कैसा भारत चाहते हैं संघ प्रमुख 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत द्वारा पांचजन्य को दिए साक्षात्कार में केवल एक अंश बहस का विषय बना जिसमें उन्होंने कहा कि मुसलमानों को डरने की आवश्यकता नहीं है। उनका कहना था कि मुसलमानों में स्वयं को शासक मानने वाले उस मानसिकता से बाहर आकर सामान्य नागरिक के नाते मिलजुल कर रहने की सोच से भूमिका निभानी चाहिए। संघ के वक्तव्य में प्रायः हिंदू-मुस्लिम ढूंढने वालों के लिए वही महत्वपूर्ण था। संघ भारत की उस सनातन सोच के अनुरूप एक जन, एक राष्ट्र की बात करता है और इसी अनुरूप अलग-अलग मज़हबों, पंथों, के बारे में भी अपनी राय रखता है। मोहन भागवत के उत्तर का अर्थ इतना ही था कि मजहब, पंथ, संप्रदाय, उपासना पद्धति और स्वयं को विशिष्ट मानने की सोच से बाहर आकर सभी भारत के पुत्र के नाते विचार कर कार्य करें। 

उनका साक्षात्कार विस्तृत है जिसमें संघ की कल्पना, अलग-अलग संगठनों विचारधारा के लोगों के साथ उसका व्यवहार, भारत का भविष्य आदि सभी बातें थी जो गणतंत्र दिवस के पूर्व देश के सबसे बड़े संगठन के प्रमुख की ओर से आनी चाहिए थी। उनके पूरे साक्षात्कार को साथ मिलाकर देखना होगा न कि उनकी कुछ पंक्तियों को अपने अनुसार उद्धृत करके।

• सबसे पहले हिंदुत्व । उन्होंने कहा कि हिन्दू हमारी पहचान है, राष्ट्रीयता है, प्रवृति है। लेकिन मेरा ही सही, तुम्हारा गलत, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जगह, तुम्हारा ठीक, मेरी जगह मेरा ठीक। झगड़ा क्यों करें, मिलकर चलें। सबको अपना मानने की, साथ लेकर चलने की प्रवृति। यही हिन्दुत्व है। असहमति के बीच सहमति और विविधता में एकता का इससे बेहतर व्यवहारिक सूत्र क्या हो सकता है? हिंदुत्व पर बार-बार प्रश्न उठाने वाले को भागवत की व्याख्या में निहित भावना को समझना चाहिए।

• विरोधियों के बारे में भी उनका मत इसी विचार को आगे बढ़ाता है। वे कहते हैं कि विरोध का हम सामना करके बाहर निकले लेकिन हमें इसमें किसी का विरोधी नहीं बनना है। कैसी भी परिस्थिति हो हम किसी के विरोधी नहीं हो इसी दिशा का ध्यान रखते हुए रास्ता ढूंढना पड़ेगा। चूंकि संघ का लगातार विरोध होता है तो स्वयंसेवक और अन्य लोग भी उसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया देकर मोर्चाबंदी की स्थिति बनाते हैं। उन्होंने इसी भाव को दूर करने के लिए दिशा दिया है । इसमें कहां नफरत और अपने विरोधियों को नष्ट करने का भाव है?

• संघ को अलग संगठन मानने वाले के बारे में वे कहते हैं कि हिन्दुओं के बारे में काम करने वाले अनेक लोग हैं। एक और अलग धड़ा बनाने का विचार नहीं है। हम उनको ही मजबूत करेंगे।

• इसको विस्तारित करते हुए उन्होंने संघ और समाज के संबंधों पर भी चर्चा की।  संघ और समाज में एक अच्छा,पक्का, मधुर संबंध है। आगे संघ का कार्य सर्वव्यापी हो यानी समाज और संघ एकाकार दिखे। हिन्दू समाज में जिस प्रकार का परिवर्तन चाहिए,तालमेल चाहिए, समाज की एक संगठित अवस्था लाने के लिए आगे काम होगा। संघ के स्वयंसेवक भी करें, समाज के सज्जन भी करें। सब मिलकर अपने समाज को ऐसा खड़ा करते हुए देश को परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने का काम आगे बढ़ाएं। यानी जो लोग भी भारत के अभ्युदय के लिए काम कर रहे हैं उन सबको शक्ति देते हुए मिलकर लक्ष्य को पाना है।

