ऐसा नहीं है कि केवल शिष्य को सद्गुरु की तलाश रहती है, बल्कि गुरु को भी एक योग्य शिष्य की उतनी ही आवश्यकता होती है ताकि वह अपने उच्च मानकों को समाज के सम्मुख प्रतिपादित कर सके। इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण बिखरे पड़े हैं जो इस ओर समाज का ध्यान खींचते हैं और मार्गदर्शन भी करते हैं।
वासुदेव सुतं देवम कंस चाणूर मर्दनम्,
देवकी परमानन्दं कृष्णम वन्दे जगतगुरु
श्रीकृष्ण को विश्व का श्रेष्ठतम गुरु क्यों कहा जाता है? शिष्य अर्जुन की खोज के कारण? अर्जुन को कुरुक्षेत्र में ईश्वर का विराट रूप दिखा देने के कारण? महाभारत के रणक्षेत्र में श्रीमद्भगवद्गीता रच देने के कारण? या कथनी और करनी में भेद न होने व गीता के तृतीय अध्याय ‘निष्काम कर्मयोग’ को रचने के कारण? उत्तर आपको खोजना है। गुरु पूर्णिमा पर केंद्रित इस आलेख में योग्य शिष्य की शाश्वत खोज में रत गुरु के रूप में इस परम्परा के शाश्वत प्रणेता सुदर्शन धारी गोविंद को विश्वगुरु के रूप में प्रणाम। श्रेष्ठ शिष्य व श्रेष्ठ गुरु की परस्पर सनातनी खोज का ही परिणाम है गीता का यह श्लोक जो अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा –
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥
भावार्थ: अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
और यह श्लोक भी जो श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा –
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से है। फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘निष्काम कर्मयोग’ है। यही निष्काम कर्मयोग का जगतगुरु श्रीकृष्ण का गुरुमंत्र हमारे समूचे भारतीय जीवन दर्शन का आधार बना व इसके बल पर ही हम हमारे प्राचीनकाल में विश्वगुरु के स्थान पर आसीन हो पाए थे। यह वैदिक शिक्षा और गुरुओं की परम्परा ही थी कि हमारे यहां तक्षशिला, नालंदा जैसे कई विश्वविद्यालय बने व इनमें शिक्षा ग्रहण हेतु विश्व के प्रत्येक भाग से शिक्षार्थी आने लगे।
एक श्रेष्ठ गुरु व श्रेष्ठ शिष्य के मध्य संवाद का इससे गुरुतर उदाहरण सम्भवतः ब्रह्मांड में कोई अन्य न होगा। न भूतो न भविष्यति।
एक श्रेष्ठ गुरु एक युगांतरकारी योग्य शिष्य की खोज के माध्यम से जगत की दिशा बदल देने में सफल हो जाते हैं! इतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी गुरु ने योग्य शिष्य की खोज की है या यूं भी कह सकते हैं कि जब-जब किसी शिष्य ने अपने गुरु के गुरुत्व को सिद्ध करने हेतु अपना सर्वस्व अर्पण किया है तब-तब इतिहास ने अपना मार्ग बदला है। इस परम्परा की एक और खासियत रही है कि शिष्य ने अपने गुरु की चरण धूलि को माथे लगाकर एक अलग दिशा में कार्य किया और गुरु के आशीष और सहयोग से अपने मनोरथ को पूर्ण किया और समाज को एक नई दिशा दी। ऐसे प्रसंगों में गुरु अपने शिष्य के माध्यम से पहचाने गए। जैसे रामकृष्ण परमहंस विवेकानंद से कहते हैं कि, तू तो मेरी ससुराल है रे! अर्थात् मैं तेरे गुरु के रूप में विश्व विख्यात होउंगा।
ऋषि परशुराम और उनके शिष्य भीष्म की बड़ी ही शिक्षाप्रद कथा महाभारत में आती है। चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त की खोज और चन्द्रगुप्त को गढ़ने की प्रक्रिया में गुरु शिष्य दोनों का लक्ष्य के प्रति समर्पण और दोनों की लक्ष्यप्राप्ति के दिव्य परिणाम से इतिहास स्वयं रोमांचित हुआ था। समर्थ स्वामी रामदास द्वारा शिवाजी महाराज को गढ़ने की कथा पढ़िए। समर्थ रामदास जी की शिक्षा का ही परिणाम था की शिवाजी निस्पृह शासक के रूप में इतिहास में अपना नाम अमर कर गए। श्रेष्ठ शिष्य के रूप में हिंदवी स्वराज के संस्थापक वीर शिवाजी ने अपना सम्पूर्ण राज्य समर्थ गुरु रामदास को गुरु दक्षिणा में समर्पित कर दिया। बाद में शिवाजी द्वारा गुरु के आदेश पर गुरु के प्रतिनिधि