अंतरात्मा की पुकार अनसुनी न करें

मनुष्य में जहाँ तक शारीरिक – मानसिक स्तर की अनेक विशेषताएँ हैं, वहीं उसकी वरिष्ठता इस आधार पर भी है कि उसमें “अंतरात्मा” कहा जाने वाला एक विशेष तत्व पाया जाता है। उसमें “उत्कृष्टता” का समर्थन और “निकृष्टता का विरोध करने की ऐसी क्षमता है जो अन्य किसी प्राणी में नहीं पाई जाती । जीव-जंतुओं में उनकी इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति के निमित्त ही कई प्रकार की प्रेरणा उठती हैं, इसमें उन्हें “नीति-अनीति” से कोई मतलब नहीं रहता ।

उदारता नाम की वस्तु मात्र मादाओं में उस सीमा या समय तक पाई जाती है, जब तक कि उनकी संताने असमर्थ रहती हैं या स्वावलंबी नहीं बनतीं। इस अवधि के समाप्त होने पर उनका महत्व समाप्त हो जाता है । यौन कार्य के समय भी नर – मादा में कुछ आकर्षण या सहयोग जैसा सौजन्य उभरता है, आवश्यकता पूर्ण होने पर वह भी आमतौर से विस्मृत होते देखा गया है, जोड़ा मिलाकर देर तक साथ-साथ रहने वाले तो कुछेक पक्षी ही पाए गए हैं ।

मनुष्य में स्नेह, सौजन्य, औचित्य, न्याय एवं उदार सद्भावना से भरे गुण पाए जाते हैं । यह किसी स्वार्थ या लाभ से प्रेरित होकर नहीं; वरन् अंतराल की गहरी परतों से उद्भूत होता और इतना प्रखर रहता है कि “आदर्शवादिता” के निमित्त कष्ट सहने या घाटा उठाने के लिए भी तत्परता बरती जा सके। यही “अंतरात्मा” है, जो “सत्कर्म” करने पर भीतर ही भीतर प्रसन्न होती, गर्व-संतोष प्रकट करती हुई देखी जाती है । अनीति अपनाते समय अंतर्मन विक्षुब्ध होता है और आत्मप्रताड़ना की पीड़ा अपने आप सहनी पड़ती है । भर्त्सना, प्रताड़ना का भय न हो तो भी दुष्कर्म करते समय भीतर जी काटता कचोटता है — “यही “अंतरात्मा” है । उसका प्रोत्साहन यह रहता है कि “आदर्शवादिता” अपनाई जाए और दूसरों के सामने “अनुकरणीय उदाहरण” प्रस्तुत किए जाएँ ।

तर्क या अर्थ विज्ञान की दृष्टि से “अंतरात्मा” की पुकारें घाटा देने वाली और झंझट में फँसाने वाली होती हैं । इतने पर भी कुछ ऐसी उमंगे उठती हैं, जिनके कारण मनुष्य उस कष्ट को तप-सेवा, पुण्य-परमार्थ कहकर उत्साह पूर्वक सहन कर लेता है । जबकि पशु प्रवृत्ति में ऐसी उदारता अपनाने की कोई गुंजाइश नहीं है । यदि है भी तो इतनी उथली और क्षणिक, जिसके कारण कोई इस प्रकार का महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा सकते । दूसरी और मनुष्य है जो इसी अंत:प्रेरणा से अनुप्राणित होकर त्याग बलिदान भरे उच्च स्तरीय उदाहरण प्रस्तुत करता और न्याय रक्षा के लिए निजी स्वार्थ न होने पर भी कष्ट झेलने का साहस करता देखा गया है । “अंतरात्मा” ही मनुष्य में विराजमान “परमात्मा” का प्रतीक प्रतिनिधि माना गया है ।

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