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नई विश्व-व्यवस्था की खोज

नई विश्व-व्यवस्था की खोज

by प्रमोद जोशी
in अप्रैल -२०२२, देश-विदेश, विशेष, सामाजिक
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पेट्रोलियम की भूमिका समाप्त होगी, तो उससे जुड़ी शक्ति-श्रृंखलाएं भी कमजोर होंगी। उनका स्थान कोई और व्यवस्था लेगी। हम मोटे तौर पर पेट्रो डॉलर कहते हैं, वह ध्वस्त होगा तो उसका स्थान कौन लेगा? यह परिवर्तन नई वैश्विक-व्यवस्था को जन्म देगा। भारत का भी महाशक्ति के रूप में उदय होगा। संरा सुरक्षा परिषद की व्यवस्था में बदलाव का प्रस्ताव है। भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील का ग्रुप-4 सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट का दावेदार है। अमेरिका और रूस दोनों भारत के दावे के समर्थक हैं, पर चीन उसे स्वीकार नहीं करता।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद काफी समय तक दुनिया की व्यवस्था दो ध्रुवों पर केंद्रित रही। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश और रूस के नेतृत्व में कम्युनिस्ट खेमा। पश्चिमी खेमे की सैनिक संधियां नाटो, सीटो, सेंटो थीं और कम्युनिस्ट खेमे का वॉरसा पैक्ट। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद वॉरसा पैक्ट भी भंग हो गया। उससे जुड़े ज्यादातर देश स्वतंत्र हो गए। पश्चिम एशिया की सेंटो और दक्षिण पूर्व एशिया की सीटों संधियां भी खत्म हो गईं पर मध्य यूरोप में नाटो का विस्तार होता रहा।

यूक्रेन में दो तरह की आबादी है। बड़े तबके का झुकाव पश्चिम की ओर है। इस वजह से यूरोपियन यूनियन और नाटो में शामिल होने की मांग होने लगी। रूस के लिए यह पीड़ादायक स्थिति है, पर अपनी परिस्थिति को देखते हुए वह इसका तगड़ा विरोध नहीं कर पाया। 2013 में रूस समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने इस प्रक्रिया को रोकने की कोशिश की, तो उनका विरोध इतना हुआ कि उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा।

नाटो का विस्तार

यूक्रेन को रूस अपना मानता है, पर नाटो के लगातार विस्तार से उसकी आशंका बढ़ रही हैं। नब्बे के दशक में पहले पूर्वी जर्मनी (जो अब जर्मनी है) इसमें शामिल हुआ, फिर चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड। इक्कीसवीं सदी में बल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया, अल्बानिया, क्रोएशिया, मोंटेनेग्रो और उत्तरी मकदूनिया इसमें शामिल हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि भविष्य में यूक्रेन और जॉर्जिया भी इसका हिस्सा बनेंगे।

दूसरे विश्व-युद्ध के बाद दुनिया के दो खेमों में बंट जाने के कारण लगभग 45 साल तक शीत-युद्ध का दौर चला, जो नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद खत्म हुआ। लगभग उसी समय वैश्वीकरण का एक दौर शुरू हुआ, जिसके अंतर्गत विश्व-व्यापार संगठन का गठन हुआ। इसके अलावा तमाम क्षेत्रीय संगठन उभर कर सामने आए, जिनमें मुक्त-व्यापार समझौते हुए। कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि एक विश्व-समुदाय की परिकल्पना सच होने जा रही है, पर यह तूफान से पहले की शांति थी।

दूसरा शीत-युद्ध

पिछले तीन दशक में दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच कोई सैनिक टकराव नहीं हुआ है। हाल के वर्षों में रूस और चीन की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई है और अमेरिकी शक्ति का ह्रास दिखाई पड़ने लगा है। रूस चाहता है कि यूक्रेन और बेलारूस पश्चिमी यूरोप के साथ बफर का काम करें। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चीन भी उसकी सहायता कर रहा है। यूक्रेन में रूसी सैनिक कार्यवाही फिलहाल रुक भी जाए, तब भी युद्ध का अंत जल्द होने वाला नहीं है।

यह लड़ाई दुनिया में दूसरे शीत युद्ध को जन्म दे रही है और इसके दो बड़े निहितार्थ हैं। एक, स्थानीय स्तर पर यूरोपीय-सुरक्षा का प्रश्न। नाटो और रूस के बीच की तनातनी खत्म नहीं होगी, बल्कि बढ़ेगी। पर इससे ज्यादा बड़ा सवाल विश्व की नई व्यवस्था को लेकर है। सबसे बड़ा सवाल संयुक्त राष्ट्र को लेकर है। इस युद्ध को रोकने में वह पूरी तरह विफल साबित हुआ है।