के रूप में राजा बने रहकर अपना कर्तव्य निभाने का भी बड़ा स्मरणीय प्रसंग इस चर्चा में आता है। पूज्य स्वामी परमहंस जी द्वारा स्वामी विवेकानंद की प्रज्ञा जागरण की कथा पढ़िए। रामकृष्ण परमहंस व ठाकुर मां की शिक्षा व आशीर्वाद का ही परिणाम रहा कि विवेकानंद शिकागो की धर्मसंसद में अपने उच्चतम शिष्यत्व को सिद्ध करके व पश्चिम जगत के समक्ष वैदिक दर्शन का लोहा मनवाकर लौटे। डाक्टर हेडगेवार जी द्वारा गुरु गोलवलकर को संगठन सौंपने के पीछे की ईश्वरीय प्रेरणा का आभास कीजिए। श्रीगुरुजी ने डाक्टर हेडगेवार जी के गुरुमंत्र को ऐसा सिद्ध किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व के सर्वाधिक विशाल संगठन बनने की ओर अग्रसर हो चला। गुरूजी की अनुपम कल्पनाशक्ति व अद्भुत कर्मणाशक्ति का ही परिणाम है कि आज संघ का एक प्रचारक समूचे विश्व में भारत का डंका बजा पाने में सफल हो पाया है। संघ के दिव्य संगठन महामंत्र से भारत अपने प्राचीन विश्वगुरु के स्थान को पुनः प्राप्त करने व वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक तिहाई भाग का जनक होने की यात्रा में अग्रसर हो चला है। देश के तंत्र से अनुच्छेद 370 जैसी विकट उलझन को सुलझाने का श्रेय श्रीगुरुजी की शिक्षा से प्रेरित एक स्वयंसेवक को ही जाता है। सात सौ वर्षों पुराने विदेशी आक्रांता द्वारा हमारे माथे पर गुलामी के कलंक के प्रतीक बाबरी ढांचे को हटवाकर भव्य श्रीराम जन्मभूमि का निर्माण गुरूजी की शिष्य परम्परा के वाहक प्रचारक के रूप में ही नरेन्द्र मोदी कर पाए हैं। महंत अवैद्यनाथ जी द्वारा युवा योगी आदित्यनाथ को गोरखपुर पीठ सौंपने का उदाहरण देखिए। उत्तरप्रदेश को एक अपराध प्रदेश से संस्कार प्रदेश बनाने का कार्य योगी अपने गुरु से मिली शिक्षा के प्रति सतत पूज्य भाव धारने के कारण ही कर पाए हैं। गुरु शिष्य की कथाओं के मध्य ऋषि द्रोणाचार्य व एकलव्य की कथा में छुपा गुरु की भविष्य दृष्टि व शिष्य के समर्पण भाव का उल्लेख भी परम आवश्यक है। एकलव्य का उल्लेख आने पर बहुधा ही यह कहा जाता है कि गुरु ने शिष्य का अंगूठा कटवा दिया। यहां अंगूठा देने का अर्थ अंगूठा काटकर देना नहीं अपितु हस्ताक्षर करके वचनबद्ध होना होता है। पहले साक्षर व्यक्ति भी अंगूठा लगाकर ही वचनपत्र लिखा करता था। कतिपय प्रपंचियों ने अंगूठा लगाकर वचनबद्ध होने की कथा को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा काट लेने के रूप में दुष्प्रचारित किया। गुरु द्वारा योग्य शिष्य की खोज की कई ज्ञात-अज्ञात कथाएं हैं जिनसे युग परिवर्तन सम्भव हुआ है। जगतप्रसिद्ध सनातनी वीर गुरु गोविंदसिंह द्वारा अपनी सेना को गुरु की वाणी या गुरुग्रंथ साहिब को ही गुरु मानने का आदेश देना इस संदर्भ में एक पठनीय पाठ है। सिक्ख गुरुओं की परम्परा के एक से बढ़कर एक उद्भट, प्रकांड व वीर शिरोमणि शिष्यों का अवतरित होना भला कौन भूल सकता है? इस गुरु शिष्य परम्परा के शिष्यों की प्रत्येक पीढ़ी ने विदेशी मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से हिंदू समाज की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति देने की एक अंतहीन कथा लिख डाली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक परम पूजनीय डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्वयंसेवकों को भगवा ध्वज को गुरु मानने का परामर्श देना गुरु शिष्य परम्परा व श्रेष्ठ गुरु की खोज की चर्चा में एक अनुकरणीय प्रसंग है। वस्तुतः हेडगेवार जी का यह कहना कि व्यक्ति में दोष आ सकता है किंतु तत्व में नहीं अतः तत्व को ही गुरु मानना; यही गुरु शिष्य परम्परा का मूलतत्व है। गुरु गढ़ने वाला हो व शिष्य कच्ची मिट्टी सा बनकर स्वयं को गढ़वाने हेतु तत्पर हो इसी भाव से कहा गया-
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