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मोस्ट पॉपुलर पर्सन ऑफ द सेंचुरी – डॉ. आंबेडकर

मोस्ट पॉपुलर पर्सन ऑफ द सेंचुरी – डॉ. आंबेडकर

by हिंदी विवेक
in राजनीति, विशेष, व्यक्तित्व, सामाजिक
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आजकल एक ऐसा भी नैरेटिव चल रहा है कि जैसा कि दलितवादी कहते है, भारत में दलितों पर कोई अत्याचार हुए ही नहीं, सबकुछ कपोल कल्पना है, यह तो बहुत ज्यादा अति हो गई। आवश्यकता है, स्वयं को स्वर्ण समझने वाले अपनी इस भूल को जितना हो सके, जल्दी स्वीकार करें। अस्पृश्यता, भेदभाव और जन्मना जाति आधारित मिथ्या श्रेष्ठता बोध के आधार पर एक को ऊंचा समझना और दूसरे को नीचा, यह एक सच्चाई रही है।

वर्तमान में यह इतना नहीं है लेकिन हमारे देखते देखते, यह सब चल रहा था। हो सकता है दुर्भाग्य से अभी भी कहीं चल रहा हो, इसका रिवर्स भी चल रहा हो लेकिन यह सच्चाई है कि जाति के आधार पर अस्पृश्यता और भेदभाव होता था, इसे स्वीकार करना चाहिए और इसको नकारना स्वयं को धोखा देना है।

मैंने स्वयं ने इसे देखा था, 20 वर्ष पहले हमारे भी घर में दलितों को चाय पिलाने के कप अलग से रखे होते थे, वहीं कुछ जातियां ऐसी थी जहां “हमारे लिए” भी अलग से कप रिजर्व रखे रहते थे जो हमें स्वयं धोने होते थे। संघ के सम्पर्क में आने के बाद हमने इसे बिल्कुल बन्द किया। तो यदि अभी अभी के वर्षों में यह स्थिति थी तो आज से सौ, डेढ़ सौ वर्ष पहले तो बहुत बुरी स्थितियां रहीं होंगी।

आज के दलित वर्ग का आक्रोश कथमपि गलत नहीं है कि उनके साथ अतीत में भेदभाव हुआ था और बड़ा जबरदस्त हुआ था। अत्यंत अमानवीय और दर्दनाक था वह। और वह हमारे पूर्वजों द्वारा ही हुआ था, अपनी इस शरारत को छिपाने के लिए उन्होंने धर्मग्रंथों का सहारा लिया यह सच्चाई है, उसे स्वीकारना साहस का काम है।

डॉ. आंबेडकर जी ने इसे स्वयं भुगता। अपने जैसे तत्कालीन 7 करोड़ अस्पृश्य समझे जाने वालों की आवाज बने। उनका संघर्ष 3 प्रमुख चरणों में हुआ।

1.आरम्भ में वे हिन्दू धर्म को समझाते रहे कि वह इसमें सुधार करे। जलस्रोत, मंदिर इत्यादि में भेदभाव न हो, ये उनकी मांग थी। लेकिन रूढ़िवादी हिंदुओं ने उन्हें कोई महत्व नहीं दिया। उनकी यह मांग हिन्दू समाज से थी लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

2.फिर दलितों की स्थिति को सुधारने के लिए  राजनीतिक हस्तक्षेप को आधार बनाया और दलितों के हक के लिए संघर्ष किया। उनकी यह मांग अभिजात्य अंग्रेजों से थी, उन्होंने भी उन्हें निराश किया।

3.तीसरे चरण में उन्होंने स्वतंत्र भारत से अस्पृश्य समाज के लिए कुछ मांगा।

तीनों ही चरणों में हिन्दू समाज, तत्कालीन अंग्रेज और स्वतंत्र भारत ने जो देना चाहिए था और जितना देना चाहिए था, नहीं दिया।

आप उस महामानव की पीड़ा समझिए, जिसके पीछे 7 करोड़ मनुष्यों का भाग्य जुड़ा है और वह क्रमशः एक एक सत्ता से अनुनय विनय कर रहा है, वह भी बिल्कुल शांतिपूर्ण तरीके से किन्तु  स्थापित लोग चतुराई वाली बातें कर इधर उधर की फेंक रहे हैं और वह भी उस समय के सबसे जबरदस्त पढ़े लिखे प्रतिभावान व्यक्ति के सामने !!

