भारत, संविधान और विदेशों में महिला अधिकार

आधुनिक दुनिया की तथाकथित सभ्य सभ्यताओं ने महिलाओं एवं अश्वेतों को हमेशा अधिकारों से वंचित रखा। वहां पर अधिकार पाने के लिए इन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा। परंतु भारतीय सभ्यता में इनके लिए लघु विचार कभी नहीं रहे। इसीलिए मुस्लिम और अंग्रेेजी राज्य में महिलाओं एवं दलितों का उत्पीड़न होने के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने इन्हें विशेष अधिकार दिए ताकि वे जीवन संघर्षों का सामना कर सकें।

महिलाओं के हित में संविधान के अलग-अलग प्रावधानों का उल्लेख करने के पूर्व मैं उसकी उत्पत्ति के सम्बंध में अपने विचार रखना चाहूंगी। हमारे यहां पर 1950 में संविधान बना था। संविधान का आर्टिकल न. 1 कहता है इंडिया दैट इज भारत, अब दो नाम तो किसी देश के नहीं हो सकते। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी या जापान के दो नाम नहीं है तो क्या कारण है जो कहा गया इंडिया दैट इज भारत। ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि हमारे जो संविधान के निर्माता थे उन्होंने कहा कि हमारा आज का जो भारत है उसकी दायीं और बाईं भुजा कट चुकी है, ये अखंड भारत नहीं है बल्कि आज का खंडित भारत है। इंडिया को जानना है तो केवल आज को मत देखो बल्कि भारत को देखो। भारत का अर्थ है हजारों-हजारों वर्ष पुरानी गौरवशाली सभ्यता। यदि इंडिया का आधार और मूल्यों को जानना है तो भारत को ही देखना पड़ेगा।

भारत के कुछ मूलभूत आधार हैं, वे पांच स्तम्भ हैं। मैं ये बैकग्राउंड इसलिए दे रही हूं क्योंकि महिलाओं को सब जगह समान अधिकार मिले ऐसा नहीं है। उस समय पश्चिम में महिलाओं को समान अधिकार नहीं दिए गए थे। तो क्या कारण था जो महिलाओं को भारतीय संविधान के निर्माण के साथ ही पुरुषों के बराबर समान अधिकार मिले, तत्काल मिले और उसी समय मिले, और किसी ने इसका विरोध नहीं किया। इसलिए यहां से हमें बात शुरू करनी पड़ेगी।

भारत का जो पहला आधारभूत सिद्धांत है वह है ‘ईशावास्यं इदं सर्वं’ जिसका अर्थ है कण-कण में भगवान हैं। पुरुष में भी, स्त्री में भी, चाहे वो कोई भी जाति, पंथ, मत का हो, सजीव हो या निर्जीव। इसी आधार पर हमारे संविधान में सभी को बराबरी का अधिकार प्रदान किया गया है। इस कारण से हमारे यहां पर आर्टिकल 14 आया। यह सबसे अधिक महिलाओं के लिए है। जिसको हम दलित वर्ग कहते हैं, उनके लिए आया। आर्टिकल 14 समानता का अधिकार देता है और साथ ही महिलाओं से जुड़े सभी प्रकार के भेदभाव को खत्म भी करता है। आर्टिकल 15 कहता है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता। विशेष कर पुरुष और स्त्री में कोई भेदभाव नहीं हो सकता। हमारी सनातन संस्कृति ने स्त्री-पुरुष में कोई अंतर नहीं किया। हमारे यहां अर्धनारीश्वर की संकल्पना है। हमारे देवाधिदेव महादेव शिव भी आधा नर हैं और आधा नारी हैं।

इक्वालिटी का सिद्धांत पश्चिमी जगत में था ही नहीं। भारत का ये जो सिद्धांत है कि कण-कण में भगवान हैं, ये उनके यहां था ही नहीं। बाहर तो यह कहा गया कि महिला में तो आत्मा ही नहीं होती है। अन्य विदेशी मतों में तो यह कहा गया कि आदमी के पसली से महिलाओं का जन्म हुआ है। इसलिए आदमी जब चाहे पसली ला सकता है, एक पसली ला सकता है, 4 पसलियां ला सकता है। फेंक सकता है। आदमी राजा है और पसली उसकी दासी।

