खुद ही खुद को गढ़ना होगा…

हर वर्ष 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। कई वर्षों से यह भारत में भी मनाया जा रहा है। हालांकि यह भारत की सांस्कृतिक देन नहीं है क्योंकि जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ, जन्मतिथि और पुण्यतिथि के अलावा हमारे यहां व्यक्ति विशेष से सम्बंधित दिवस नहीं होते। महिला दिवस न मनाए जाने के पीछे एक भाव यह भी था कि महिलाओं का सम्मान किसी एक दिन नहीं, बल्कि हर दिन, हर पल होना चाहिए। परंतु वास्तविकता यह है कि विश्व के साथ-साथ भारत में आज भी महिलाएं इससे वंचित हैं, इसलिए परिवर्तन की बयार में भारत ने भी इसे अपना लिया है।

इस वर्ष के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम है ‘एम्ब्रेस इक्विटी’ अर्थात ‘सहभागिता को अपनाओ’ तथा ‘डिजिट ऑल: इनोवेशन एंड टेक्नॉलजी फॉर जेंडर इक्वेलिटी’ अर्थात ‘डिजिटऑल: लैंगिक समानता के लिए नवाचार और प्रौद्योगिकी।’ सुनने में तो इक्वेलिटी और इक्विटी लगभग समान ही लगते हैं, अर्थ भी लगभग समान है परंतु यथार्थ के धरातल पर जब इसका अवलम्बन करने की बात आती है तो अंतर जमीन आसमान का हो जाता है।

लैंगिक समानता का अर्थ है पुरुष और महिला को समान मानना और इक्विटी का अर्थ है बराबरी का सहभाग। दोनों ही व्यवस्थाएं जन्म और परिवार से शुरू होती हैं और सामाजिक व्यवस्था पर आकर समाप्त होती हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक की समाज की स्थिति का अगर चिंतन किया जाए तो ध्यान में आता है कि घर में बेटी पैदा होने के कारण परिवार के सदस्यों को होने वाली पीड़ा, लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान न देना या थोड़ा-बहुत पढ़ने के बाद उच्च शिक्षा के लिए शहर से बाहर न जाने देने जैसी स्थितियां अब नहीं रहीं। अब कुछ पिछड़ी सोच रखने वाले लोगों को छोड़कर सभी को लड़के और लड़कियों के पैदा होने पर समान रूप से आनंद होता है। शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियों की औसत संख्या में भी वृद्धि हुई है और कुछ लड़कियां तो परीक्षाओं में अव्वल स्थानों पर भी आ रही हैं। समाज में भी कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। पुरुषों के क्षेत्र माने जानेवाले क्षेत्रों में भी महिलाओं ने अपनी पहचान बनाई है।

ये स्थितियां महिलाओं को चांदी की थाली में परोसी हुई नहीं मिली हैं। उन्हें इसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी है। हर बार कुछ नया करने के लिए युद्ध जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है, समाज के लांछन सहने पड़े हैं लेकिन महिलाओं ने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने आप में परिवर्तन किए। अपनी शिक्षा के स्तर में वृद्धि करके, घर-परिवार की जिम्मेदारियों को सम्भालकर, दकियानूसी सोच की बेड़ियों को तोड़कर वे आगे बढ़ी हैं। पुरानी पीढ़ियों ने उनके सामने जो आदर्श रखे उनको साथ लेकर महिलाओं ने आनेवाली पीढ़ी के लिए नए आदर्श गढ़े। इस प्रक्रिया में जो उपयुक्त था उसे स्वीकारा और जिसे बदलने की आवश्यकता दिखाई दी उसे बदला भी। संक्षेप में कहें तो महिलाओं ने स्वयं को ही तराशा, स्वयं को ही गढ़ा और स्वयं ही नए आदर्श स्थापित किए।

प्रश्न यह है कि अगर यह सब महिलाएं स्वयं कर सकती हैं तो फिर क्यों समाज में उनकी स्थिति जितनी अपेक्षित है, उतनी अच्छी नहीं है? इसी प्रश्न को समझने के लिए ही इस वर्ष के महिला दिवस की थीम बनी है ‘एम्ब्रेस इक्विटी’ अर्थात ‘सहभागिता को अपनाओ’। लैंगिक समानता के रोड़ों को तो महिलाओं ने पार कर लिया है। अब उसे दरकार है, सहभागिता की। वह समाज से बराबरी के अवसर चाहती है। वह चाहती है कि उसे आंकने के पैमाने केवल सौंदर्य तक सीमित न हों बल्कि उसके गुणों को परखा जाए। किसी कार्य को सम्पन्न करने के पहले ही यह आशंका न जताई जाए कि, ‘क्या महिला इसे कर पाएगी?’ उसे वह काम करने का मौका दिया जाए और उसके लिए सकारात्मक वातावरण दिया जाए क्योंकि मेहनत करने से तो वह नहीं कतराएगी। इस समय आवश्यकता है कि पुरुष वर्ग महिला को देवी नहीं अपनी तरह ही एक व्यक्ति माने जो उसके ही जितनी सम्मान की अधिकारी है। निर्णय चाहे व्यक्तिगत हों या सामूहिक, उसकी सहमति भी उतनी ही मायने रखे जितनी किसी पुरुष की होती है। उसके साथ किसी भी तरह की जबरदस्ती न की जाए। महिलाओं में अपराधबोध की भावना सबसे प्रबल होती है, अगर इससे उनको उबार दिया जाए तो वह निश्चित ही परचम लहराएंगी।

सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि समाज से इन अपेक्षाओं की पूर्ति करने की अपेक्षा रखते-रखते गंगा में न जाने कितना पानी बह गया है। सुविधाएं चांदी की तश्तरी में न पहले मिली थीं न आगे मिलेंगी इसलिए महिलाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक सबल होना होगा। उन्हें ‘न’ कहने और उसपर अडिग रहने की हिम्मत जुटानी होगी। समानता का अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हें भी उतना ही काबिल बनना होगा। उसे हर काम इतने आत्मविश्वास से करना होगा कि उसके द्वारा किए गए कामों के परिणामों पर किसी शंका की गुंजाइश ही न रहे। उसे लोगों को पहचानने का हुनर सीखना होगा। कौन सचमुच उसका भला चाहता है और कौन रंगा सियार है यह पहचानना होगा नहीं तो हश्र सूटकेस या फ्रिज ही होगा।

महिला दिवस महिलाओं की उपलब्धियों का उत्सव मनाने और भविष्य के लिए आवश्यक तैयारियां करने का दिन है। इस दिन यह विश्लेषण भी करना चाहिए कि महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए पुरुषों को पीछे धकेलने की आवश्यकता नहीं है। सहभागिता का अर्थ है दोनों की समान भागीदारी और यह दोनों का कर्तव्य भी है। उसे अपने अंदर की मोह और ममता जैसी नैसर्गिक भावनाओं को भी बदलने की आवश्यकता नहीं है। केवल यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि इनका कोई गलत फायदा न उठाए। सदियों से जो चला आ रहा उसमें तुरंत परिवर्तन होने  की सम्भावना न के बराबर है अत: महिलाओं को भी स्वयं को गढ़ने की प्रक्रिया को जारी रखना ही होगा।

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