सामाजिक प्रगति के लिए धर्म बुद्धि आवश्यक

मनुष्य हाड़-मांस का पुतला, एक तुच्छ प्राणी मात्र है, उसमें न कुछ विशेषता है न न्यूनता । उच्च भावनाओं के आधार पर वह देवता बन जाता है, तुच्छ विचारों के कारण वह पशु दिखाई पड़ता है और निकृष्ट “पापबुद्धि” को अपना कर वह असुर एवं पिशाच बन जाता है । इस लोक में जो कुछ सुख-शांति, समृद्धि और प्रगति दिखाई पड़ती है, वह सब सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का परिचय है । जितनी भी उलझनें, पीड़ाएँ और कठिनाइयाँ दीखती हैं, उनके मूल में कुबुद्धि का विष बीज ही फलता-फूलता रहता है । सैकड़ों, हजारों वर्ष बीत जाने पर भी पुरानी ऐतिहासिक इमारतें लोहे की चट्टान की तरह आज भी अडिग खड़ी हैं , पर हमारे बनाए हुए बाँध, स्कूल, पुल बनकर कुछ ही दिनों में बिखरना शुरु हो जाते हैं । सामान और ज्ञान दोनों ही आज पहले की अपेक्षा अधिक उच्च कोटि का उपलब्ध है, पर उस लगन की कमी ही दिखाई पड़ती है जिसके कारण प्राचीन काल में लोग स्वल्प साधन होते हुए भी बड़ी बड़ी मजबूत चीजें बनाकर खड़ी कर देते थे।

जब तक मजदूर ईमानदारी से काम न करेंगे, कोई कारखाना पनप न सकेगा । जब तक चीजें अच्छी और मजबूत न बनेंगी, उनसे किसी खरीदने वाले को लाभ न मिलेगा । जब तक विक्रेता और व्यापारी मिलावट, कम तोल-नाप, मुनाफाखोरी न छोडेंगे, तब तक व्यापार की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी । सरकारी कर्मचारी जब तक अहंकार, रिश्वत, कामचोरी और घोटाला करने की प्रवृत्ति न छोड़ेंगे, तब तक शासन तंत्र का उद्देश्य पूरा न होगा । यह सत्प्रवृत्तियाँ इन वर्गों में अभी उतनी नहीं दिखाई देती, जितनी होनी चाहिए । यही कारण है कि हमारी प्रगति अवरुद्ध बनी पड़ी है । साधनों की कमी नहीं है, आज जितना ज्ञान, धन और श्रम साधन अपने पास मौजूद है, उनका सदुपयोग होने लगे तो सुख सुविधाओं की अनेक गुनी अभिवृद्धि हो सकती है।

“आत्म-कल्याण” की लक्ष्य पूर्ति तो सर्वथा “सत्प्रवृत्तियों” पर ही निर्भर है । ईश्वर का साक्षात्कार, स्वर्ग एवं मुक्ति को प्राप्त कर सकना केवल उन्हीं के लिए संभव है, जिनके विचार और कार्य उच्चकोटि के, आदर्शवादी एवं परमार्थ भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। भगवान घटघट वासी है । वे भावनाओं को परखते हैं और हमारी प्रवृत्तियों को भली-भाँति जानते हैं, उन्हें किसी बाह्य उपचार से बहकाया नहीं जा सकता।

लौकिक और पारलौकिक, भौतिक और आत्मिक कल्याण के लिए उत्कृष्ट भावनाओं की अभिवृद्धि नितांत आवश्यक है । प्राचीन काल में जब भी अनर्थ के अवसर आये हैं, तब उनका कारण मनुष्य की “स्वार्थपरता” एवं “पापबुद्धि” ही रही है और जब भी सुख-शांति का आनंदमय वातावरण रहा है, उसके पीछे “सद्भावनाओं” का बाहुल्य ही मूल कारण रहा है । आज भी हमारे लिए वही मार्ग शेष है । इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग न पहले था और न आगे रहेगा । सभ्य समाज की स्थिति जब-जब रही, तब “धर्म-बुद्धि” की ही प्रधानता रही है । हमें वर्तमान दुर्दशा से ऊँचे उठने के लिए जनमानस में गहराई तक “धर्म-बुद्धि” की स्थापना करनी होगी । इसी आधार पर विश्वव्यापी “सुख-शांति” का वातावरण सकना संभव होगा ।

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