बिंदी सामाजिक बंधन या सशक्त अभिव्यक्ति?

एक तरफ बुरके जैसे रूढ़िवादी परिधान को बचाए रखने के लिए देशभर में आंदोलन हो रहे हैं, वहीं वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित कुंकू और बिंदी को लेकर अफवाहें फैलाई जाती हैं। बुरके में ढंकी महिला यदि महिला अधिकारों की बात करती भी है तो वह कितना हास्यास्पद लगेगा, जबकि माथे पर बिंदी लगाए महिलाएं दुनियाभर में अपनी योग्यता का परचम फहरा रही हैं।

पिछली दिवाली में प्रसिद्ध लेखिका और सोशल मीडिया पर राजनीतिक लेखन के लिये प्रसिद्ध शेफाली वैद्य की ‘नो बिंदी नो बिजनेस’ मुहिम बहुत ही प्रसिद्ध हुई थी। जिसमें उन्होंने उन सभी ब्रांड्स पर निशाना साधा था, जो अपना पूरा व्यवसाय हिंदू त्यौहारों में करते हैं, लेकिन हिंदुओं के प्रतीक जैसे बिंदी और पारम्परिक लिबास को जानबूझकर अनदेखा करते हैं। उनकी इस मुहिम का परिणाम यह हुआ कि यह बात आग की तरह सोशल मीडिया पर फैली, और उन सभी ब्रांड्स ने उनकी बात पर गौर किया। इस दिवाली पर अधिकाधिक ब्रांड्स के विज्ञापनों में परिवर्तन दिखा। और उस एक मुहिम से एक बात तो सिद्ध हो गई कि कुंकू / टिकली / बिंदी या पारम्परिक लिबास केवल पारम्परिक पहनावा मात्र नहीं हैं, बल्कि एक सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम हैं, जिससे हमारी हिंदू संस्कृति की पहचान सम्पूर्ण जग में होती है।

एक बात यह भी देखी गई है कि, नई पीढ़ी इसी बिंदी को ‘आउटडेटेड फैशन’ या फिर सामाजिक बंधन मानती है। विवाह के बाद टिकली लगाना आवश्यक है क्या? नहीं लगाएंगे तो क्या होगा? समाज के लिये हम क्यों बदलें? ऐसे कई सवाल रोजमर्रा की जिंदगी में उठते हैं। हम ही उठाते हैं। लेकिन क्या यह केवल पारम्पारिक पहनावा मात्र है? या समाज द्वारा हमारे ऊपर लादा गया कोई बंधन, कि यदि हम बिंदी लगाएंगे तो ही हिंदू कहलाएंगे, या यदि हमारे माथे पर कुंकू और मांग में सिंदूर होगा तभी हम एक अच्छी शादीशुदा गृहिणी कहलाएंगी? मैं नहीं मानती। हमारी संस्कृति के प्रतीक हमारे ऊपर बंधन कैसे हो सकते हैं? आप स्वयं ही सोच कर देखिये।

उदाहरण के लिये मैं प्रसिद्ध उद्यमी सुधामूर्ति का उदाहरण देना चाहूंगी। इन्फोसिस फाउंडेशन के माध्यम से सुधामूर्ति ने पूरे संसार में भारत का नाम ऊंचा किया है। नारायण मूर्ति और सुधामूर्ति एक साक्षात उदाहरण हैं सफल उद्यमियों के, जिन्होंने भारत का नाम रौशन किया है। आप यदि आज भी सुधामूर्ति को देखें, तो वे आपको साधारण सी साड़ी, बिना रंग किये सफेद बाल, और एक सुंदर सी बिंदी परिधान किये दिखेंगी। ऐसे ही पोशाक में उन्होंने एक बड़ी कम्पनी स्थापित की, लाखों करोड़ों रुपयों की डील्स क्रैक की। कई सारी पुस्तकें लिखीं और आज एक सफल उद्यमी, एक लेखिका के रूप में पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। उनकी साड़ी, उनकी बिंदी, उनका भारतीय परिधान उन पर लगा कोई बंधन नहीं है। वरन् उनकी अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। वे भारत के बाहर अपने भारत की पहचान लिये, अपनी हिंदू संस्कृति की पहचान लिये घूमती हैं। जब विदेशों में कॉन्फरेंस रूम में धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए वे बड़ी-बड़ी डील्स पर बड़े-बड़े उद्यमियों के साथ बात कर रही होती हैं, तो उन्हें अपने आप को कॉर्पोरेट जगत की महारथी साबित करने के लिये पैंट और ब्लेजर की आवश्यकता नहीं होती, बिना बिंदी के मॉडर्न लुक रखने की आवश्यकता नहीं होती। वरन वो कॉटन की साड़ी और माथे की बिंदी उनका आत्मविश्वास बनती है। और एक प्रतीक बनती है, कि भारतीय स्त्री कुछ भी कर सकती है।

