सावित्रीबाई फुलेः स्त्री शिक्षा की अग्रणी प्रणेता

दुनिया में लगातार विकसित और मुखर हो रही नारीवादी सोच की ऐसी ठोस बुनियाद सावित्री बाई और उनके पति ज्योतिबा ने मिल कर डाली, जिसने भारत में महिला शिक्षा एवं सशक्तिकरण की नींव रखी। वे दोनों कभी ऑक्सफोर्ड नहीं गये थे, बल्कि, उन्होंने भारत में रहते हुए ही भारतीय समाज की कुप्रथाओं को पहचान कर केवल उनका विरोध ही नहीं किया, बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया। उनके द्वारा दिखाये गये पदचिह्नों और बताये गये आदर्शों को अपने जीवन में साकार करें। तभी महिला शिक्षा एवं सशक्तिकरण का सपना सही मायनों में साकार हो सकेगा।

3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा ज़िले के नायगांव में जन्मीं सावित्री बाई फुले की शादी महज़ 9 साल की छोटी उम्र में पूना के रहने वाले ज्योतिबा फुले के साथ हो गयी थी। विवाह के समय सावित्री बाई फुले पूरी तरह अनपढ़ थीं, तो वहीं उनके पति तीसरी कक्षा तक पढ़े थे। जिस दौर में वो पढ़ने का सपना देख रही थीं, तब दलितों के साथ बहुत भेदभाव होता था। उस वक्त की एक घटना के अनुसार सावित्री बाई के लिए उनकी सबसे बहुमूल्य चीज़ उन्हें एक धर्मप्रचारक द्वारा दी गई पुस्तक थी। एक दिन सावित्री अंग्रेजी की किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिताजी ने देख लिया। वो दौड़कर आए और किताब हाथ से छीन कर घर से बाहर फेंक दी। दरअसल उस दौर में शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था, दलित और महिलाओं का शिक्षा ग्रहण करना पाप माना जाता था।

सावित्री बाई ने उसी रोज़ यह प्रण लिया कि कुछ भी हो जाये, वह एक-न-एक दिन पढ़ना जरूर सीखेंगी। वह किताब वापस लाकर पुन: पढ़ने बैठ गयीं। उस दौर में शूद्रों-अतिशूद्रों तथा लड़कियों का पढ़ना-लिखना सही नहीं माना जाता था। बावजूद इसके उन्होंने अपनी ज़िद, लगन और मेहनत के दम पर पहले अपनी शिक्षा पूरी की। उनके सीखने की चाह से प्रभावित होकर ज्योतिबा फुले ने सावित्री बाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। सावित्री बाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया। वह 1847 में अपनी चौथी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एक योग्य शिक्षक बनीं। इस तरह के विचारों का 19वीं सदी तक समाज पर गहरा असर था। 17 साल की उम्र में सावित्री बाई ने अमानवीय ब्राह्मणवाद के गढ़ पुणे में हजारों साल से चली आ रही व्यवस्था को चैलेंज किया। वह गंजी पेठ से भिडेवाड़ा तक ब्राह्मणवादी सनातन पुरुषों के हर अन्याय का डंके की चोट पर मुकाबला करते हुए लड़कियों और शूद्रों को पढ़ाने जाती थीं। उस दौर में यह सब करना इतना आसान नहीं था।