बाइबल ने कहा कि पहले आदमी को बनाया और उसके मनोरंजन के लिए औरत को बनाया गया। दोनों को गार्डन ऑफ एडन में भेजा गया और ईश्वर ने उन्हें कहा कि यह वर्जित फल है इसको नहीं खाना लेकिन शैतान की बातों में आकर ईव ने वो वर्जित सेब खाया और एडम को भी खिलाया। जिससे नाराज होकर गॉड ने उन्हें वहां से निकाल दिया और नीचे धरती पर फेंक दिया। उसके बाद से औरत पहली पापी हो गई। इसलिए उनकी मान्यताओं के अनुसार पश्चिम में चौराहों पर खड़ा करके औरतों को डायन कहकर जला दिया जाता, पत्थर व कोड़े मारे जाते और उन्हें तड़पा-तड़पाकर निर्ममता से मार दिया जाता था।

ईसाई और इस्लाम दोनों में सेक्सस्लेव का कांसेप्ट है क्योंकि उनका मानना है कि औरत केवल आदमी के मनोरंजन के लिए ही बनी है। इसलिए वहां पर जो अधिकार पुरुषों को दिए गए वे महिलाओं को नहीं दिए गए। पश्चिम में जब पुरुष को मताधिकार मिला तब औरतों को मताधिकार नहीं दिया गया था। 1920 तक यूएसए में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। आज तक अमेरिका में महिला राष्ट्रपति नहीं बन पाई है। 1928 तक यूके (इंग्लैंड) में औरतों को मताधिकार नहीं था। स्विट्जरलैंड में 1959 में रेफरेंडम कराया गया कि, आदमियों बताओं औरतों को मताधिकार दे या नहीं? 12 वर्षों के महिलाओं के संघर्ष के बाद 1971 में उन्हें मताधिकार मिला। वेटिकन सिटी में आज भी महिलाओं को मताधिकार नहीं दिया गया है। कनाडा में कहा गया कि केवल पर्सन को मताधिकार है और स्त्री तो कोई पर्सन नहीं है इसलिए उन्हें ये अधिकार नहीं दिए गए थे। जितने भी घृणास्पद चाहे वो अमेरिकन रिवोल्यूशन हो, चाहे फ्रेंच रिवोल्यूशन हुई, वो केवल गोरों आदमियों के लिए था न कि अश्वेतों और महिलाओं के लिए।

महिलाओं को विदेशों में संघर्ष करना पड़ा इसलिए वहां से नारी मुक्ति का कांसेप्ट आया क्योंकि उन्हें वहां के पुरुष प्रधान समाज की बंदिशों से मुक्त होना था। वे कहती थी कि हम कोई वस्तु नहीं हैं हम भी इंसान हैं और हमें भी सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। वहां के सिस्टम से उन्हें मुक्त होना था। पश्चिमी संस्कृति की विचारधारा से वहां का सिस्टम जकड़ा हुआ था। हमारे यहां ऐसा नहीं था, हमारे यहां नारी जागृति का विचार है। लेकिन इस्लामी और अंग्रेजी राज में जो नारी उत्पीड़न हुआ, मुस्लिम आक्रांताओं ने तो महिलाओं से दरिंदगी और हैवानियत की सारी हदें लांघ दी, उससे उन्हें घरों में सीमित होना पड़ा। वर्ना हमारे यहां तो महिलाओं ने मंत्र लिखे हैं। वेद की ऋचाएं भी महिला ऋषियों ने लिखी हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से संविधान का निर्माण हुआ है इसलिए भारतीय संविधान ने महिलाओं को वे सारे अधिकार दिए जो उन्हें अपेक्षित थे। आपको यह सब विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखना पड़ेगा, इसे छोड़कर आप सही और गलत को नहीं जान सकते।

दूसरा है ‘एकम् सत विप्रा बहुधा वदंति’, ईश्वर एक है, सभी मार्ग उसी ओर जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म के आधार पर हमारे यहां भेदभाव नहीं होता। हर किसी को ईश्वर तक पहुंचना है, तुम कोई भी नाम ले लो उससे क्या फर्क पड़ता है। इसलिए हमारे मंदिरों में आप देखिये एक से अधिक भगवान भी इकट्ठे रहते हैं। लोग आपस में लगते-झगड़ते नहीं हैं। एक घर में भी यदि पांच सदस्य हैं तो वे अलग-अलग भगवान को पूजते हैं। इससे किसी को कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन बाहर ऐसा नहीं है। वे कहते हैं कि केवल हमारा ही भगवान सच्चा है, बाकी सब झूठे है। इसलिए वे सदैव संघर्ष करते रहते हैं। उनका साफ कहना है कि केवल हम ही सही, दूसरा कोई स्वीकार नहीं है। अतः वे कन्वर्ट करते हैं।

