विदेशों में भारत को क्यों बदनाम कर रहे राहुल गांधी

भारत की सबसे बूढ़ी पार्टी  के युवराज अपने वतन से बाहर जा कर भी वही बोले जो कभी उन्होंने संसद मे कहा था की “भारत एक राष्ट्र ही नही है” अगर भारत हम राष्ट्र नही है तो हमारी हज़ारों वर्षों  की हिन्दू संस्कृति क्या है? भारत की आज़ादी में  बलिदानी वीरों ने किस लिए बलिदान दिया अगर हम राष्ट्र ही नही है। हम अगर राष्ट्र नही है तो  देश की सबसे बूढ़ी पार्टी के नेता भारत के संस्कृतिक प्रतीकों के दर्शन हेतु क्यू जाते है? । क्यू माँ गंगा में याचमन का ढोंग करते है? क्यू हिंदू देव स्थानो के दर्शन हेतु जाते है? 

ये कुछ वाजिब से प्रश्न मेरे मन में तो आते है वही राहुल गांधी जी के बौद्धिक क्षमता पर भी कई प्रश्न खड़े करने का मन हो जाता है। पिछले दिनो विदेशी धरती पर उनके द्वारा दिए साक्षात्कार मे कहा की भरत एक राष्ट्र ही नही बल्कि ये राज्यों का संघ है। अब उन्हें कौन बताये  की ये मात्र एक व्यवस्था है लेकिन क्या राज्यों को भारत राष्ट्र की परिधि से बाहर जाने की स्वीकृति है तो ऐसा नही। हालाँकि आपको और आपके साथ जुड़े बौद्धिक जमात के लिए राष्ट्र का अर्थ अंग्रेज़ी के नेशन के रूप में है जो वास्तव में भारत का अपना मौलिक चिंतन नही है अपितु हमारी  पूरी हिंदू संस्कृति के विरुद्ध  ही है।

आज हम अपने आम बोल चाल हो या बौद्धिक परिचर्चा राष्ट्र को नेशन कहने की भूल कर देते हैं, ऐसी ही भूल राहुल जी एवं उनकी शोध टीम से हुई है। इस लिए अब ये जानना ज़रूरी है नेशन और राष्ट्र है क्या? । भारत में राष्ट्र केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र नहीं बल्कि ये जीता-जागता विराट पुरुष है,यही कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रति उतर में कहा की “ हमारे लिये राष्ट्र एक जीवित आत्मा है”। हमारी मान्यता है कि ऋषियों की भद्र इच्छा से राष्ट्र का जन्म हुआ हैवही हम पश्चिम के 15 वी शताब्दी के बाद के उपजे नेशन नही है ये नेशन राज्य शक्ति  के साथ जुड़े थे जिसका ध्येय अपने राज्य को बढ़ाना और प्राकृतिक संसाधनो के नियंत्रण  के साथ जुड़ा था। वही भारत का राष्ट्र इससे बिल्कुल भिन्न है अथर्ववेदमें एक श्लोक आता है जिसमें कहा गया की –

भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे ।

 ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥

–       अथर्ववेद 19.41.1

अर्थात्- आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत के कल्याण की सदइच्छा से सृष्टि के प्रारंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्ट्र का निर्माण हुआ और राष्ट्रीय बल तथा ओज भी उत्पन्न हुआ। इसलिये सब इस राष्ट्र के सामने नतमस्तक होकर इसकी सेवा करें। इस प्रकार ऋषियों की अन्तःप्रेरणा से एक राष्ट्र का जन्म होताहै। हमारे द्वारा प्रदत्त इस राष्ट्र का जन्म किसी दूसरे राष्ट्र को हरा कर उस पर शासन नहीं हैअपितु ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की भावना के आधार पर सामूहिक कल्याण की भावना पर बल देता है। यही कारण हैकिभारत में बहुत से राज्य और रजवाड़े होते हुए भी भारत एक राष्ट्र रहा है ,यही कारण है की दक्षिण का व्यक्ति भी मुक्ति के लिए काशी, हरिद्वर ही आना चाहता है और उत्तर का व्यक्ति एक बार सारे ज्योतिर्लिंगो  घूमना चाहता है।

वही इस राष्ट्रीय स्वरूप का दर्शन जहाँ हर बार कुंभ में देखने को मिलता है तो वही अयोध्या में बन रहे प्रभु राम के मंदिर हेतु विश्व हिन्दू परिषद द्वारा संचलित निधि समर्पण अभियान में भी ये देखने को मिला। जब उत्तर पूर्व के एक छोटे से गाँव की 95 वर्षीय वृद्ध महिला हो या झारखण्ड  के जंगलो में रह रही है जनजातिया या फिर दक्षिण प्रांतो के लोग या फिर लद्दाख,जम्मू कश्मीर हो सभी ने अपने यथा क्षमता अनुसार राम मंदिर निर्माण हेतु अपनी-अपनी निधि का समर्पण किया। ऐसा नही की ये सब अनायास हो गया बल्कि ऐसा इस लिए हुआ क्यूँकि वर्षों हमारी संस्कृतिक जड़ो ने हमें राम से जो भारत की अस्मिता भी है से जोड़े रखा।

