज सरकार को ही धन्यवाद देना चाहिए।’’ उनके स्वागत में वहां व्यंकटेश सभागार में जो कार्यक्रम हुआ उसमें विट्ठलभाई पटेल, पं. मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ. अंसारी जैसे देशभर के प्रमुख कांग्रेसी नेता आए थे। वहां भी उन्होंने यही कहा कि जेल जाना ही देशभक्ति है, यह मानना सही नहीं है। समाज में रह कर समाज को जागरूक बनाना भी उतना ही महत्व का काम है।

लक्षण के साथ ही बीमारी के मूल का इलाज

श्री त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, जो उनके साथ कलकत्ता में अनुशीलन समिति में थे, वे डॉ. हेडगेवार जन्मशताब्दी समारोह में (१९८९ में) नागपुर में आए थे। तब उन्होंने वहां बताया कि डॉ. हेडगेवार जब कलकत्ता थे तब ही कहते थे कि मुझे हिन्दुओं का संगठन करना है। यानी वही संघ कार्य जो उन्होंने १९२५ में प्रारंभ किया। वह किसी घटना की प्रतिक्रिया में नहीं हुआ। उनके मन में पहले से ही विचार चल रहा था।

संघ पद्धति- टीमवर्क

अक्टूबर, १९२५ में विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना हुई। संघ का नाम अप्रैल,१९२६ में, २२ स्वयंसेवकों के साथ मिल कर इस पर चर्चा हो कर तय हुआ। ये सभी स्वयंसेवक डॉ. हेडगेवार से उम्र, बुद्धि, चिंतन में कनिष्ठ थे। फिर भी उन्होंने सब के साथ मिल कर संगठन के नाम पर चर्चा की। उनसे सुझाव मांगे। डॉक्टर हेडगेवार अगर कहते कि संघ का नाम यह होगा तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। परंतु फिर भी उन्होंने सभी लोगों को साथ लेकर नाम तय किया। ऐसा क्यों किया, क्योंकि उनको केवल संगठन का नाम नहीं रखना था उनको संघ की कार्यपद्धति की नींव रखनी थी। साथ मिल कर सब की सहमति से हम निर्णय करें, उन्होंने इस प्रयोग के माध्यम से यही कार्य पद्धति समझाई कि संघ का अर्थ है टीमवर्क।

अनोखी स्वावलंबी कार्यपद्धति

किसी भी सामाजिक कार्य के लिए समाज के धनी लोगों से धन लेने का चलन उस समय भी था और आज भी है। संघ के पहले दो वर्ष का कार्य ऐसे ही चला, परंतु डॉक्टर जी की सोच थी कि संघ स्वावलंबी होना चाहिए। संघ के लिए जो भी आवश्यक हो, समय, परिश्रम, त्याग, बलिदान, धन वह सभी स्वयंसेवक दें। संघ कार्य मेरा अपना कार्य है ऐसा समझ कर इसे करना है। यह संस्कार संघ की पद्धति है। गुरुदक्षिणा पद्धति समाज में नई नहीं है, लेकिन तब वह धार्मिक क्षेत्र में ही प्रचलित थी। इसे सामाजिक क्षेत्र में लाकर इसका प्रयोग करने की अभिनव कल्पना उनके मन में आई। उस समय के संघ के स्वयंसेवक अधिकतर विद्यार्थी थे, और तब जेबखर्च का चलन नहीं था। तब ये विद्यार्थी कोई भी परिश्रम का कार्य स्वीकार कर उसके पारिश्रमिक के जो पैसे मिलते, वही गुरु दक्षिणा में दे देते थे। गुरु के नाते किसी व्यक्ति को श्रेष्ठ मानना तब भी प्रचलित था और आज भी प्रचलित है। तो डॉक्टर जी को ही गुरु मान कर ऐसा किया जाना सरल था, परंतु डॉक्टर जी कहते थे, संघ समाज में एक संगठन नहीं, सम्पूर्ण समाज का संगठन है। इसलिए हमारा समाज जितना प्राचीन है उतने ही प्राचीन प्रतीक को संघ में गुरू के रूप में होना चाहिए। यह सोच कितनी बड़ी और लीक से हट कर थी। वह प्रतीक क्या हो सकता था, नि:संदेह भगवा ध्वज। भगवा ही ज्ञान का, त्याग का, प्रकाश का प्रतीक है। तो उन्होंने भारतीय जनसमाज में सहज स्वीकार्य भगवा ध्वज को चुना।

