पूरे विश्व में केवल भारत ऐसा देश है, जहां यहूदी, ईसाई, पारसी आदि विभिन्न मत-मजहबों के लोग आक्रांताओं से उत्पीडित होकर या जीविका की तलाश में अपनी धरती छोडकर यहां आए तो हिंदू धर्म की उदारता और हिंदुओं की सहिष्णुता के कारण उन लोगों को भारत में ससम्मान रहने का स्थान और अनुकुल वातावरण मिला। बहुत दिन नहीं हुए, जब पश्चिमी जगत, यूरोपीय विद्वान यहाँ तक कि ईसाई मिशनरी लोग भी यह स्वीकार करते थे कि दुनिया में सबसे सहिष्णु लोग हिंदू ही रहे है।
१९वीं सदी में ईसाई मिशनरी यहाँ हिंदू देवी-देवताओं को गालियां दिया करते थे, लेकिन हिन्दूओं द्वारा इसके विरुद्ध कभी हिंसा का प्रदर्शन कभी नहीं सुना गया। हिंदू सहिष्णुता को मध्यकाल के इस्लामी आलिम, उलेमा भी अच्छी तरह जानते थे। गजनवी के समय भारत आए मशहूर यात्री और लेखक अल-बरूनी ने भी लिखा है कि अधिक से अधिक वे (हिंदू) लोग शब्दों से लडते है, लेकिन धार्मिक विवाद में कभी जान, माल या आत्मा को हानी नहीं पहुंचाते। हिंदू धर्म की इस उदारता और हिंदुओं की इस सहिष्णुता को सारी दुनिया हाल तक मानती थी, किंतु कुछ राजनीतिक उद्देश्यों से इस ऐतिहासिक सत्य पर कालिख पोतने का काम, या इस तथ्य को इतिहास के पन्नों से गायब करने की चेष्टा, या ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी कर उल्टा हिंदू धर्म को ही एक संकुचित धर्म और हिंदुओं को अहिष्णु प्रजा के रूप में दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने का घृणित कृत्य १९६० के दशक से भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों (साहित्यकारों, लेखकों, संगठनों, संस्थाओं और पत्रकारों) ने शुरू किया है।
कुख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर की पहली मशहूर पुस्तक “A History of India” पहली बार १९६६ में प्रकाशित हुई थी। बाद में “Early India” शीर्षक से नए रूप में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से छपी थी। थापर की इस पुस्तक को पढने पर असावधान पाठक ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचता है कि (१) भारत में इस्लामी युग शुरू होने से पहले हिंदू राजाओं द्वारा मंदिर तोडना आम बात थी! (२) यह उनकी सत्ता की वैधता का प्रतीक था!! और (३) हिंदू राजाओं ने लगभग सारे बौद्ध और जैन मंदिरों को तोडकर मिटा दिए थे!!! हिंदू धर्म और भारत के इतिहास का थोडा सा भी ज्ञान रखने वाले सामान्य व्यक्ति का रोमिला थापर का यह “इतिहास” पढ कर मन ही मन में मुस्कुराना स्वाभाविक है, लेकिन यह तीनों बातें पश्चिमी दुनिया रोमिला थापर के सौजन्य से पिछले ५० वर्ष से सत्य जान और मान रही है, जब की भारतीय जनता को ही इतनी मोटी “ऐतिहासिक” बातों का पता ही नहीं!