सावित्री बाई फुले जब महिलाओं को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं, तो अपने साथ दो साड़ियां लेकर जाती थीं। रास्ते में लोग उन्हें पत्थर मारते थे। उन पर गोबर या गंदगी फेंक देते थे। इसी कारण सावित्री बाई घर से जो साड़ी पहनकर निकलती थीं, वो अगर दुर्गंध से भर जाती थी, तो वह स्कूल पहुंच कर दूसरी साड़ी पहन लेती थीं। फिर लड़कियों को पढ़ाती थीं। इस तरह ब्राह्मण समाज द्वारा दोनों पति-पत्नी का जम कर विरोध किया गया, पर उन्होंने हार नहीं मानी। सावित्रीबाई ने छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल और विधवा विवाह निषेध के खिलाफ़ पति ज्योतिबा फूले के साथ मिल कर काम किया। लड़कियों के लिए महाराष्ट्र में कुल 18 स्कूल खोले। वर्ष 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश के सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना की, जहां वह भारत की पहली महिला अध्यापिका बनीं। उन्होंने 18वां स्कूल भी पुणे में ही खोला था। सावित्री बाई फुले एक कवयित्री भी थीं। उन्हें मराठी की आदि कवियत्री के रूप में भी जाना जाता है। उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने- लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने और ब्राह्मणवादी ग्रंथों को फेंकने की बात करती थीं।

शिक्षा पर लिखी सावित्रीबाई फूले की मराठी कविता का हिंदी अनुवाद :

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती,
काम करो – ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए, खाली न बैठो
जाओ जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिये गयों के दुखों का अंत करो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो
ब्राह्मणों ग्रंथों को जल्द-से-जल्द फेंक दो।

कथनी और करनी के फर्क को मिटा कर दिया संदेश

सावित्री बाई ने अपने पति ज्योतिबा से प्रेरणा लेकर अथक संघर्ष किया और कानूनों के ठेकेदारों को कड़ी टक्कर देकर भारतीय महिलाओं की मुक्ति का दरवाजा खोला। इस तरह सावित्री बाई फुले ने औरतों को ही नहीं, मर्दों को भी उनकी जड़ता और मूर्खता से आज़ाद किया। जिस ब्राह्मणवाद ने उन पर गोबर फेंके, उनके पति ज्योतिबा को पढ़ाने के लिए उनके पिता को इतना धमकाया कि पिता ने बेटे को घर से ही निकाल दिया। उस सावित्री बाई ने एक ब्राह्मण की जान बचायी। जब उससे एक महिला गर्भवती हो गयी। गांव के लोग दोनों को मार रहे थे। सावित्री बाई पहुंच गईं और दोनों को बचा लिया। उन्होंने आत्महत्या करने जाती हुई उस विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया। दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर इन्होंने डॉक्टर बनाया।

महिला शिक्षा के क्षेत्र में सावित्री बाई फूले का प्रमुख योगदान

वर्ष 1848 : भारत की पहली महिला अध्यापिका बनीं।

1848-1853 : पति ज्योतिबा फुले के साथ मिल कर लड़कियों के लिए एक शिक्षा समाज की स्थापना की और सभी वर्गों की लड़कियों व महिलाओं के लिए कुल 18 विद्यालय खोले। इसी वर्ष गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना भी की।

1852 : भारत में विधवाओं की दुर्दशा से सहानुभूति रखते हुए उनके लिए आश्रय स्थल खोला।

1864 : परिवार से निकाली गई बेसहारा स्त्रियों, विधवाओं और बालिका वधुओं के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह नाम से एक बड़े आश्रय स्थल का निर्माण करवाया।

1868 : ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने दलित वर्गों के पानी पीने के लिए अपने घर के पिछवाड़े में एक कुआं खोदा। उन लोगों को गांव के सार्वजनिक कुएं से पानी पीने की मनाही थी।

1890 : ज्योतिराव के निधन के बाद सभी सामाजिक नियमों की अवहेलना करते हुए सावित्री बाई ने उन्हें मुखाग्नि दी और ज्योतिराव की विरासत को आगे बढ़ाया तथा सत्यशोधक समाज का पदभार संभाला।

1897 : महाराष्ट्र में फैले बोबोनिक अथवा गिल्टी प्लेग से पीड़ितों के लिए पुणे के हड़पसर में एक दवाखाना खोला।