पुरानी नींव, नया निर्माण

डॉक्टर हेडगेवार ने उस समय हिन्दू समाज में आवश्यक गुणों का निर्माण करने में आधुनिक तकनीक का उपयोग करने में जरा भी हिचक महसूस नहीं की। हिन्दू समाज में गणवेष की कल्पना नई थी। हम विविधता में एकता की दृष्टि रखते थे, परन्तु एकता लाने और अनुशासन के लिए गणवेष जरूरी था। उस समय सब से आधुनिक गणवेष संघ में लाया गया। हिन्दू समाज में परेड, कवायद की परंपरा नहीं थी। परन्तु अनुशासन के लिए कवायद आवश्यक है यह मान कर पहले कई वर्ष तक ब्रिटिश सेना की अंग्रेजी आज्ञा पर ही कवायद होती थी जो आज संस्कृत आज्ञाओं पर होती है। बैंड की धुन पर संचलन करना, यह हिन्दू समाज में नहीं था। लेकिन सामरिक भाव के लिए, अनुशासन के लिए यह आवश्यक था। इसलिए बैंड की रचना हुई। आरंभ के कई वर्षों तक ब्रिटिश बैंड की अंग्रेजी रचना ही जैसे स्काउट, बीप्रिपेयर्ड, फॉरवर्ड आदि संघ में भी प्रचलित थी।

संघ एक संस्था नहीं सम्पूर्ण समाज का संगठन

संघ स्थापना के पश्चात भी १९३० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सत्याग्रह में डॉ. हेडगेवार एक व्यक्ति के नाते सहभागी हुए। विदर्भ में जंगल सत्याग्रह के नाम से जाना जाने वाला यह सत्याग्रह दो बार प्रयास करने पर भी सफल नहीं हुआ। डॉक्टर जी के समय हजारों लोग उससे जुड़े। उन्होंने पुसद जाकर जंगल सत्याग्रह किया। पुसद जाने से पहले उन्हें नागपुर में समारोह पूर्वक विदाई दी गई। उसमें उन्होंने अपने भाषण में कहा कि वे संघ के नाते नहीं पर स्वयंसेवक के नाते व्यक्तिगत तौर पर सत्याग्रह में सहभाग ले रहे हैं। स्वयंसेवक के नाते और भी सहभागी हो सकते हैं। और संघ का कार्य भी निरंतर चलते रहना चाहिए इसलिए उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्व अपने पुराने साथी डॉ. ल. वा. परांजपे को दिया। और, बापूराव भेदी और बाबासाहेब आपटे को शाखा प्रवास का दायित्व देकर संघ कार्य चलते रहने की व्यवस्था की।

