सोने की चिड़िया

राधेश्यामजी ने सोचा था कि बंटवारा करके वे चैन से जिएंगे, लेकिन जो कुछ वे देख रहे थे उससे लगता है कि उन्होंने सांप की बांबी में हाथ डाल दिया। उन्होंने सोचा न था कि उनका निर्णय उड़ते तीर की तरह उन्हीं के लिए

दुःखदायी बन जाएगा। बचपन में ‘बाबा-बाबा’ कहकर कोमल नन्हें हाथों से धोती खींचने वाले बच्चे आज सचमुच उनके धोती-हरण पर आमादा थे।

आज रह-रहकर उन्हें हेमलता की याद आ रही थी। वह होती तो वे दुःख बांट लेते, पर यह व्यथा तो विधाता ने अकेले उनके भाग में मढ़ी थी। बड़े बुजुर्ग ठीक कह गए हैं कि बुढ़ापे में  बिजली गिरने का दुःख झेला जा सकता है पर अर्धांगिनी के अभाव का नहीं। बिना पत्नी बुढ़ापा अभिशाप बन जाता है।

सुबह जब राधेश्यामजी ने बच्चों के सामने अपनी सम्पूर्ण संपत्ति का खुलासा किया तो तीनों चकित रह गए। आंखें फटी की फटी रह गई। सभी का यही आंकलन था कि पिता के घर एवं बैंक जमाओं को जोड़कर उनके पास बीस लाख से अधिक सम्पत्ति नहीं होगी। यह तो उनकी कल्पना से भी परे था कि सभी संतानों का विवाह करने के पश्चात् भी बाबा के पास ऐसी अथाह संपत्ति होगी। धन की सूची एवं मूल्य जानकर सबकी दशा अंधे के हाथ बटेर जैसी थी। सौ तोला से ऊपर सोना, तीन रहवासी प्लाट, बीघों कृषि भूमि एवं यहां-वहां बिखरी लाखों की जमाओं का कुल मूल्य दो करोड़ से कम न था। कम संपत्ति होती तो शायद बंटवारा सरल होता, लेकिन इतनी संपत्ति देखकर सबका लोभ आसमान छूने लगा।

संपत्ति का ब्यौरा एवं कुल मूल्य बताने के पश्चात् राधेश्यामजी तीनों बच्चों एवं बहुओं को कह रहे थे, “यह संपत्ति मेरे खून पसीने की कमाई है। मैंने एवं हेमलता ने मन मसोस कर इसे जोड़ा है। जवानी से ही मैं अपनी आय का पच्चीस प्रतिशत विनियोग करता था। यह संपदा उसी की परिणति है। तुम्हारी मां ने इस कार्य में मुझे हमेशा सहयोग दिया। हम दोनों ने बहुत गरीबी देखी, यहां तक कि व्यापार के प्रांरभिक वर्षों में खाने के लाले पड़ गए। प्रभु की कृपा थी धीरे-धीरे सभी कार्य बन गए। चाहते तो हम भी इस संपदा को भोग सकते थे पर मेरा एवं तुम्हारी मां का सदैव यह चिंतन रहा कि जिस घनघोर गरीबी को हमने भोगा है, उसे बच्चे कभी न भोगें। उस कठोर समय की स्मृतियां उघड़ते ही मेरी रूह कांपने लगती है। प्रारंभिक संघर्ष के दिनों में मैं तुम्हारी मां को तीन वर्ष तक एक साड़ी भी भेंट न कर सका। उस तपस्विनी ने गहने तक बेचकर व्यापार का घाटा पूरा किया।” कहते-कहते भावावेश में उनकी आंखें गीली हो गई।