हमारा राष्ट्र एक आध्यात्मिक राष्ट्र सनातन कल से रहा है, वही राजनैतिक राष्ट्र के रूप में भी हम 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के निर्माण के बाद बने है ऐसा भी बिल्कुल नही है। पश्चिम के चिंतन ने भारत को एक राष्ट्र नही माना ऐसा कहने के पीछे उनका उदेश्य हमारे राष्ट्र गौरव को भंग करने का प्रयास था। राष्ट्र की पहचान केवल एक निश्चित भू भाग, जनसंख्या, एथनिसिटी, रंग, रिलिजन एवं साँझे इतिहास पर ही टिका है, तो ऐसा नही नेशन के लिए तो ये सब  ज़रूर है जिसमें सामान संस्कृति, सामान भाषा, सामान रिलिजन, या इतिहास, भूभाग अनिवार्य है।  लेकिन भारत का राष्ट्र तो तमाम विभिन्नताओ से परिपूर्ण है तो क्या हम अंग्रेज़ी परिभाषा के अनुसार राष्ट्र नही है? तो ऐसा नही है हमारी रगो में बह रहा हिन्दू संस्कृति का तत्व हमें सदैव एक होने  के भाव का जागरण करता  है, हमारे मठ मंदिर एवं तमाम श्रेष्ठ मनीषी समय-समय पर हमारा मार्ग दर्शन करनेइस भारत भूमि पर जन्म लेते है।

जब पश्चिम के ज्ञान ने हमें सँपेरों का देश कहा तो विश्व धर्म सांसद में भारत की हिंदू संस्कृति धर्म का भगवा परचम लहराने का कार्य स्वामी विवेकानंद करते है वही देश में आरबिंदो घोष के लेख क्या कम हमारी संस्कृति को बताने का कार्य करते है। हमारे हिंदू दर्शन  का ही प्रभाव है की हमने अपने राष्ट्र की संकल्पना में हिंसा और साम्राज्यवादी विचार को तनिक भी भाव नही दिया।  बल्कि हम सब एक विश्व परिवार है ये श्रेष्ठ विचार हमारा हिन्दू दर्शन  का विचार है वही पश्चिम का ‘नेशन’ अपने-आप में एक राजनीति एवं भौतिक अवधारणा है, जो अत्यन्त संकुचित भावको अभिव्यक्त करतीहै। नेशन की अवधारणा का विकास एक जैसे दिखनेवाले लोगों की सांस्कृतिक एकता, धार्मिक एकता और उनके साँझा इतिहास को लेकर बनता है। हमारा राष्ट्र साँझे इतिहास के साथ-साथ आपस में बंधुभाव और “हम एक हैं” के विचार से जुड़ाहुआ है।

विभिन्न प्रान्तों तथा भाषाई समूहों में संगठित भारत एक समूचा राष्ट्र है, जिस की एकही तात्विक पहचान है,भारतीयता,हिन्दू गौरव ये हमारा राष्ट्रबोध है। हम कहते है- ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’ सत्यतोएक ही है, उसे संतो ने बताया भले ही भिन्न-भिन्न तरीक़े से है। इसीलिए हमारे यहाँ कोई आपसी विवाद नहीं हुआ, वही दुनिया के देशों में क्रिश्चियन, मुस्लिम आदि ये सभी पंथ आपस में ही कितना लड़े और फलस्वरूप भिन्न – भिन्न राष्ट्र-राज्यों का जन्म हुआ । वही हमारे भारत में इतनी बहुलता है खाने-पहने, रहने, पहाड़ी, समतल, जंगल कितने ही भिन्न-भिन्न प्रकार के त्योहार और भिन्न-भिन्न पूजा पद्धति है लेकिन इन सबके बावजूद भी हम एक राष्ट्र हैं और हमारे राष्ट्र की आत्मा अध्यात्म है, जो राष्ट्र के सभी बंधुओ  को आपस में जोड़ कर रखता है। इस लिये नेशन के अर्थ में राष्ट्र को ना समझ भारत ज्ञान परम्परा में ही राष्ट्र को समझे एवं जाने, और बार- बार भारत की संस्कृति राष्ट्र गौरव को शर्मसार करने से बचे।

Leave a Reply