जिस तरह रूस ने यूक्रेन की सम्प्रभुता की अनदेखी करते हुए उसपर हमला किया है, उसी तरह चीन ने अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के निर्णय की अवहेलना करते हुए दक्षिण चीन सागर में अपने प्रभुत्व को कायम करने का प्रयास किया है। यूक्रेन पर हमले के बाद सुरक्षा-परिषद में जब इस विषय पर विचार के लिए प्रस्ताव आया, उसे रूस ने वीटो कर दिया। इस मसले पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई का भी रूस ने बहिष्कार किया।

वैश्विक-रूपांतरण

सामरिक-दृष्टि से विश्व-व्यवस्था का रूपांतरण हो रहा है, वहीं वैश्विक अर्थव्यवस्था का एकीकरण इसके सामने अंतर्विरोध खड़े कर रहा है। नब्बे के दशक में दुनिया ने पूंजी के वैश्वीकरण का रास्ता पकड़ा था। विश्व-व्यापार संगठन के कारण देशों का आपसी व्यापार बढ़ा, जिससे समृद्धि आई। जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा की जरूरत, वैश्विक-स्वास्थ्य, खाद्य-सुरक्षा, गरीबी-उन्मूलन, सूचना-प्रवाह, साइबर-सम्पर्क, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसे तमाम ऐसे विषय हैं, जो अधूरे-अपरिभाषित हैं। यूक्रेन की लड़ाई को विश्व-युद्ध की संज्ञा नहीं दी जा सकती है, पर उससे जुड़ी परिस्थितियां बता रही हैं कि इस युद्ध का दीर्घकालीन परिणाम एक नई विश्व-व्यवस्था के रूप में होगा। इस युद्ध का प्रभाव 9/11 के बाद 2001 में अमेरिकी कार्रवाई, 1989 में बर्लिन वॉल के गिराए जाने या 1963 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या से ज्यादा गहरा होगा। नई व्यवस्था का अनुमान लगाना फिलहाल संभव नहीं है, पर उससे जुड़े महत्त्वपूर्ण मसले अब सामने आएंगे। दुनिया को एक बार फिर से नई विश्व-व्यवस्था के बारे में विचार करना होगा।

संरा की भूमिका

दूसरे विश्वयुद्ध का अंत जापान पर एटम बम गिराए जाने के बाद हुआ था। यूक्रेन की लड़ाई के दौरान एक नाभिकीय संयंत्र पर हुए हमले और उसके अलावा रूस द्वारा एटमी हथियारों के इस्तेमाल की धमकी के बाद विश्व-शांति को लेकर चिंता बढ़ गई है और तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा पैदा हो गया है। दूसरे विश्व-युद्ध की समाप्ति के साथ संयुक्त राष्ट्र की स्थापना भी हुई थी। पांच विजेता देशों को वीटो के विशेषाधिकार के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ, जिस पर विश्व-शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी और देशों के बीच विवादों को सुलझाने की जिम्मेदारी है। उसी दौरान विश्व बैंक का गठन हुआ। कई प्रकार के अंतरराष्ट्रीय संगठन बने।

हालांकि पिछले 77 वर्षों में बहुत से विवादों का निपटारा हुआ है, मानव-कल्याण और मानवाधिकार से जुड़ी तमाम समस्याओं के समाधान हुए हैं। उपनिवेशवाद का अंत द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद हुआ है, पर बहुत से नए विवाद भी खड़े हुए हैं, जिनका राजनीतिक कारणों से समाधान नहीं हो पाया। मसलन कश्मीर समस्या सुरक्षा-परिषद में जाने के बाद सुलझने के बजाय उलझती चली गई। इसे स्वीकार करना चाहिए कि वर्तमान व्यवस्था अमेरिका और उसके यूरोपियन मित्र-देशों की व्यवस्था है। संरा का मुख्यालय अमेरिका में है। इसके खर्च की 22 फीसदी धनराशि अमेरिका देता है। किसी भी प्रस्ताव को पास कराने या रोकने में अमेरिका की भूमिका होती है। कोरिया, वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान, बोस्निया, सोमालिया, लीबिया और सीरिया में अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप किए हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष अमेरिका के प्रभाव में ही काम करते हैं। विश्व-व्यवस्था को बनाए रखने में किसी एक ताकतवर देश की जरूरत भी है, पर वर्तमान व्यवस्था काफी असंतुलित और एकतरफा है। हालांकि अमेरिका लोकतांत्रिक-मूल्यों का समर्थक है, पर अतीत में उसने अपने हितों के लिए तानाशाहों का समर्थन भी किया है।