क्या आपने अभी तक एक भी स्थान, या किसी बौद्ध, जैन या हिंदू मंदिर का नाम सुना है, जिसे किसी हिंदू राजा ने तोडकर मिटा दिया हो? आपने गजनी, बाबर, औरंगजेब आदि मंदिर-विध्वंसकों और मूर्ति-भंजक जेहादीयों के कुकर्मों के बारे में अवश्य सुना या पढ़ा होगा, लेकिन मंदिरों को तोडने वाले एक भी कुख्यात हिंदू राजा के बारे में कुछ सुना-पढा नहीं है! यह कैसे संभव है? यह इसलिए संभव है कि हिंदू राजाओं द्वारा मंदिरों को तोड़ने की बात रोमिला थापर जैसे उन भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों की जमात की मनगढ़ंत बात है, जिसे केवल राजनीतिक कारणों से फैलाई जाती रही है।
इस सफेद झूठ को फैलाने के पीछे मार्क्सवादी इतिहासकारों की इस जमात का एक उद्देश्य यह सिद्ध करना भी रहा है कि जैसे मुस्लिम काल में मुस्लिम शासकों ने हिंदू मंदिरों का विध्वंस किया, ठीक वैसे हिंदू राजाओं ने भी मुस्लिम-पूर्व काल में बौद्ध-जैन मंदिरों का विध्वंस किया था। यह जमात स्वयं मुस्लिम विद्वानों के इतिहास ग्रंथों में वर्णित इस्लाम की क्रूर प्रकृति और मुस्लिम शासकों की हिंदू मंदिरों को तोडने की “पवित्र” प्रवृत्ति पर तो पूरी तरह पर्दा नहीं डाल सकती, इस लिए हिंदू धर्म और हिंदू राजाओं को इस्लाम और मूर्ति-भंजक मुस्लिम शासकों के स्तर तक घसीट कर हिसाब बराबर करने का निष्फल प्रयास कर रही है।
“हिंदूओं ने भी बौद्ध-जैन मंदिर तोडे, उनके खून की नदियां बहा दी थी” आदि जुमलों का स्त्रोत किसी इतिहास ग्रंथ में नहीं मिलेंगे; इस दुष्प्रचार का स्त्रोत यहाँ की मार्क्सवादी राजनीति में है जहां हिंदू धर्म और हिंदुओं को बदनाम करने, उन्हें तोड़ने, बरगलाने, इस्लामी इतिहास का हर हाल में बचाव करने, जातिवादी वैमनस्य को बढाने, बौद्धों-जैनियों को भड़काने के लिए ऐसे मनगढ़ंत कथनों का सहारा लिया जाता है। इनके मूल में मार्क्सवादी इतिहासकारों का फैलाया हुआ दुष्प्रचार ही होता है। विभिन्न राजनीतिक एक्टिविस्ट अपने-अपने फायदे के लिए इस दुष्प्रचार का भरपूर इस्तेमाल कर लेते है। इन लोगों को सत्य से कोई लेना-देना नहीं। फिलहाल काम निकलने से उनका मतलब होता है। ऐतिहासिक प्रमाणों की जरूरत ही क्या!!
अब हम रोमिला थापर और अन्य मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा प्रचारित इसी बात को लें कि “हिंदू राजा भी मंदिर तोडा करते थे”। इस आधारहीन बकवास को सत्य मान लेने से कितने भयंकर और दूरगामी परिणाम निकल सकते है इसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। ठीक इसी चीज के आधार पर पिछले ५० वर्ष से भारत के तमाम मार्क्सवादी इतिहासकार और उनके अनुयायी भारतीय इतिहास में इस्लामी हिंसा और जुल्म को संतुलित करते रहे है, यह दावा करते हुए कि असहिष्णुता, अत्याचार और मंदिर-विध्वंस की प्रवृत्ति इस्लाम में ही नहीं, हिंदू धर्म में भी उतनी ही रही है। मार्क्सवादी इतिहासकारों के कथित “साम्प्रदायिकता-विरोधी अभियान” (वास्तव में “हिंदू-विरोधी अभियान”, क्योंकि इस गिरोह को इस्लामी साम्प्रदायिकता, जिहादी आतंकवाद आदि के विरुद्ध कभी कोई अभियान क्या, बयान तक देते नहीं देखा गया) में इस दुष्प्रचार का भरपूर इस्तेमाल होता रहा है।
यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि इस पूर्णतः झूठी बात को भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने, कुछ ने अनजाने, कुछ ने जान-बूझकर, इतने सालों से केवल अपने पद-प्रतिष्ठा के वजन से, सरकारी पैसों के बल पर और राजनीतिक पार्टियों के आशीर्वाद से बाजार में चलाया। इस अकादमिक (बौद्धिक) घोटाले की पूरी पड़ताल करने पर इन मार्क्सवादी “इतिहासकारों” की नग्न वास्तविकता उभर कर सामने आ जाती है कि वे वास्तव में कोई “विद्वान” नहीं, बल्कि हाई कमांड के संकेतों पर चलने वाले साधारण “पार्टी प्रचारक” रहे है।