उनकी बात सुनने के पश्चात् कुछ देर तो तीनों पुत्र चुप बैठे रहे पर शीघ्र ही तीनों कलह पर उतर आए। नगाड़े पर पहली चोट सबसे बड़े पुत्र अमर ने दी। उसने बात प्रारंभ ही की थी कि उसकी पत्नी अरुणा उसके पास आकर ऐसे खड़ी हो गई जैसे किसी सैनिक द्वारा युद्ध का बिगुल बजाने पर दूर खड़ा सैनिक समीप आ जाता है। अमर अब पचास के पार था। उसके दो जवान बेटे एवं दो पुत्रियां सभी कुंवारे थे। बड़ा अट्ठाईस वर्ष का था। उसके विवाह का गत चार वर्षों से प्रयास चल रहा था, पर बात न बन पाने के कारण बाकी सभी भाई-बहन भी अटके थे। विनय अमर से पांच वर्ष एवं कैलाश विनय से सात वर्ष छोटा था। विनय के पश्चात् दो लड़कियां भी हुई जिनकी शादियां राधेश्यामजी ने कुछ वर्ष पूर्व अपने दम-खम पर की थी। बच्चों को वे आदतन कष्ट नहीं देते थे, लेकिन आज अमर के विचार जानकर उनके कानों में शीशा पिघल गया। अमर बेधड़क कहे जा रहा था, “बाबा, लगता है बुढ़ापे में आप सठिया गए हैं। आपका सर फिर गया है। आप तीनों को समान रकम देने की बात कैसे कर सकते हैं? क्या तीनों का त्याग, तीनों का साथ एवं तीनों की जिम्मेदारियां बराबर रही हैं? दिन चढ़ आया था। सूर्य अब आकाश के मध्य आकर आग उगलने लगा था। राधेश्यामजी से कुछ बनाते नहीं बन रहा था। मन ही मन राम का नाम जप रहे थे , प्रभु! चौथेपन में यूं दुर्गत होगी ? अब तो आप ही रक्षक हैं!

शायद बूढ़े की पुकार ईश्वर के द्वार तक पहुंच गई। यकायक चौखट के बंद दरवाजे पर दस्तक हुई। रीना ने आकर दरवाजा खोला तो देखकर हैरान रह गई। अपना पल्लू सर पर रखकर उसने आने वाले के पांव छूए फिर जोर से बोली, “महाराज पधारे हैं !”

राधेश्यामजी, सभी भाई, उनकी पत्नियां तुरंत उठकर चौखट तक आए। सभी एक-एक कर महाराज के चरणों में गिर पड़े।

“महाराज! यकायक आपका आगमन कैसे हुआ ? आप सूचना देते तो मैं स्टेशन लेने आ जाता।” विस्मय से भरे राधेश्यामजी हाथ जोड़कर बोले।

“मैं हरिद्वार से अहमदाबाद जा रहा था। जयपुर रास्ते पर था, इच्छा हुई तुम्हारी सुध ले लूं। बहुत दिनों से तुमसे मिलना नहीं हुआ। कहो, तुम सब कैसे हो?”

“पहले आप भीतर तो आएं !” अमर बोला।

महाराज कृष्णास्वामी अब पाट पर बैठे थे एवं सारा परिवार उनके सामने बैठा था। उनका चेहरा दिव्य कांति से आपूरित था। वे धर्म के ज्ञाता ही नहीं साक्षात् धर्मरूप थे। गत पचास वर्षों से वे इस घर के लिए आराध्य की तरह थे। राधेश्यामजी हर वर्ष उनके दर्शन करने हरिद्वार जाते। जीवन के कठिनतम समय में कृष्णास्वामी ने ही उन्हें मार्ग सुझाया। राधेश्यामजी एवं उनके पूरे परिवार की आंखों में उनका दर्जा भगवान के बराबर था। चतुर संत ने बात ही बात में सबके मन की थाह ले ली। किसी बहाने से राधेश्यामजी उन्हें लेकर ऊपर के कमरे में गए तो महाराज ने पूछा, “सब कुशल से तो है, राधे !”

महाराज के इतना भर पूछने से उनके आंसू छलक पड़े। घर का बड़ा अपनी व्यथा किसे कहे? कोई उससे बड़ा आए तब तो न उसका मन पिघलेगा! राधेश्यामजी ने आज की सारी घटना का बयान महाराज को कर दिया।

“सब ठीक हो जाएगा राधे! ईश्वर पर भरोसा रख। यह धन झगड़े की जड़ है। इसके कमाने में दुःख, इकट्ठा करने में दुःख, रखवाली में दुःख, विसर्जन में दुःख यहां तक कि इसे त्यागने में भी दुःख ही दुःख है। संग्रहण को इसी हेतु तो हम पाप कहते हैं। माया विषधर सर्प के समान है। तुमने अकारण ही पिटारी खोलकर सबका लोभ जगा दिया। अब तुम्हारे सभी पुत्र लालच के फन उठाकर खड़े हो गए हैं।” वे कुछ और कहते तभी नीचे से विनय की आवाज आई, “प्रसाद बन गया है। बाबा, महाराज को लेकर नीचे आएं !”

