राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के धुर-से-धुर विरोधी एवं आलोचक भी कदाचित इस बात को स्वीकार करेंगें कि संघ विचार-परिवार जिस सुदृढ़ वैचारिक अधिष्ठान पर खड़ा है उसके मूल में माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी के विचार ही बीज रूप में विद्यमान हैं। संघ का स्थूल-शरीरिक ढाँचा यदि डॉक्टर हेडगेवार की देन है तो उसकी आत्मा उसके द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी के द्वारा रची-गढ़ी गई है। उनका वास्तविक आकलन-मूल्यांकन होना अभी शेष है, क्योंकि संघ-विचार परिवार के विस्तार और व्याप्ति का क्रम आज भी लगातार जारी है।
किसी भी नेतृत्व का मूल्यांकन तात्कालिकता से अधिक उसकी दूरदर्शिता पर केंद्रित होता है। यह उदार मन से आकलित करने का विषय है कि एक ही स्थापना-वर्ष के बावजूद क्या कारण हैं कि तीन-तीन प्रतिबंधों को झेलकर भी संघ विचार-परिवार विशाल वटवृक्ष की भाँति संपूर्ण भारतवर्ष में फैलता गया, उसकी जड़ें और मज़बूत एवं गहरी होती चली गईं, वहीं तमाम अंतर्बाह्य आर्थिक-संस्थानिक-व्यवस्थागत सहयोग-संरक्षण पाकर भी वामपंथ लगातार सिकुड़ता चला गया। संघ के इस विश्वव्यापी विस्तार एवं व्याप्ति के पीछे श्री गुरूजी का मौलिक एवं दूरदर्शी चिंतन, ध्येयनिष्ठ-निःस्वार्थ-अनुशासित जीवन, अभिनव दैनिक शाखा-पद्धत्ति और व्यक्ति निर्माण की अनूठी योजना कारणरूप में उपस्थित रही है। क्या साधना के बिना सिद्धि, साहस-संघर्ष के बिना संकल्प और प्रत्यक्ष आचरण के बिना प्रभाव की प्रप्ति संभव है? श्री गुरूजी में ऐसे सभी दुर्लभ गुण एकाकार थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था।
संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार द्वारा सन 1940 में संघ का दायित्व सौंपे जाने के बाद उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन करते हुए स्वतंत्रता-आंदोलन में संघ की रचनात्मक-विधायक भूमिका सुनिश्चित की। मातृभूमि के लिए किए जा रहे कार्यों का श्रेय न लेना संघ के उल्लेखनीय संस्कारों में से प्रमुख है। स्वाभाविक है कि भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के बावजूद संघ के स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्त्ताओं ने कभी उसका श्रेय नहीं लिया। देश का विभाजन न हो, इसके लिए संघ प्राणार्पण से प्रयासरत रहा। पर जब विभाजन और उससे उपजी भयावह त्रासदी को देश और देशवासियों पर थोप दिया गया, जब अखंड भारतवर्ष के लाखों हिंदूओं को अपनी जड़-ज़मीन-ज़ायदाद-जन्मस्थली को छोड़कर विस्थापन को विवश होना पड़ा, जब एक ओर सामूहिक नरसंहार जैसी सांप्रदायिक हिंसा की भयावह-अमानुषिक घटनाएँ तो दूसरी ओर सब कुछ लुटा शरणार्थी शिविरों में जीवन बिताने की नारकीय यातनाएँ ही जीवन की अकल्पनीय-असहनीय-कटु वास्तविकता बनकर महान मानवीय मूल्यों एवं विश्वासों की चूलें हिलाने लगीं, ऐसे घोर अंधेरे कालखंड और प्रतिकूलतम परिस्थितियों के मध्य संघ ने अकारण शरणार्थी बना दिए गए उन लाखों विस्थापित-शरणार्थी हिंदुओं की जान-माल की रक्षा के लिए अभूतपूर्व-ऐतिहासिक कार्य किया।
श्री गुरूजी स्वयं उन शरणार्थी शिविरों में जा-जाकर लोगों को सांत्वना व दिलासा देते रहे, उनकी यथासंभव सहायता करते रहे। महाराजा हरिसिंह को समझा-बुझाकर जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करवाने में उनका निर्णायक योगदान था और जब पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के वेश में जम्मू-कश्मीर पर हमला किया तब उनके दिशानिर्देशन में ही संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्र के जागरूक प्रहरी की भूमिका निभाते हुए भारतीय सेना की यथासंभव सहायता की। संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्र-रक्षा में सजग-सन्नद्ध प्रहरी की इस भूमिका का निर्वाह 1962 और 1965 के युद्ध में भी किया। उल्लेखनीय है कि युद्ध सेना तो अपने दम पर लड़ती ही लड़ती है, पर युद्ध में जय बोलने वालों, उसका मनोबल बढ़ाने वालों और उसका सहयोगी-तंत्र बनने वालों का भी अपना महत्त्व होता है। 1948 में गाँधी जी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या का आरोप मढ़कर जब संघ को 18 महीने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया और श्री गुरूजी को जेल में डाल दिया गया, तब भी वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने हार नहीं मानी, न डरे, न झुके, न समझौता किया। संघर्षों की उस आग में तपने के पश्चात वे और संघ दोनों कुंदन की तरह निखरे-दमके और चहुँ ओर अपनी कीर्त्ति-रश्मियाँ बिखेरीं।