• हां ,विरोधियों के बारे में उन्होंने कहा है कि हिंदुओं के जागरण से जिनके लिए समस्याएं पैदा हुई है वो हो हल्ला कर रहे हैं। इसलिए उसमें उलझने की बजाय सब मिलकर काम करें। जागृत हिंदू समाज इसे भी देख लेगा और जो रास्ता निकालेगा उसमें सब साथ मिलकर ही चलेंगे। हम भी मानते हैं कि हिंदू समाज का चरित्र कभी भी किसी को पर आधिपत्य करने की नहीं प्रेम और सहकार की रही है।

सरसंघचालक की बातें स्वयंसेवकों और सभी अनुषांगिक संगठनों के लिए मार्ग निर्देश की तरह होती है। यह तो है नहीं कि वो निर्देश दे रहे हो मिलकर काम करने की और शिक्षा चल रही हो विरोधियों को खत्म करने की। ऐसा होता तो संगठन कब का खत्म हो चुका होता। संघ 98 वर्ष में प्रवेश कर चुका है और सतत उसका स्वयं और अलग-अलग संगठनों के रूप में विस्तार होता गया है तो इसका कारण इसी में निहित है कि कथनी और करनी में समानता है।

अब भारत के भविष्य की ओर आते हैं। उनका मानना है किभारत का भविष्य उज्जवल है किंतु हमारी स्वयं की जिम्मेदारियां ज्यादा बड़ी है।  हिंदुओं के जगह-जगह से पलायन करने का भी डर पैदा किया जाता है।  सदियों के कालखंड में भारत के अनेक विभागों से हिंदुओं को पलायन करना पड़ा यहां तक कि 15 अगस्त, 1947 के विभाजन में भी  गैर मुस्लिमों को शरणार्थी बनकर आना पड़ा।

इस संदर्भ में उन्होंने कई बातें कहीं।

•एक, अब वह परिस्थिति नहीं कि हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता कोई छीन ले।

यह हकीकत है की भारत आज विश्व शक्ति के रूप में खड़ा है तो इसको गुलाम बनाने कि सोचने की कोई हिमाकत नहीं कर सकता।

•दो,इस देश में हिन्दू रहेगा, हिंदू जाएगा नहीं, यह अब निश्चित हो गया है।

•तीन,हिंदुओं में व्यापक जागृति आई है। भागवत की बात सच है ।अभी तक पाठ्य पुस्तकों एवं वातावरण के कारण धर्म संस्कृति और यहां तक कि भारत के इतिहास को लेकर भी हम हीन मानसिकता से ग्रस्त है। जैसे-जैसे सच आया है लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है।

• चार,भागवत कहते हैं कि  इसका उपयोग करके हमें अंदर की लड़ाई में विजय प्राप्त करना, और हमारे पास जो समाधान है, वह प्रस्तुत करना है।

