वीर सावरकर कितने दूरदर्शी थे इसकी मिसाल उनकी इस बात से ही लगाई जा सकती है कि उनका कहना था की “मुझे मुसलमानों से डर नहीं लगता, अंग्रेजों से तो कतई डर नहीं लगता, मुझे डर लगता है तो हिन्दुत्व से नफरत करनेवाले हिंदुओं से ही”। और, वीर सावरकर की कही वो उक्ति आज किस हद तक गंभीर हो चुकी है ये हम सब जानते हैं।
लेकिन, आखिर ऐसी स्थिति आई कैसे ??? इसका जबाब जानने के लिए हमें प्रकृति देती है। कुछ समय पहले साउथ अमेरिका के जंगल के डिस्कवरी चैनल के कैमरों में कुछ अजीब सा और बहुत ही ज्यादा अजीब बात रिकॉर्ड हुई। एक जगुआर जो अमेरिकन जंगल का राजा है क्योंकि वहाँ लॉयन्स या टाइगर नहीं है,एक मगरमच्छ का शिकार करते कैमरे में रिकॉर्ड हो गया। ये अजीब सा इसलिए है कि सम्भवतः शायद ही उस समय तक किसी ने किसी मगरमच्छ का शिकार एक अकेले बिग कैट फेमिली के मैम्बर द्वारा नहीं देखा गया था।
हालांकि, अफ्रीकी जंगलों में कभी कभी शेर को भी मगरमच्छ का शिकार करते एक्सपर्ट ने देखा था लेकिन उसमें भी शिकार करते समय पूरा लॉयन्स प्राइड होता था। लेकिन, एक जगुआर जिसका औसत वजन सौ किलोग्राम या कम होता है जबकि एक अडल्ट अमेरिकन मगरमच्छ आमतौर पांच सौ किलो वजन का होता है। अपने वजन से पांच गुना वजनी प्राणी जो खुद ही शिकारी जीव है, का अकेले जगुआर द्वारा शिकार करना,उस समय एक्सपर्ट को पागल बना देने वाली बात थी।
क्योंकि, वो मगरमच्छ जिसकी एक ही बाइट शेर/जगुआर की कमर की हड्डी को चकनाचूर कर सकती थी जो पानी का शहंशाह माना जाता था। कई दिन तक कई वीडियो देखने के बाद एक्सपर्ट ने जब जगुआर का शिकार करने का तरीका नोट किया तो वो और भी ज्यादा हक्के बक्के रह गए। चूंकि, मगरमच्छ के शरीर की चमड़ी बहुत सख्त होती है और एक बार में तो कोई बिग कैट भी नहीं फ़ाड़ पाती। लेकिन, मगरमच्छ के मुंह के ऊपर के हिस्से में कुछ इंच चमड़ी बिल्कुल इंसान जैसी नॉर्मल होती है और वहीं से इसकी सांस नलिकाएं गुजरती हैं।कई बार जगुआर ने उसके शिकार करने की नाकाम कोशिश के बाद ये सीख लिया कि मगरमच्छ की कमजोर नस कहां हैं। और, फ़िर जगुआर डायरेक्ट उसी हिस्से को निशाना बनाने लगा।
इतना शक्तिशाली होते हुए भी मगरमच्छ अभी अपने उस नाजुक हिस्से को शिकारी से बचाने के तरीके विकसित नहीं कर पाया है। इसके बाद एक्सपर्ट लोगों ने रिसर्च करना शुरू किया कि आखिर जगुआर ने मगरमच्छ का शिकार करना शुरू ही क्यों किया। क्योंकि, सामान्यतः मगरमच्छ बिग कैट के फ़ूड चैन का हिस्सा नहीं है लेकिन क्योंकि जगुआर को रेन फॉरेस्ट जंगल में पक्षियों के ज्यादा होने के कारण शिकार करने में बहुत ज्यादा दिक्कतें होती थी। पक्षी उसे देखते ही शोर मचाने लगते और उसका शिकार अलर्ट हो जाता। उसके शिकार करने की सक्सेस रेट दस परसेंट ही रह गई थी जो कि सर्वाइव करने के लिए बहुत ही खराब थी।
फिर मगरमच्छ से भरे पड़े जंगल में जगुआर ने ये ट्रिक विकसित कर ली। सैंकड़ों साल तक भारत में शासन करने के बाद जब ईसाई/मुस्लिम हमलावरों ने देखा कि तलवार/बन्दूक के दम पर तो वो भारत में सनातन संस्कृति को न ही इस्लामिक बना सकते हैं और न ही यीशु मसीह की।वो यहां पर रह तो सकते हैं लेकिन अपने असल मंसूबों को पूर्ण कर सकते हैं। उपर से आजादी के तुरंत बाद ही भारत का नेतृत्व वैसे ही प्रो इस्लामी/कृशियन था ही,तब उन्होंने अपने शिकार करने के तरीकों को बदल दिया।
अब तलवार की जगह स्थान ले लिया कलम ने। हिंदुओं के लिए फर्जी इतिहास लिखा जाने लगा, जिसमें उनके उन राजाओं का ज़िक्र होता जो युद्धों में हारे हुए थे, लेकिन जीतने वालों को कुछ ही पंक्तियों में समेट दिया। सन 1947 के बाद से ही शुरू की गई मुहिम आज धरातल पर स्पष्ट रूप से असर करती दिख रही है। सनातन की पीढ़ी की पीढ़ी का ही बधियाकरण कर दिया गया है, इसके बाद ही धर्म परिवर्तन का खेल पूरी गति से शुरु हो पाया है। फिर उनको घुट्टी पिलाई जाने लगी सर्वधर्म समभाव की कि सारे धर्म/मजहब समान होते हैं।
देश का कथित सविधान जो सभी धर्मो/मजहब को समान बताता है वो ही सविधान अलग अलग धर्म/मजहब के लिए अलग अलग हो जाता है।सनातन संस्कृति की सामाजिक बुराइयों को तो दूसरी कक्षा में ही पढ़ाना शुरू कर दिया जाता है लेकिन, अन्य किसी की सामाजिक व्यवस्था का जिक्र भी नहीं किया जाता। हिन्दुओ के जातिगत समीकरण तो सिखा दिए जाते हैं लेकिन इस्लाम के सुन्नी/शिया/अहमदिया/और दर्जनों फिरकों जैसे या ईसाई के सीरियन/रसियन/रोमन कैथोलिक के बारे में चुप्पी साध ली जाती है।
साइकोलॉजी की भाषा में कहें तो इस्लाम/ईसाई समुदाय ने जगुआर की तरह बढ़िया लर्निंग की है। और इधर सनातन मगरमच्छ की तरह ही अपने बचाव की टेक्नीक तो छोड़िए, बचना भी है या नहीं ये ही डिसाइड नहीं कर पा रहा।