तीसरा है, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।’ हमारे जीवन का ध्येय क्या है? हमारे यहां जीवन का अर्थ केवल शरीर से नहीं है। हमारे यहां जीवन का ध्येय उक्त श्लोक है। यह जो विचार है वह केवल पुरुषों के लिए ही मर्यादित नहीं है बल्कि महिलाओं सहित अखिल विश्व एवं ब्रह्मांड के लिए है। जब हम शांति मंत्र बोलते हैं तब सबकी शांति की कामना करते हैं। धरती, आकाश, पाताल, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति, सभी की शांति की कल्पना करते हैं। किसी के साथ भेदभाव और छोटी सोच हमारी भारतीय सनातन संस्कृति एवं परम्परा का हिस्सा नहीं हैं। जब हम सबके सुख की कामना करते हैं तो फिर हम भेदभाव कर ही नहीं सकते हैं।

जब आप संविधान देखेंगे तो भारत के ये जो पंच मूलभूत सिद्धांत हैं वे भारतीय संविधान के प्रत्येक पृष्ठ में दृष्टिगत होते हैं। स्त्री-पुरुष के नाम पर भेदभाव नहीं, पैसे के आधार पर भेदभाव नहीं, धर्म, जाति, प्रांत के आधार पर भेदभाव नहीं। और हो भी नहीं सकता क्योंकि आर्टिकल वन कहता है कि, ‘इंडिया दैट इज भारत।’

चौथा है ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, हम दुनिया को एक परिवार के रूप में देखते हैं। हम दुनिया को उपभोग की वस्तु के रूप में नहीं देखते हैं। हम प्रकृति को अपनी मां बोलते हैं, धरती हमें देती है, इसलिए धरती मां, गंगा मां। जो देती है उसे हम मां बोलते हैं। तो मां के नाम पर आप किसी का शोषण नहीं कर सकते, उसका हम दोहन ही कर सकते है। हमने महिला को केवल औरत का दर्जा नहीं दिया है बल्कि मां का दर्जा दिया है। इतना ऊंचा दर्जा तो मुझे नहीं लगता कि किसी भी देश, संस्कृति या धर्म में मिला होगा।

पांचवा है ‘अहं ब्रह्मास्मि’, अर्थात मुझमे उसी ईश्वर का तत्व है जो ईश्वर हर जगह पर विद्यमान है। मुझमें क्षमता है कि मैं ईश्वर को प्राप्त कर सकूं। मैं ये नहीं कहता कि तुम शैतान हो और मैं भगवान हूं। मैं कहता हूं ‘तत्वमसि’, तुम भी तो वही हो। जो मैं हूं, वही तुम हो। मैं कहता हूं ‘यत पिंडे तत ब्रह्मांडे’ अर्थात जो इस शरीर में है वही पूरे ब्रह्मांड में है। यदि एक लोटे के अंदर आप नदी का जल डालोगे, तो लोटे में भी वही नदी है जो बाहर बह रही है। वह एक ही है। जब हम ऐसा कहते हैं तब हमें यह ध्यान में आता है कि हम सब एक हैं। जब अपना भला करना है तो सबका भला करना है। केवल मैं अपने को ही ईश्वर मानूं, सर्वश्रेष्ठ मानूं और सबको कमतर मानूं। ऐसा विचार भारत में नहीं चलता है। इसका जो सारांश है वह है ‘वन’, यह जो ‘एक’ का भाव है, वह भारत से आता है।

ये जो भारत के पंचभूत सिद्धांत हैं उन्हीं के आधार पर हमारा संविधान बना हुआ है। वास्तविकता में हमारा जो संविधान है वह भारतीय मूल्यों का परिचायक है। महिलाओं के लिए स्वतंत्रता, समानता, सम्मान, गरिमापूर्ण जीवन जीने एवं अन्य अधिकार संविधान द्वारा दिए गए हैं, जिसे संविधान के प्रस्तावना में ही उल्लेखित किया गया है। आर्टिकल 14, 15, 19, 21 और 25 विशेष रूप से महिलाओं को समर्पित हैं। ट्रिपल तलाक, चार निकाह और हलाला जैसे मामले आर्टिकल 21 का उल्लंघन हैं। हजारों वर्षों की दासता के चलते महिलाएं पिछड़ गई थी उन्हें आगे लाने के लिए महिलाओं को पुरुषों से अधिक कुछ विशेषाधिकार सहित आरक्षण भी दिए गए हैं ताकि वे सामाजिक-आर्थिक रूप से स्वावलम्बी एवं सशक्त बन सकें और समान अवसरों का लाभ उठा सकें।

– एड. मोनिका अरोड़ा 

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