मैं जब स्वयं को डॉ. आंबेडकर की जगह रखकर सोचता हूँ, मेरा हृदय हाहाकार कर उठता है। डॉ. आंबेडकर चाहते तो पूरे भारत में आग लग जाती। विभाजन के बाद जो बचा भारत है, वह भी खण्ड खण्ड हो जाता। यदि उनके मन में आज के दलित नेताओं की तरह द्वेष होता तो वे उसी समय अपना चमत्कार दिखा सकते थे लेकिन उन्होंने यह नहीं किया!

24 वर्ष तक धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करने के बाद वे अपनी मृत्यु से मात्र कुछ दिन पहले बौद्ध बन गए। वह कोई बदला या प्रतिशोध नहीं था, चेतावनी थी वर्तमान भारत और हिंदुओं को!!

यह पहचान है उस महापुरुष की, कि वे सच्चे अर्थों में बुद्ध, कबीर और फुले की तरह विशुद्ध ऋषि थे। वे भले ही नास्तिक दिखते हैं लेकिन उनकी आस्तिकता बहुत ऊंची थी। वे भले ही अधार्मिक दिखते हों लेकिन उनकी धार्मिकता हम सबसे कई योजन ऊपर थी। उनकी देशभक्ति, उनकी नैतिकता को पहचानने में अभी भी कई वर्ष लगेंगे। उन्हें आंख मूंदकर स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं बल्कि हम सबका कल्याण है।

उन्होंने जो कहा, जो किया, हम उसका शतांश भी उन्हें नहीं दे पाए। वे चाहते तो उग्र क्रांति के द्वारा इसे साध सकते थे लेकिन उन्होंने “देश और हिन्दू धर्म को कम से कम नुकसान करूँगा” के प्रण का पालन किया। हम इतने कृतघ्न कैसे हो सकते हैं कि उनके सपनों को पूरा करना तो दूर, उनके वचनों को गलत संदर्भित करें और उनका चरित्र हनन करें?

वे आज भी करोड़ों लोगों के पूज्य हैं, महात्मा गांधी के बाद सर्वाधिक प्रतिमाएं उनकी हैं, गांधी के पश्चात वे दूसरे नम्बर के मोस्ट पॉपुलर पर्सन ऑफ द सेंचुरी हैं। उन्हें लोग भगवान की तरह पूजते हैं, उन्हें मंदिरों में स्थान दिया गया है।

1946 की संविधान सभा में उनका ऐतिहासिक भाषण हुआ जिसमें इस आशंका पर कि दलितों के अलगाव से या पाकिस्तान बन जाने से भारत विखंडित होगा, उन्होंने कहा था “भारत में हमारे अधिकारों के लिए एक बार लड़कर भिड़कर हम भले ही अलग होते दिख जाएं लेकिन यह इस भूमि की तासीर है कि उसे फिर से एक होना ही पड़ेगा। भारत लंबे समय तक खंडित और विभाजित रह ही नहीं सकता। एक समय आएगा जब चाहे किसी भी कारण से इसके कोई भाग अलग हुए है, वे इससे पुनः जुड़ेंगे, इसे कोई नहीं रोक सकता!”

उनके अधिकांश अनुयायी आज भी देशभक्त, परिश्रमी और धार्मिक हैं। उनके द्वारा रचित साहित्य में हम सबके लिए, आधुनिक भारत के लिए और वैश्विक कल्याण के लिए पर्याप्त सामग्री मौजूद हैं, हम क्यों नहीं पढ़ते? हाँ, उनके नाम का उपयोग कर कुछ तत्व शरारत करते हैं उसका कारण भी हमारा अज्ञान है।

केवल इसलिए कि उनके नाम पर कुछ लोग हिन्दू धर्म की आलोचना करते हैं, ब्राह्मणों को गालियां देते हैं या राष्ट्र विरोधी तत्वों का समर्थन करते हैं, इससे डॉ. भीमराव आंबेडकर का व्यक्तित्व छोटा नहीं हो जाता। इसमें उनके अनुयायियों का दोष तो हो सकता है लेकिन उनका तो किंचिदपि नहीं !!

  – कुमार एस 

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