23 जुलाई, 1955 को जापान के विश्व धर्म सम्मेलन में एक संन्यासी जब बोलने खड़े हुए, तो भाषा न समझते हुए भी उनके चेहरे के भाव और कीर्तन के मधुर स्वर ने वह समां बांधा कि श्रोता मन्त्रमुग्ध हो उठे। लोगों को भावरस में डुबोने वाले वे महानुभाव थे राष्ट्रसंत श्री तुकड़ो जी महाराज।
तुकड़ोजी का जन्म 30 अप्रैल, 1909 को अमरावती (महाराष्ट्र) के ‘यावली’ गांव में हुआ था। इनके पिता श्री बंडोजी इंगले तथा माता श्रीमती मंजुला देवी थीं। माता-पिता ने बहुत मनौतियों से प्राप्त पुत्र का नाम ‘माणिक’ रखा।
इनके पिता चारण थे। सेठ, जमीदारों, राजाओं आदि के यहां जाकर उनकी परिवार परम्परा का झूठा-सच्चा गुणगान करना उनका काम था। माणिक के जन्म के बाद उन्होंने इसे छोड़कर दर्जी का काम किया। इसमें सफलता न मिलने पर गुड़ बेचा; पर हर बार निराशा और गरीबी ही हाथ लगी।
मणि जब कुछ बड़ा हुआ, तो उसे चांदा की पाठशाला में भेजा गया; पर वह विद्यालय के बगल में स्थित मारुति मंदिर के ढपली बजाकर भजन गाने वाले गायक ‘भारती’ के पास प्रायः बैठे मिलते थे। इधर पिता का कर्जा जब बहुत बढ़ गया, तो वे लौटकर फिर अपने गांव पहुंच गये। अब वहां का शिवालय ही मणि की ध्यान साधना का केन्द्र बन गया। मां ने यह देखकर उसे अपने मायके बरखेड़ भेज दिया। वहां पर ही कक्षा चार तक की शिक्षा मणि ने पायी।
बरखेड़ में मां के गुरु आड्कु जी महाराज का पे्रम मणि को मिला। भजन गाने पर उसे रोटी के टुकड़े मिलते थे। इससे उसका नाम ‘तुकड़या’ और फिर तुकड़ोजी हो गया। जब वे 12 वर्ष के थे, तब उनके गुरु समाधिस्थ हो गये।
भगवान विट्ठल के दर्शन की प्रबल चाह तुकड़ो जी को पंढरपुर ले गयी; पर पुजारियों ने उन्हें भगा दिया। अब वे पुंडलीक मंदिर गये। इसके बाद मां की याद आने पर गांव आकर मजदूरी से पेट पालने लगे। 14 वर्ष की अवस्था में वे घर छोड़कर जंगल चले आये।
वहां उनकी भेंट एक योगी से हुई, जिसने एक गुफा में उन्हें योग, प्राणायाम, ध्यान आदि सिखाया। वे रात को आते और प्रातः न जाने कहां गायब हो जाते थे। दो माह बाद एक दिन जब तुकड़ो जी की समाधि टूटी, तो वहां न कोई योगी थे और न कोई गुफा।
अब तुकड़ो जी स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। उनकी भेंट गांधी जी से भी हुई; पर उनका मार्ग गांधी जी से अलग था। वे गाते थे – झाड़ झड़ूले शस्त्र बनेंगे, पत्थर सारे बम्ब बनेंगे, भक्त बनेगी सेना। ऐसे शब्दों से अंग्रेज शासन को नाराज होना ही था।
28 अगस्त, 1942 को उन्हें बंदी बना लिया गया। जेल से आने पर वे सेवा कार्य के माध्यम से समाज जागरण में जुट गये। उन्होंने ‘गुरुदेव सेवा मंडल’ स्थापित कर गांव-गांव में उसकी शाखाएं स्थापित कीं। एक समय उनकी संख्या 75,000 तक पहुंच गयी।
इसी समय उनकी भेंट संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी से हुई। दोनों ने एक दूसरे को समझा और फिर शाखाओं पर भी उनके प्रवचन होने लगे। गुरुदेव सेवा मंडल ने गोरक्षा, ग्रामोद्योग, समरसता, कुष्ठ सेवा, व्यसन मुक्ति आदि रचनात्मक काम हाथ में लिये।
इनके व्यापक प्रभाव को देखकर राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें ‘राष्ट्रसंत’ की उपाधि दी। 1953 में तुकड़ो जी ने ग्राम विकास के सूत्रों की व्याख्या करने वाली ‘ग्राम गीता’ लिखी। 1964 में जब ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की स्थापना हुई, तो वे वहां उपस्थित थे।
सूर्य उगता है, तो ढलता भी है। अब चलने का समय हो रहा था। तुकड़ो जी ने क्रमशः सभी कार्य अपने सहयोगियों को सौंप दिये और 11 अक्तूबर, 1966 को अपनी देहलीला को भी समेट लिया।
Thanks a million
I read this saint s name first time. I am very very happy to know his life s contribution n dedication for being born as human . Will try to remember his contribution to go humans n society
Wish to do some thing like him
Thanks a lot for writing this piece of knowledge sharing
Hariom Tat Sat Hare Krishna Hare Ram