बाबा राममंगलदास उच्च कोटि के एक सिद्ध महात्मा थे। उनके मन में श्रीराम और श्री अयोध्या जी के प्रति अत्यधिक अनुराग था। उनका जन्म 13 फरवरी, 1893 को ग्राम ईसरबारा, जिला सीतापुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। पुत्र तथा पत्नी के अल्प समय में ही वियोग के कारण इनका मन संसार से विरक्त हो गया। अतः ये घर छोड़कर अयोध्या आ गये।
उन दिनों अयोध्या में एक सिद्ध सन्त बेनीमाधव जी रहते थे। राममंगलदास जी उनसे दीक्षा लेकर उनके बताये मार्ग से साधना करने लगे। कड़ी धूप में या भूसे के ढेर में गले तक बैठकर ये जप करते थे। कहते हैं कि हनुमान् जी ने इन्हें दर्शन दिये थे। इनके गुरुजी ने इनसे कहा कि अयोध्या प्रभु श्रीराम जी का घर है, अतः तुम यहाँ किसी से एक इ॰च भूमि दान में मत लेना। मृत्यु के समय तुम्हारे पास एक पैसा भी नहीं निकलना चाहिए। बाबा राममंगलदास जी ने उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया।
बाबा जी ने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उन्हें खेचरी विद्या सिद्ध थी। वे निर्धन-धनवान, स्त्री-पुरुष तथा सब धर्म वालों को एक दृष्टि से देखते थे तथा निर्धनों को सदा अन्न-वस्त्र वितरण करते रहते थे। आयुर्वेदिक दवा एवं जड़ी-बूटियों से उन्होंने कई असाध्य रोगियों को ठीक किया। दवा के साथ वे उन्हें श्रीराम नाम का जप करने को कहते थे। उनकी मान्यता थी कि लाभ तो जप से होता है, दवा उसमें कुछ सहायता अवश्य करती है।
एक बार एक महाशय आये और बोले, मैं किसी विद्वान से प्रभु चर्चा करना चाहता हूँ। बाबा जी ने कहा कि अयोध्या में सब विद्वान हैं, आप चाहे जिससे चर्चा कर लें। इसी समय उनका एक सेवक वहाँ आ गया। बाबा जी ने उन सज्जन से कहा कि फिलहाल आप इसी से चर्चा करें। इतना कहकर उन्होंने सेवक के सिर पर हाथ रखा। इसके बाद तो उस सेवक ने उन महाशय की सब शंकाओं का शास्त्रीय समाधान कर दिया। उन विद्वान सज्जन का अहंकार गल गया और वे बाबा जी के चरणों में गिर पड़े।
बाबा जी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं, पर वे उनका प्रदर्शन नहीं करते थे। उन्होंने निद्रा को जीत लिया था। वे कई वर्ष बिना सोये रहे। उन्हें अदृश्य होने की विद्या भी प्राप्त थी। प्रायः वे कहते थे कि माता-पिता की सेवा ईश्वर-सेवा से भी अधिक फलदायी है। असहाय, दीन-हीन और बीमार प्राणी की निःस्वार्थ सेवा से भगवान की प्राप्ति हो सकती है।
बाबा जी के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से सन्त, महात्मा तथा गृहस्थ जन आते थे। वे सबको राम-नाम जपने का उपदेश देते थे। उनका जीवन बहुत सादा था। वे सदा बिना बिछौने की चौकी पर बैठते और सोते थे। अपने शरीर की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। प्रभु को भोग लगाकर वे सूखी रोटी और दाल प्रसाद रूप में ग्रहण करते थे। कितना भी कष्ट हो; पर वे सदा प्रसन्न ही रहते थे। यह उनका स्वभाव बन गया था।
वे कहते थे कि साधु का आचरण मर्यादित और त्यागमय होना चाहिए। वे आचरण की पवित्रता को सबसे बड़ी साधना मानते थे। 31 दिसम्बर, 1984 को परमहंस बाबा राममंगलदास जी ने श्री अयोध्या धाम में ही अपनी लीला समेट ली। बाबा द्वारा रचित ‘भक्त-भगवन्त चरितावली एवं चरितामृत’ नामक ग्रन्थ की गणना अध्यात्म क्षेत्र के महान् ग्रन्थ के रूप में की जाती है।
संकलन – विजय कुमार