15 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ तो 3 जून 1947 की माउण्टबेटन योजना के अनुसार औपनिवेशिक भारत की 562 देशी रियासतों के सामने दो ही विकल्प थे—भारत में विलय अथवा पाकिस्तान में विलय। भारत को एक सूत्र में पिरोने का श्रेय सरदार वल्लभ भाई पटेल के साहसी व्यक्तित्व और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है जिनके लौह व्यक्तित्व के कारण देशी रियासतों का भारत में विलय संभव हो सका।
बस जूनागढ़ एवं हैदराबाद की रियासतें ही ऐसी थी जो माउण्टबेटन योजना के तीसरे विकल्प का लाभ उठाकर पाकिस्तान को मदद करना चाहती थीं।
हैदराबाद जनसंख्या, क्षेत्रफल एवं सकल घरेलू उत्पादन की दृष्टि से सबसे बड़ी रियासत थी। इसका क्षेत्रफल ब्रिटेन और स्कॉटलैंड के क्षेत्र से भी अधिक था और आबादी (एक करोड़ 60 लाख) यूरोप के कई देशों से अधिक थी। उसकी अपनी सेना, रेल-सेवा एवं डाक-तार व्यवस्था थी। वहाँ ८५% हिंदू आबादी थी, किंतु शासक मुस्लिम थे। उनके पास रजाकारों की निजी सेना भी थी। प्रशासन एवं सेना के उच्च पदों पर मुसलमानों की ही नियुक्ति की जाती थी।
एकीकरण की प्रक्रिया के दौरान भारत ने हैदराबाद के निज़ाम को एक वर्ष का वक़्त यह सोचने के लिए दिया गया आप सोच-समझकर निर्णय करें कि आप भारत का हिस्सा बनना पसंद करेंगे या पाकिस्तान का और फिर एक वर्ष बाद ‘जनमत संग्रह’ के माध्यम से हैदराबाद का भविष्य तय होगा। हैदराबाद के निजाम ने भरसक प्रयत्न किया कि उसकी रियासत का भारत में विलय न हो। उसने अंग्रेजों से इसे स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर राष्ट्र-मंडल देशों में शामिल करने का आग्रह किया, जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा ठुकरा दिया गया। उसने जिन्ना को भारत से युद्ध की स्थिति में सहायता के लिए पत्र लिखा जिसके लिए जिन्ना साहस नहीं जुटा पाया , इसलिए मना कर दिया और कुछ दिनों में जिन्ना की मृत्यु भी हो गई। बाद में पाकिस्तान ने पुर्तगाल को हैदराबाद की मदद करने को कहा किंतु पुर्तगाल सामने नहीं आया।
तब निजाम ने इंग्लैंड से सैन्य-हथियार खरीदने के लिए अपने आदमी भेजे, पर सफलता नहीं मिली। अंततः आस्ट्रेलिया से हथियार मंगाना तय हुआ। भारत ने, उस हवाई-उड़ान पर, प्रतिबंध लगा दिया। निजाम हैदराबाद के भारत में विलय के विरुद्ध संयुक्त राष्ट संघ के पास भी गया लेकिन उसे वहाँ भी सफलता नहीं मिली। हैदराबाद की आबादी के 80 प्रतिशत हिंदू लोग थे जबकि अल्पसंख्यक होते हुए भी मुसलमान, प्रशासन और सेना में महत्वपूर्ण पदों पर बने हुए थे। हैदराबाद का निजाम उस्मान अली खान विलय न करने पर अड़ा था जबकि हैदराबाद की जनता भारत में विलय चाहती थी,पर निजाम ने उनके आंदोलन को अपनी निजी सेना रजाकार के द्वारा दमन शुरू कर दिया। रजाकार एक निजी सेना थी जो निजाम के शासन को बनाए रखने तथा हैदराबाद को स्वतंत्र भारत में विलय का विरोध करने के लिए बनाई गई थी।
निज़ाम ने इस ‘मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एमआईएम) नामक संगठन को कार्य दिया कि या तो हिंदुओं को तलवार की नोक पर मुसलमान बनाओ या फिर इस्लाम स्वीकार नहीं करने पर मौत के घाट उतार दो ताकि जनमत संग्रह की स्थिति में हिन्दू भारत में विलय के पक्ष में आवश्यक संख्या बल खो दें । निज़ाम का यह आतंकवादी संगठन निर्बाध रूप से अपने कार्य को अंजाम तक पहुँचाने में जुट गया। भारी संख्या में हिंदुओं को मार दिया गया और प्रताड़ित होकर बहुतों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। हैदराबाद में व्यापक स्तर पर भारत-विरोधी गतिविधियां चल रही थीं, पाकिस्तान द्वारा भारी-मात्रा में गोला-बारूद वहां भेजा जा रहा था और भारत में विलय के पक्षधर हिंदू जनता की रजाकार सेनाओं द्वारा हत्याएं की जा रही थीं और बाहर से मुसलमानों को लाकर हैदराबाद में बसाया जा रहा था। इन सबको देखते हुए 12 सितंबर 1948 को कैबिनेट की एक अहम बैठक हुई जिसमें नेहरू और पटेल के साथ उस समय भारतीय सेना के सभी बड़े अफसर मौजूद थे। भारत ने 13 सितम्बर 1948 को हैदराबाद को भारत में विलय करने के लिए ऑपरेशन पोलो शुरू किया। 5 दिन युद्ध हुआ, जिसके अंत में रजाकार और निजाम के सैनिक गीदड़ की तरह भाग खड़े हुए। भारत की विजय हुई और 17 सितम्बर 1948 को हैदराबाद का भारत मे विलय हो गया।