चीनी शक्ति का उदय

अमेरिका की विदेश-नीति का एक लक्ष्य चीनी-प्रभाव को रोकना है। इसके लिए उसने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चतुष्कोणीय सुरक्षा-व्यवस्था (क्वॉड) की रचना की है, जिसमें भारत भी शामिल है। अमेरिका हालांकि विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, पर चीन तेजी से आगे बढ़ रहा है और अपने आर्थिक प्रभाव का इस्तेमाल करके यूरोप में अमेरिका के प्रभाव को कम करना चाहता है। हिंद महासागर में भारत की समुद्री-शक्ति के विस्तार में अमेरिकी सहयोग भी है।

इसके अलावा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ आर्थिक और सामरिक सहयोग भी वह बढ़ा रहा है। खासतौर से आसियान में चीनी प्रभाव को कम करने का उसका प्रयास है। लगता यह भी है कि यूक्रेन में रूसी सैनिक-कार्रवाई चीन के समर्थन और सहयोग से की गई है, पर रूस और चीन की आर्थिक और सैनिक शक्ति आज भी अमेरिका के मुकाबले में नहीं है। यूक्रेन-युद्ध की परिणति इस नई वैश्विक-व्यवस्था को परिभाषित करेगी।

डॉलर की भूमिका

भविष्य की व्यवस्था में डॉलर की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होगी। यूक्रेन-युद्ध के दौरान वह मजबूत हुआ है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिकी डॉलर वस्तुतः वैश्विक मुद्रा बन चुका है। पेट्रोलियम का कारोबार भी डॉलर में होता है। रूस और चीन मिलकर वैकल्पिक-व्यवस्था की कोशिश कर रहे हैं। चीन ने कुछ देशों के साथ अपनी करेंसी में कारोबार शुरू किया है। अतीत के तेल-समृद्ध लीबिया, ईरान, इराक और वेनेजुएला जैसे देश अब संकट में हैं। इनके साथ चीन रिश्ते जोड़ रहा है। बदलाव अभी जारी है।

नए प्रश्न

नई विश्व व्यवस्था के सामने कई तरह के प्रश्न हैं। ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों का युग समाप्त होने जा रहा है। विश्व-व्यवस्था और शक्ति-संतुलन में पेट्रोलियम की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पेट्रोलियम की भूमिका समाप्त होगी, तो उससे जुड़ी शक्ति-श्रृंखलाएं भी कमजोर होंगी। उनका स्थान कोई और व्यवस्था लेगी। हम मोटे तौर पर पेट्रो डॉलर कहते हैं, वह ध्वस्त होगा तो उसका स्थान कौन लेगा? यह परिवर्तन नई वैश्विक-व्यवस्था को जन्म देगा। भारत का भी महाशक्ति के रूप में उदय होगा। संरा सुरक्षा परिषद की व्यवस्था में बदलाव का प्रस्ताव है। भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील का ग्रुप-4 सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट का दावेदार है। अमेरिका और रूस दोनों भारत के दावे के समर्थक हैं, पर चीन उसे स्वीकार नहीं करता।

पिछले दो साल से दुनिया को महामारी ने घेर रखा है, जिसका सबक है कि नई विश्व-व्यवस्था में सार्वजनिक स्वास्थ्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। वैश्विक-सुरक्षा की परिभाषा में जलवायु परिवर्तन और संक्रामक बीमारियां भी शामिल होने जा रही हैं, जो राजनीतिक सीमाओं की परवाह नहीं करती हैं। नब्बे के दशक से वैश्वीकरण को जो लहर चली थी, उसे पुष्ट करने की जरूरत है, पर रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के कारण इस व्यवस्था को धक्का लगा है।

उत्पादन, व्यापार और पूंजी निवेश तथा बौद्धिक सम्पदा से जुड़े प्रश्न नए सिरे से परिभाषित हो रहे हैं। ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों की खोज भी हो रही है। कुछ दशक पहले पेट्रोलियम को कुछ देशों की समृद्धि का आधार माना जा रहा था, पर आज पेट्रोलियम-बाजार में तेजी से उतार-चढ़ाव आ रहा है। सऊदी अरब और यूएई जैसे देश अपनी अर्थव्यवस्था को पेट्रोलियम से हटाकर दूसरी दिशा में ले जा रहे हैं। दुनिया का लगभग आधा तेल उत्पादित करने वाला ओपेक अब बिखरता दिख रहा है। एक जमाने में अमेरिका तेल आयातक था, पर उसने चट्टानों को तोड़कर खनिज तेल निकालने की तकनीक विकसित की है, जिसके कारण वह अब तेल निर्यातक देश बन गया है।

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