लोकमानस में श्रेष्ठता वाणी से नहीं आचरण से आती है

लोकमानस में “सद्ज्ञान” की प्रतिष्ठापना करने का कार्य हमें अपने व्यक्तिगत जीवन में सुधार एवं परिवर्तन करके ही संपन्न करना होगा । प्रवचन और लेख इस कार्य में सहायक तो हो सकते हैं, पर केवल उन्हीं के आधार पर अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति संभव नहीं । दूसरों पर वास्तविक प्रभाव डालने के लिए हमें अपना “अनुकरणीय आदर्श” उनके सामने उपस्थित करना होगा । संसार में बुराइयाँ इसलिए बढ़ रही हैं, कि बुरे आदमी अपने बुरे आचरणों द्वारा दूसरों को ठोस शिक्षण देते हैं । उन्हें देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि इस कार्य पर इनकी गहरी निष्ठा है ।

जुआरी जुआ खेलते हुए भारी हानि उठाने को तैयार रहते हैं, नशेबाज अपना स्वास्थ्य होम देते हैं, व्यभिचारी अपने धन और प्रतिष्ठा से हाथ धोते हैं, चोर डाकू राजदंड का त्रास भोगते हैं । इसी प्रकार अन्य बुरे लोग भी भारी खतरे उठाकर भी अपने प्रिय विषय में संलग्न रहते हैं । यही “निष्ठा” दूसरों पर प्रभाव डालती है और देखा-देखी अन्य व्यक्ति उनका अनुकरण करने लगते हैं ।

“सद्विचारों के प्रचारक” वैसे उदाहरण अपने जीवन में प्रस्तुत नहीं कर पाते। वे कहते तो बहुत कुछ हैं, पर ऐसा कुछ नहीं करते जिससे उनकी निष्ठा की सच्चाई प्रतीत हो। प्राचीन काल में साधु-ब्राह्मण धर्मोपदेश करने से पूर्व अपना जीवन उसी प्रकार का बनाते थे, जिससे संपर्क में आने वालों को उनकी निष्ठा की गहराई का पता चल जाए और वे यथासंभव अनुकरण का प्रयत्न करते हुए अपनी बुराइयों को छोड़ने के लिए अंतःप्रेरणा विकसित कर सकें । बुराई त्यागने और अच्छाई ग्रहण करने का कठिन कदम कोई तब उठाता है, जब वैसे ही दूसरे उदाहरण भी सामने उपस्थित हों और उनसे आवश्यक प्रेरणा प्राप्त हो ।

हमें अपने आप का सुधार करने का कार्यक्रम आरंभ करते हुए लोकसेवा की महान प्रक्रिया का आरंभ करना होगा । “युग परिवर्तन” का पहला कार्य है — “अपना परिवर्तन” । “हम बदलेंगे” तो हमारी “दुनिया भी बदलेगी” । शुभ कार्य अपने घर से आरंभ होते हैं । समाज सुधारने के लिए, संसार को सुधारने के लिए, हमें अपना व्यक्तिगत जीवन सुधारने के लिए अग्रसर होना होगा ।

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