सबसे पहले संघर्ष और विजय।

वह इस सच को मानते हैं कि हिन्दू समाज लगभग हजार वर्ष से विदेशी लोग, विदेशी प्रभाव और विदेशी षड्यंत्र से एक लड़ रहा है। इसमें वे संघ के साथ दूसरे संगठनों और लोगों के काम को भी स्वीकार करते हैं। इस बारे में दूसरे लोगों ने जो कहा है उसको स्वीकार करते हुए वे कहते हैं कि उसके चलते हिंदू समाज जाग्रत हुआ है। स्वाभाविक है कि लड़ना है तो दृढ़ होना ही पड़ता है। किंतु लड़ाई का लक्ष्य किसी को नष्ट करना और अपने लिए कुछ प्राप्ति नहीं। इसी में वे कहते हैं’ निराशी: निर्मम: भूत्वा, युध्यस्व विगत-ज्वर: अर्थात् आशा-कामना को, मैं एवं मेरेपन के भाव को छोड़कर, अपने ममकार के ज्वर से मुक्त होकर युद्ध करो। मानते हैं की सब लोग ऐसा नहीं कर सकते लेकिन इसके प्रति जागृत करते रहना होगा क्योंकि हमारे युद्ध का लक्ष सबका कल्याण है।

संघर्ष और निर्माण दोनों साथ साथ होना चाहिए। सिद्धांत के साथ व्यवहार की रूपरेखा भी चाहिए। वे कहते हैं आज हम ताकत की स्थिति में हैं, तो हमें वह बात करनी पड़ेगी अगर अभी नहीं, लेकिन पचास साल बाद हमें यह करना पड़ेगा। पचास साल बाद हम कर सकें, इसलिए अभी से कुछ बनाना पड़ेगा।

इसका अर्थ क्या है? यही कि हिंदुत्व के आधार पर हम व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की जो कल्पना करते हैं उसका साकार रूप रखना और उसके अनुरूप काम कर लोगों के विश्वास को मजबूत करना है। भारत का एक बड़ा लक्ष्य आत्मनिर्भरता है । आत्मनिर्भरता का अर्थ वही नहीं जो आमतौर पर समझा जाता है। • ऐसा अलग रास्ता देना जो भौतिक सुख भी प्रदान करता हो, सुरक्षा, जीवन के भविष्य की गारंटी भी देता हो और संतोष भी पैदा करता हो, शांति भी पैदा करता हो।

हमको अपनी आत्मा को समझकर उसके आधार पर एक नया रचित खड़ा करना पड़ेगा या नई रचनाएं खड़ी करनी पड़ेंगी। हमको अपना विचार पूरी तरह औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होकर, अपने आधार पर करना पड़ेगा।

यानी आत्मनिर्भरता की जो परिभाषा दी गई है उससे अलग मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य आत्मा की मुक्ति और शांति उसकी दृष्टि से संपूर्ण भौतिक व्यवस्था होनी चाहिए।

 विज्ञान एवं तकनीक पर बातें भी उन्होंने की। विश्व के अनेक चिंतक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर चेतावनी दे रहे हैं कि उसे मनुष्य का विकल्प बनाने से खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है। भागवत भी यही कहते हैं कि मशीनों की भूमिका जितनी होनी चाहिए उतनी ही रहनी चाहिए। मुख्य लक्ष्य का ध्यान रखते हुए ही  विज्ञान की प्रगति से जो लेना हो वह लिया जाए। विज्ञान का अंधानुकरण नहीं।

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि संघ का विचार भारत के संदर्भ में कुछ अलग है। भागवत ने स्पष्ट किया है कि संघ का विचार अलग नहीं, वही  है जो हमारे मनीषियों ने पहले से रखा है। उदाहरण के लिए अगर हम पारिवारिक जीवन की आवश्यकता की बात करते हैं तो अब धीरे-धीरे भारत सहित विश्व के उन लोगों को भी परिवार की महत्ता समझ में आई है।

भागवत समय-समय पर पिछले कुछ सालों में ऐसे वक्तव्य देते रहे हैं जिनसे देश और विश्व भर में फैल रहे संघ के स्वयंसेवकों, अनुषांगिक संगठनों तथा आम हिंदू समाज की सचेतनता बनी रहे। हिंदुत्व के नाम पर अतिवादी बयानों के विरुद्ध भी उन्होंने आवाज उठाई है। सन 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में उन्होंने संघ के संपूर्ण विचार रखे और उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दिए थे। उनका यह साक्षात्कार नए सिरे से भविष्य के संकेतक के रूप में देखा जाएगा।

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