कम्युनिस्टों के रक्तचरित्र को बयां करती फिल्म- कोथु

‘कोथु’ लाल झंडे और भगवा झंडे की निश्चित सीमाएँ लिये वो फ़िल्म है जो कन्नूर की हिंसा से जुड़ी है। कम्युनिस्टों ने बंगाल, झारखंड में हिंसा का सहारा लेकर लम्बे समय शासन किया। केरल भी अछूता नहीं रहा। जहाँ बंगाल में कम्युनिस्टों की भाषा कांग्रेस और फिर तृणमूल ने अपना ली वहीं कम्युनिस्टों ने लाल कॉरिडोर जो आसाम के इटानगर से होता हुआ बंगाल, बिहार, झारखंड होता हुआ छत्तीसगढ़ से महाराष्ट्र तक आया।

बात अब इस फ़िल्म की और इससे जुड़े इतिहास की, केरल में २०२१ में लगभग १०० हत्याएँ हुई जिनमे से अधिकतर कम्युनिस्टों ने की और भगवा झंडा हुए लोगों ने आत्म रक्षा करते हुए अपना रास्ता उसी दिशा में बढ़ाया। कन्नूर में २०० में से लगभग ५० प्रतिशत हुई। फ़िल्म भी कन्नूर को मध्य में रखकर बनाई गई है जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का एक नेता अपने युवा साथियों को किसी भगवा झंडे के नेता की हत्या के लिये उकसाता है और चार युवा एक भगवा झंडा धारी की हत्या कर देते है, पुलिस पर हत्या के आरोपियों को पकड़ने का जब दबाव बनता है तो पुलिस कम्युनिस्ट नेता को फ़ोन करके “ अनुरोध” करती है कि किसी को पकड़ना होगा नहीं तो मुश्किल होगा, कम्युनिस्ट नेता सबको बुलाता है और उन्हें भी जो हत्या में शामिल रहते है और ये तय होता है कि एक व्यक्ति को सरेंडर करवा दिया जाये और एक कार्यकर्ता ख़ुद तैयार होता है जिसका हत्या से कोई लेना देना नहीं होता।

फिर कम्युनिस्ट नेता उसे लेकर एक चाय की टपरी पर जाता है और पुलिसकर्मी को कहता है आकर के जाओ लेकिन ख़्याल रखना। एफआईआर ऐसी बनाना की ये छूट जाये और ख़ाना पीना अच्छा देना। पुलिस आती है लेकर जाती है और पुलिस स्टेशन में ये व्यक्ति पुलिस पर धौंस जमाते हुए ख़ाना खाते हुए दिखाया गया। तब एक आईपीएस आफ़िसर एकदम से पुलिस स्टेशन आता है जिसका नाम नीतीश मिश्रा है !! और जब ये बंदा ( हत्या का आरोपी ) उसे धौस दिखाते हुए उस पर हाथ उठाता है तो आई पी एस उसकी कुटाई कर देता है तबियत से। बहरहाल पिक्चर में युवक जिसने हत्या की है उसका अन्तर्द्वन्द्व दिखाया गया है। वो हत्यारे के भाई जैसा है और हत्यारे की माँ को समर्पित कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्या दिखाया गया है जिसके बेटे को पुलिस गिरफ़्तार करके ले जाती है फर्जी तरह से और वो चुपचाप इसका समर्थन करते रहती है। वास्तविक हत्यारा जब उस व्यक्ति के परिवार को तकलीफ़ में देखता है जिसकी उसने हत्या की तो ग्लानि में आता है और उसे ख़ुद और परिवार की हत्या का डर सताने लगता है।

वो कम्युनिस्ट नेता से हिंसा छोड़ने की बात करता है इसी बीच उसका भाई जैसा मित्र जिसने हत्या का आरोप लिया होता है जंमानत पर छूटकर आता है। आते साथ ही उसका विजय जुलूस निकालते हुए पार्टी दफ़्तर लाते है, पार्टी नेता उसे एक बैग कुछ पैसे देते हुए ट्रेन की टिकिट थमा देता है। उसकी माँ से मिले बिना ही उसे उस जगह से ग़ायब करवा दिया जाता है। इधर ये वाला युवा जिसने वास्तव में हत्या की थी के घर बच्चा होता है, फर्जी हत्यारे का घर बम से उड़ा दिया जाता है, कम्युनिष्ट पार्टी के एक युवा के घर बम बनाने के समान से ख़ुद के घर में विस्फोट होता है उसका पिता मारा जाता है और फ़िल्म का अंत हत्या न करने का प्रण इसी व्यक्ति के द्वारा होता है जब वह किसी पर हमला कर रहा होता है और पहली हत्या वाले परिवार की छोटी सी बेटी ये देखते रहते हुए उससे कहती है इसे छोड़ दो।

मार्मिक, सामाजिक और कम्युनिस्टों के क्रिया कलापो पर, पुलिस के गठजोड़ पर सवाल उठाती ये फ़िल्म बहुत से जबाब छोड़ जाती है।

– गिरीश मिश्रा 

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