आत्मविलोपी व्यक्तिमत्व

१९२९ में जब उनको सर्वसम्मति से सरसंघचालक पद का दायित्व देने के बाद प्रणाम किया गया, तो उनका उत्तर था मुझे अपने से श्रेष्ठ लोगों का प्रणाम स्वीकारना मंजूर नहीं है। इस पर अप्पाजी जोशी ने कहा, आपको भले मंजूर न हो तो भी सब ने मिल कर तय किया है तो आपको यह पद स्वीकार करना पड़ेगा। १९३१ में संघचालकों की बैठक में उन्होंने एक भाषण में सार्वजनिक तौर पर कहा-’’संघ का संस्थापक मैं न होकर, आप सब हैं, यह मैं भलीभांति जानता हूं। आपकी इच्छा से, आपकी आज्ञा के अनुसार यह कार्य मैं कर रहा हूं। इस दायित्व का निर्वहन करते समय मैं अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा की चिंता बिल्कुल नहीं करूंगा। जब तक इस कार्य के लिए आप मुझे योग्य मानते हैं तब तक मैं यह कार्य संभालूंगा। जब मुझ से भी योग्य व्यक्ति ध्यान में आए तब यह दायित्व उसे देने के लिए आप मुक्त हैं। उसको यह कार्यभार उतने ही आनंद से देकर मैं एक स्वयंसेवक के नाते काम करने को तैयार रहूंगा।’’ संघ का संस्थापक, एक संगठन का संस्थापक इतना निर्लिप्त हो सकता है, यह अनोखी बात है। १९३४ में नासिक में कुर्तकोटि के शंकराचार्य ने उनको राष्ट्रसेनापति यह उपाधि देने की घोषणा कर दी। यह बात समाचार पत्र में प्रकाशित भी हुई। उनके पास अभिनंदन के पत्र आने लगे। डॉक्टर जी ने सभी शाखाओं पर सूचना भेजी कि ऐसी उपाधि हमारे लिए कतई उपयुक्त नहीं है। संघ में इसका कोई उपयोग न करें। उस समय के अनेक नेताओं से उनके घनिष्ठ सम्बंध थे। उनके भाषण भी स्वयंसेवकों के सम्मुख होते थे। सभी से अच्छे सम्बंध होने पर भी उन्होंने संघ की निर्णय प्रक्रिया को उनसे प्रभावित नहीं होने दिया। संघ के सभी निर्णय संघ ही करता था।

संघकार्य आज भी प्रासंगिक

१९४० में तबियत खराब होने और डॉक्टर के मना करने के बावजूद वे संघ शिक्षा वर्ग में आए। वहां उनका पहला वाक्य था-आपकी सेवा करने का मौका नहीं मिला, इसके लिए आप मुझे क्षमा कीजिए। मैं आपके दर्शन के लिए यहां आया हूं। उन्होंने आगे कहा कि संघ कार्य शाखा तक सीमित नहीं है वह समाज में करना है। इस प्रकार से एक मजबूत नींव पर सम्पूर्ण स्वावलंबी संगठन की रचना उन्होंने की। कार्यकर्ता निर्माण की एक अमोघ और सफल कार्य पद्धति उनकी प्रतिभा की देन है। इस कार्य पद्धति के आधार पर लद्दाख से अंडमान तक और मणिपुर-त्रिपुरा से कच्छ तक ५५ हजार शाखाओं के माध्यम से छह पीढ़ियों से अनेक अवरोधों को, बाधाओं को पार कर संगठन चल रह है। आज इसी कार्य पद्धति के आधार पर वैश्विक स्तर पर ३५ देशों में हिन्दू समाज संगठन का कार्य सफलता पूर्वक चल रहा है और हिन्दू समाज के बाहर भी कीनिया (केन्या) और कोलंबिया जैसे देशों में वहां के समाज के संगठन के लिए इसी शाखा की कार्यपद्धति को लागू कर व्यक्ति निर्माण और समाज संगठन का कार्य आरंभ हुआ है। डॉक्टर हेडगेवार जन्मशताब्दी तक उनका नाम भी बहुत से लोग नहीं जानते थे, पर उनके कार्य को जानते थे। ऐसे अत्मविलोपी डॉक्टर हेडगेवार के द्वारा स्थापित संघ राष्ट्रजीवन में अधिकाधिक प्रासंगिक होता हुआ दिख रहा रहा है,आवश्यक होता जा रहा है। समाज का संघ पर विश्वास बढ़ रहा है, सहभाग बढ़ रहा है, समर्थन बढ़ रहा है। डॉक्टर हेडगेवार ने संघ कार्य की ऐसी मजबूत नींव रखी, उसी का यह सब परिणाम है। ऐसे युगद्रष्टा, सामान्य दिखने वाले पर असामान्य कर्तृत्व के धनी थे डॉक्टर हेडगेवार। उनकी पुण्य स्मृति को उनके जन्मदिन पर विनम्र अभिवादन।

– डॉ. मनमोहन वैद्य (सह सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ)

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