प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात् कृष्णास्वामी वहीं पाट पर यह कहकर लेट गए कि “चार बजे सब यहीं रहना, मैं तुम सबसे वार्ता करूंगा।” इतना कहकर वे चादर तानकर सो गए।

सूरज ने जब आकाश को पौना पार किया तो कृष्णास्वामी उठे। रीना ने उनके आगे चाय की प्याली रखी। चाय की चुस्कियां लेते हुए महाराज बोले, “राधे! तुम्हारे घर में चाय बड़ी अच्छी बनती है !”

“आपकी कृपा है, महाराज!” कहते-कहते राधेश्यामजी उनके समीप आकर बैठ गए।

“हमारा परिवार भी चाय की तरह होता है, राधे! बनती तो चाय हर जगह पत्ती एवं शक्कर से है पर फ्लेवर हर जगह अलग होता है। परिवार में भी सभी जगह एक-सी बातें हैं लेकिन परिवार जुदा-जुदा है। रिश्तों में भी फ्लेवर के लिए त्याग की पत्ती एवं प्रेम की शक्कर चाहिए। ऐसे में अगर कड़वा अदरक भी मिल जाए तो वह चाय का स्वाद ही बढ़ाता है।” कहते-कहते कृष्णास्वामी ने अपनी लंबी सफेद दाढ़ी पर ऊपर से नीचे तक हाथ फेरा।

“आप ठीक कहते हैं, महाराज!” इस बार सबसे पीछे बैठा कैलाश बोला।

“कैलाश! त्याग कहने में तो बड़ा सरल है, पर करना बड़ा कठिन है। आदर्श जब तक व्यवहार में नहीं आता कोरा उपदेश है।” यह कहते हुये उन्होंने बांये हाथ की अंगुलियां कनपटी पर यूं रखी मानो किसी गहरे चिंतन में डूब गए हों। सोचते-सोचते उनकी आंखें इस तरह मुंद गई मानो वे ध्यान में गहरे उतर रहे हों। मुंदी आंखें, उन्नत ललाट, माथे पर भस्म की रेखाएं, भगवा वस्त्र, पास में रखा कमण्डल एवं लम्बी सफेद दाढ़ी उनकी मुख-प्रभा को द्विगुनित करने लगी थी।

कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली एवं सबको एक-एक कर यूं देखा मानो सबकी मनःस्थिति परखने का प्रयास कर रहे हों। उनकी आंखें ठहरी तो वे बोले, “आज मैं तुम्हें ‘महाभारत’ काल की एक कथा सुनाता हूं, तुम सभी ध्यान से सुनो !”

फिर महाराज ने सभी को बकासुर वध की कहानी सुनाई, जिसमें गांव के हर घर से एक व्यक्ति बकासुर के पास भोजन लेने जाता है और बकासुर उस व्यक्ति के साथ भोजन को भी खा जाता है। पांडव और कुंती जिस ब्राह्मण के पास आश्रय में थे, आज उनके घर से किसी को जाना था। ब्राह्मण, उसकी पत्नी, बेटी-बेटे के संवाद कुंती के कानों पर पडते हैं और वह उन सभी के एक दूसरे से प्रेम तथा त्याग से अभिभूत होकर भीम को भोजन लेकर भेजती है और अंतत: भीम उसका वध कर देता है।

