भारतीय दर्शन कर्म और कर्मफल पर टिका हुआ है

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतु: भू: ते संग: अस्तु अकर्मणि।।
भगवतगीता 2.47
भगवतगीता का यह श्लोक लगभग सभी लोग जानते हैं।
कृष्ण कह रहे हैं कि तुम्हारा अधिकार कुशलता पूर्वक कर्म करने में है उसके परिणाम में नहीं। इसलिए न तो कर्मफल की आकांक्षा करो और न ही अकर्मण्यता बरतो।

दो तीन कठिनाइयां हैं इस श्लोक को समझने में। प्रथम कठिनाई यह है कि परिणाम या फल की आकांक्षा कोई यदि न करे तो कर्म ही क्यों करेगा। इसीलिये वे पुनः ध्यान दिलाते हैं कि अकर्मण्यता न बरतो।

यह सर्वविदित है कि समस्त कर्मों के परिणाम होते हैं। भारतीय दर्शन कर्म और कर्मफल पर टिका हुआ है। कोई भगवान नहीं बैठा है हमारे कर्मों के परिणाम को निर्धारित करने हेतु। तो फिर कर्मफल या कर्म के परिणाम से विरत रहने को क्यों कहा जा रहा है?

इसका मनोवैज्ञानिक कारण है। कर्म का फल तो आना तय है। तो फल की चिंता ?

यदि हम फल की चिंता करने लगे तो क्या होगा? फल तो आएगा भविष्य में। कर्म करना है वर्तमान में। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं होता। भूत भी गया। भविष्य आया नहीं। आएगा तो वह भी वर्तमान की तरह ही आएगा।

यदि हम अपनी एक दृष्टि भविष्य में गड़ाए हैं, अर्थात कर्मफल पर, और कर्म वर्तमान में कर रहे हैं तो हमारा चित्त और हमारी ऊर्जा दोनों बंट जाएंगे। फलस्वरूप परिणाम भी आधा अधूरा ही आएगा। हम बंटे हुए चित्त से कर्म करेंगे तो चित्त की एकाग्रता भंग होगी, जो सफलता में बहुत बड़ी बाधक है।
कर्म और कर्मफ़ल दोनों पर एक ही साथ दृष्टि रखने वाला चित्त दुविधाओं से भरा हुआ चित्त होता है जो असफलता का कारण बनता है। इसलिए कर्म पर ही दृढ़ता से दृष्टि जमाकर रखना चाहिए। दुविधा। अर्थात दो दिशाओं में जाने वाला चित्त।

दूसरी कठिनाई जो आने वाली है कर्मफल को लेकर, वह है भविष्य को लेकर हमारे मन में आने वाली आशंकाएं, संशय, और असफल होने का भय। यद्यपि यह सब कल्पित हैं परंतु उसका असर हमारे चित्त पर इतना गहरा प्रभाव डालता है कि वर्तमान उससे प्रभावित हो जाता है।
Intimidation of performance. आजकल बच्चों में यह समस्या बहुत अधिक पायी जा रही है। बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी।

हम इस बात से परिचित हैं कि हम जितने भी कर्म करते हैं, मानसिक या शारीरिक, उसका प्रभाव हमारे अंतःकरण पर पड़ता है। प्रत्येक कर्म एक दाग या निशान छोड़ जाता है हमारे मन में। जिसे संस्कार कहते हैं।

जितनी बार हम इस कल्पित भय के बारे में विचारते हैं उसका निशान हमारे मन में गहरा होता जाता है। धीरे धीरे यह हमारे चित्त की स्थायी वृत्ति बन जाती है।

आधुनिक मेडिकल साइंस कहता है कि जितनी बार भी हम भय की स्थित से गुजरते हैं हमारे शरीर की हाइपोथैलेमस – पिट्यूटरी एक्सिस स्वतः सक्रिय हो जाती है जिससे हमारे गक्त में गम्भीर केमिकल टोक्सिन निकलते हैं, जो लंबे समय में हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

यह एक दुष्चक्र बन जाता है। जब भी हम किसी कार्य को करना शुरू करते हैं, हम उसके परिणाम के बारे में चिंतित और भयाक्रांत हो जाते हैं। यह एक चित्तवृत्ति बन जाती है। एक आदत। इससे छुटकारा पाने के लिए सक्रिय प्रयास करना पड़ता है। अन्यथा यह हमारी विकलता और अवसाद का कारण बन जाता है।

इसीलिये कृष्ण कहते हैं – योगस्थ कुरु कर्माणि। जो भी कर्म करो, एकदम ध्यानस्थ होकर करो, दत्तचित्त होकर करो।
लेकिन हमारी स्थिति भिन्न होती है। हमारी। एक दृष्टि कर्म पर रहती है, एक दृष्टि परिणाम पर। इसीलिये असफलता हमारी प्रतीक्षा करती रहती है।

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