वह एक ऐसा निर्णायक दौर था, जब गुरुजी की एक चूक या भूल संघ की दशा-दिशा को सदा-सर्वदा के लिए प्रभावित कर सकती थी। वे चाहते तो प्रतिबंध की प्रताड़ना को झेलने के पश्चात संघ को एक राजनीतिक दल के रूप में परिणत कर सकते थे। उसे सत्ता-संधान या तदनुकूल परिस्थितियों तक सीमित कर सकते थे। पर नहीं, उन्होंने अभूतपूर्व दूरदर्शिता का परिचय देते हुए संघ को राजनीतिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में विकसित किया। क्योंकि यह सत्य है कि व्यापक मानवीय संस्कृति का एक प्रमुख आयाम होते हुए भी राजनीति प्रायः तोड़ती है, संस्कृति जोड़ती है, राजनीति की सीमाएँ हैं, संस्कृति की अपार-अनंत संभावनाएँ हैं। कदाचित गुरुजी इसे जानते थे। यह उनके द्वारा दी गई दृष्टि का ही सुखद परिणाम है कि देश-धर्म-संस्कृति की रक्षा हेतु प्रतिरोधी स्वर को बुलंद करने के बावजूद संघ का मूल स्वर और स्वरूप विधायी एवं रचनात्मक है, प्रतिक्रियावादी नहीं। वह सृजन, साधना और निर्माण का स्वर है।
यह अकारण नहीं है कि राष्ट्र के सम्मुख चाहे कोई संकट उपस्थित हुआ हो या कोई आपदा-विपदा आई हो, संघ के स्वयंसेवक स्वयंप्रेरणा से सेवा-सहयोग हेतु अहर्निश प्रस्तुत एवं तत्पर रहते हैं। प्राणों की परवाह किए बिना कोविड-काल में किए गए सेवा-कार्य उसके ताज़ा उदाहरण हैं। संघ के स्वयंसेवकों ने यदि सदैव एक सजग-सन्नद्ध-सचेष्ट प्रहरी की भूमिका निभाई है तो उसके पीछे राष्ट्र को एक जीवंत भावसत्ता मानकर उसके साथ तदनुरूप एकाकार होने का दिव्य भाव उन्होंने ही स्वयंसेवकों में जागृत-आप्लावित किया था। यह कम बड़ी बात नहीं है कि एक ऐसे दौर में जबकि चारों ओर बटोरने-समेटने-लेने की प्रवृत्ति प्रबल-प्रधान हो, संघ के स्वयंसेवक देने के भाव से प्रेरित-संचालित-अनुप्राणित हो राष्ट्रीय-सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों में योगदान देकर जीवन की धन्यता-सार्थकता की अनुभूति करते हैं।
संघ का पूरा दर्शन ही ‘मैं नहीं तू ही’, ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’, ‘याची देही याची डोला’ के भाव पर अवलंबित है। संघ समाज के विभिन्न वर्गों-खाँचों-पंथों-क्षेत्रों-जातियों को बाँटने में नहीं, जोड़ने में विश्वास रखता है। वह बिना किसी नारे, मुहावरे और आंदोलन के अपने स्वयंसेवकों के मध्य एकत्व का भाव विकसित करने में सफल रहा है। गाँधीजी और बाबा साहेब आंबेडकर तक ने यों ही नहीं स्वयंसेवकों के मध्य स्थापित भेदभाव मुक्त व्यवहार की सार्वजनिक सराहना की थी। संघ संघर्ष नहीं, सहयोग और समन्वय को परम सत्य मानकर कार्य करता है। उसकी यह सहयोग-भावना व्यष्टि से परमेष्टि तथा राष्ट्र से संपूर्ण चराचर विश्व और मानवता तक फैली हुई है। छोटी-छोटी अस्मिताओं को उभारकर अपना स्वार्थ साधने की कला में सिद्धहस्त लोग और विचारधाराएँ संघ द्वारा प्रस्तुत व्यापक राष्ट्रीय-मानवीय अस्मिता के विरुद्ध जान-बूझकर कुप्रचार फैलाती हैं।
वस्तुतः संघ जिस हिंदुत्व और राष्ट्रीयता की पैरवी करता है, उसमें संकीर्णता नहीं, उदारता है। उसमें विश्व-बंधुत्व की भावना समाहित है। उसमें यह भाव समाविष्ट है कि पुरखे बदलने से संस्कृति नहीं बदलती। जब-जब राष्ट्र की एकता-अखंडता, संघ के व्यापक विस्तार, वैश्विक व्याप्ति की चर्चा होगी श्री गुरूजी याद आएँगें, क्योंकि उसकी इस सफल-गौरवशाली यात्रा की नींव में उनके विचार ही ठोस आधारशिला एवं प्रेरणा-पाथेय के रूप में विद्यमान हैं।