इस कथा को समाप्त कर कृष्णास्वामी राधेश्यामजी एवं उसके परिवारजनों की ओर मुखातिब होते हुए बोले, “प्रेम एवं त्याग ही पारिवारिक सुख एवं शांति का मूल है। पारिवारिक सौहार्द्र एवं संगठन स्वार्थ की खाद पर नहीं पनपता, यहां तो सर्वाधिक त्याग करने वाला ही विजेता है। जिन परिवारजनों में त्याग का भाव है उस परिवार के सुख, शांति एवं समृद्धि को भगवान भी नहीं रोक सकता। परमात्मा भी संगठित परिवार के साथ चलने को विवश हैं।” इतना कहकर वे पाट से उठ खड़े हुए, अपना कमण्डल संभाला एवं उसी रात अहमदाबाद के लिए प्रस्थान कर गए।

संपूर्ण जगत को प्रकाशमान करने वाले भगवान भास्कर का बिंब पूर्वी छोर पर उभरा तब राधेश्यामजी स्नानादि कर पाट पर बैठे थे। कुछ समय पश्चात् एक-एक कर उनके तीनों पुत्र, पुत्र वधुएं एवं पोते-नाती उनके सामने आकर बैठ गए। बंटवारे का पुनः प्रसंग छिड़ा लेकिन आज नजाऱा भिन्न था। कल की तरह आज भी शुरुआत अमर ने ही की।

“बाबा! कल जो कुछ मैंने कहा वह गलत था। वस्तुतः मैं भटक गया था। मात्र उम्र में बड़ा होने से कोई बड़ा नहीं होता, बड़ा वही है जिसका त्याग बड़ा है। अगर बड़ा भाई छोटे भाइयों से छीनने का प्रयास करे तो वह बड़ा कैसा? उम्र का उत्कर्ष आदर का पैमाना नहीं हो सकता, आदर का पैमाना तो त्याग, श्रद्धा एवं प्रेम ही बन सकते हैं। आप दस प्रतिशत हिस्सा मेरे लिए तय करें, बाकी धन मेरे अनुज इच्छानुसार बांट लें।”

अमर कुछ और कहता उसके पहले ही विनय बोला, “बड़े भैया! मुझे क्षमा करो। लोभ ने कल मेरी आंखों पर पर्दा डाल दिया था। जीवनभर आप मुझे छाते की तरह कष्ट एवं तकलीफों की बौछारों से बचाते रहे, लेकिन आज त्याग का समय आया तो मैंने मुंह मोड़ लिया। मैं निकृष्ट एवं पापी ही नहीं अधम भी हूं। अब तक आप मुझे संभालते रहे, अब जबकि मेरे भतीजे-भतीजियां, कैरियर एवं विवाह की दहलीज पर खड़े हैं, मैंने तोते की तरह आंख फेर ली। इतना ही नहीं आपके जीवनभर के त्याग एवं स्नेह को दरकिनार कर कल आपको कटु शब्द भी कहे। मेरी यही सजा है कि बाबा मुझे बंटवारे में कुछ न दे।” कहते-कहते विनय की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई।

अब कैलाश की बारी थी।

विनय की बात सुनकर वह भी बिलख पड़ा।

“बाबा! इन दोनों भाइयों ने जीवनभर मुझे ढाल की तरह सहारा दिया। इनके साये में मैं निर्विघ्न घूमता रहा। कल मैंने इन्हें जो कुछ कहा उसके लिए ईश्वर भी मुझे क्षमा नहीं कर सकता। मुझमें तो अब इनसे आंख मिलाने का भी साहस नहीं है। मुझे बंटवारे की आवश्यकता ही कहां है? मेरे पास तो अभी एक लंबा समय पड़ा है। इनके आशीर्वाद से मैं निश्चय ही अपना अभीष्ट सिद्ध कर लूंगा।” कहते-कहते कैलाश दोनों भाइयों के चरणों में गिर पड़ा। उसका रुदन थमता ही न था।

पाट पर बैठे राधेश्यामजी यह सब सुनकर हैरान रह गए। हर्षविभोर उनकी आंखों में स्नेह एवं आनंद के आंसू छलक आए। मन थमा तो सोचने लगे-यह देश सोने की चिड़िया इसलिए नहीं था कि यहां सोने के पहाड़ थे। यह देश सोने की चिड़िया इसलिए था कि यहां स्वर्ण-संस्कार थे। इस देश का मन भटक सकता है, आत्मा नहीं।

                                                                                                                                                                                                        – – हरि प्रकाश राठी 

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