सभी वर्गों की समानता के लिए संघर्ष करनेवाले ज्योतिबा फुले के धर्मसुधारक संस्थान, सत्यशोधक समाज (1873) का विकास करने में अहम् भूमिका निभाई।

महिला शिक्षा की वर्तमान स्थिति

अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस 8 सितम्बर, 2009 को मानव संसाधन विभाग, भारत सरकार द्वारा शुरू किये गये ’साक्षर-भारत’ कार्यकम के केंद्र में महिलाएं ही थीं। इसका लक्ष्य 15 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लोगों की शिक्षा, विशेष रूप से महिला शिक्षा को समुन्नत और सुदृढ़ करना है। लेकिन, अफ़सोस कि तमाम योजनाओं एवं कोशिशों के बावजूद वर्ष 2011 जनगणना के अनुसार, देश में महिलाओं की करीब 80 फीसदी आबादी (7 से 29 वर्ष के बीच) निरक्षर है। इसके प्रमुख कारण हैं – आबादी के हिसाब से स्कूलों में शिक्षकों की कमी, शौचालयों का अभाव, ग्रामीण अंचलों में शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव, गरीबी एवं बेरोज़गारी आदि कुछ ऐसी परंपरागत समस्याएं हैं, जिनके समाधान के बिना पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। अगर आंकड़ों पर एक नजर डालें तो: –

सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम सर्वे द्वारा प्रस्तुत किये गये आंकड़ों के अनुसार, लगातार तीसरे वर्ष 15 से 49 वर्ष की महिलाओं की शिक्षा के आंकड़ों में बढ़ोतरी देखने को मिली। 2016 में यह आंकड़ा 84.8%, 2017 में 85.3% और 2018 में 87% रहा।
75वें राष्ट्रीय सर्वेक्षण आंकड़ों के अनुसार, देश में कुल साक्षरता 77.7% है। पुरुषों की साक्षरता 84.7% है तो वहीं महिलाओं में साक्षरता दर 70.3% है। यानि प्रत्येक 10 में से 3 महिलाएं कुछ भी लिख पढ़ नहीं सकतीं। देश में हर 10 में से सिर्फ 1 महिला ही कंप्यूटर ऑपरेट कर सकती है।

NSSO (2017-18) डेटा के अनुसार, देश के प्राथमिक विद्यालयों में कुल 85% बच्चियां और 87% बच्चे नामांकित हैं। उनमें से मात्र 57.3% बच्चियां ही हाईस्कूल तक पहुंच पाती हैं। हायर सेकंडरी तक 44% बच्चे ही पहुंच पाते हैं। कॉलेज तक आते-आते यह जेंडर गैप और भी बढ़ जाता है। 21% लड़के तो 18% लड़कियां ही कॉलेज पाते हैं।

The Status of Women in India नाम से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भले ही भारत में महिलाओं के साक्षरता दर में बढ़त हुई हो, लेकिन यहां के स्कूलों में महिला लेखिकाओं द्वारा लिखित शैक्षणिक सामग्री आज भी तुलनात्मक रूप से बेहद कम है।

दुनिया में लगातार विकसित और मुखर हो रही नारीवादी सोच की ऐसी ठोस बुनियाद सावित्री बाई और उनके पति ज्योतिबा ने मिल कर डाली, जिसने भारत में महिला शिक्षा एवं सशक्तिकरण की नींव रखी। वे दोनों कभी ऑक्सफोर्ड नहीं गये थे, बल्कि, उन्होंने भारत में रहते हुए ही भारतीय समाज की कुप्रथाओं को पहचान कर केवल उनका विरोध ही नहीं किया, बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम सावित्री बाई फुले को सिर्फ डाक टिकटों के लिए ही याद न करें, बल्कि उनके द्वारा दिखाये गये पदचिह्नों और बताये गये आदर्शों को अपने जीवन में साकार करें। तभी महिला शिक्षा एवं सशक्तिकरण का सपना सही मायनों में साकार हो सकेगा।

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