फेक नैरेटिव के युग में काशी का सार्थक शब्दोत्सव

संस्कृति, हिन्दुत्व और आधुनिकता’ पर बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू विवि की कुलपति प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने कहा कि आधुनिक हिन्दूत्व और हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी ताकत हमारी इंटीग्रल यूनिटी है। वहीं अब्राहमिक मजहबों के पास सिंथेटिक यूनिटी है। इसलिए उन्हें धर्मांतरण की आवश्यकता पड़ती है। हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। पश्चिम के अब्राहमिक मजहब विविधता और मत भिन्नता से डरते हैं। हिन्दुत्व और भारतीय परंपरा में हम इसके समर्थक हैं। जिसे छह डी से समझते हैं। डेवलपमेंट (विकास), डेमोक्रेसी (लोकतंत्र), डिफरेंस (अंतर), डिसेन्ट (असहमति), डायवर्सिटी (विविधता) और डायलॉग (संवाद)। हमने देखा है कि आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्रा के बीच शास्त्रार्थ हुआ। वहां मंडन मिश्रा की पत्नी निर्णायक बनी। मुझे नहीं लगता है कि पश्चिम को हमें महिला अधिकार और दूसरे विषयों पर शिक्षा देनी चाहिए।

आजादी के बाद भारतीय फिल्मों का इप्टा काल

वरिष्ठ पत्रकार फिल्म समीक्षक अनंत विजय ने ‘भारतीय सिनेमा के विभिन्न दौर’ विषय पर कहा कि हिन्दी फिल्मों का काल विभाजन करें तो हमारा प्रारंभिक सिनेमा का काल भक्ति काल के तौर पर याद किया जाएगा। ऐसे तमाम पौराणिक चरित्रों को पर्दे पर जीवंत किया हमारे पूर्व फिल्मकारों ने जिनकी वजह से आज सिनेमा के लोग पुन: उस दिशा में जाने का प्रयास करते हैं। अनंत विजय ने आगे कहा: ‘जिनको लगता है कि फिल्मों का सामाजिक प्रभाव नहीं है, वह सिर्फ मनोरंजन के लिए देखा जाता है। उन्हें गांधी और पटेल के संबंध में पढ़ना चाहिए कि गांधी किस तरह से फिल्मों को स्वतंत्रता प्राप्ति की राह में बाधा मानते थे। इसलिए उन्होंने अपने जीवन काल में कोई भी फिल्म नहीं देखी। लोग कहते हैं कि रामराज्य देखी लेकिन उसका प्रमाण कहीं उपलब्ध नहीं है। दूसरी तरफ सरदार पटेल फिल्मों को ना सिर्फ संरक्षण दे रहे थे बल्कि फिल्मों के प्रदर्शन में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न ना हो, इसकी व्यवस्था भी करते थे। जब एक पत्रिका के संपादक ने व्ही शांताराम की एक फिल्म रूकवाने के लिए दिल्ली में अपने समर्थकों से पोस्टर लगवाए थे तो इस बात का प्रमाण नेशनल फिल्म अर्काव्स आफ इंडिया की पत्रिकाओं में है कि सरदार पटेल ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को फोन कर कहा कि यह सारे विरोध के पोस्टर हट जाने चाहिए और फिल्म प्रदर्शन निर्बाध गति से होना चाहिए।’

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