अब ऐसे उदाहरण यदि हमारे सामने होंगे, तो बिंदी को बंधन मानने वालों के सवालों के अलग से जवाब देने की क्या आवश्यकता होगी? हिंदू संस्कृति के सभी प्रतीक व्यक्तिगत पसंद को महत्व देते हैं, इसीलिये हमारे ऊपर किसी तरह का कोई धार्मिक बंधन नहीं होता, कि ऐसा करना ही है, वैसा पहनना ही है। जैसा कि अन्य धर्मों में देखा गया है। हिंदू संस्कृति के प्रतीक विज्ञानाधारित हैं। यदि बात बिंदी की करें, तो बिंदी दोनों भौंहों के बीच लगाई जाती है, जिसे आयुर्वेद की भाषा में आज्ञाचक्र कहा जाता है। यह हमारी पिनियल ग्रंथि से जुड़ा होता है, जो हमारी इच्छाशक्ति और प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है। बिंदी इस आज्ञाचक्र को ‘एक्टिवेट’ करने में मदद करती है, जिससे हमारा मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। साथ ही इसके कई फायदे होते हैं। इसीलिये बिंदी, कुंकू, टिकली जैसे भारतीय परिधान केवल प्रतीक मात्र नहीं हैं, वरन् अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं। क्योंकि यह आपको बंधन में बांधे नहीं रखता, वरन् सामाजिक बंधनों को तोड़कर एक नई पहचान बनाने की ताकत देता है।

क्या यही ताकत बाकी धर्मों में दिखाई देती है? पिछले कई दिनों से हिजाब को लेकर बहुत चर्चा हो रही है। जहां एक ओर कर्नाटक के उडुपी में शिक्षा संस्थान में हिजाब मना होने पर मुस्लिम छात्राओं ने आवाज उठाई, वहीं दूसरी ओर आज भी ईरान में हिजाब को बैन करने की मांग चल रही है। हिजाब को लेकर हिरासत में ली गई युवती की पुलिस कस्टडी में मौत के बाद पूरे देशभर में प्रदर्शन जारी है। महिलाएं अपना हिजाब उतारकर फेंक रही हैं और कैंची से बाल काटकर हिजाब के खिलाफ अपनी आवाज उठा रही हैं। ईरान में महिलाओं की मांग है कि हिजाब को अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए, इसकी वजह से उन्हें अपनी जान ही क्यों न देनी प़ड़े।

ईरान जैसा देश जो मुस्लिम प्रधान देश है, वहां महिलाओं को हिजाब के कारण जान गंवानी पड़ रही है। यह बंधन नहीं तो और क्या है, जिसके लिये भारत के कर्नाटक में लड़ाई लड़ी जा रही है, और छात्राएं हिजाब पहने जाने के लिये, या हिजाब पहनने की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठा रहीं हैं? क्या वे ईरान की परिस्थिति नहीं देख रही? यह प्रश्न उपस्थित होता है।

हिजाब, बुर्का यह सभी धीरे धीरे आपको गुलामी की मानसिकता में ढालते हैं। बुर्के को मानसिक रूप से गुलामी मानसिकता में ढालने का प्रतीक माना जाता है, इसकी शुरुआत इस्लामी कट्टरता के नाम पर हिजाब से होती है। और हमारे समाज में ऐसा नैरेटिव बिठाया जाता है कि, हिजाब रखने की मांग करना स्वतंत्रता है, और भारतीय वेश परिधान की बात करना, बिंदी लगाना, आपको पिछड़ा बनाता है। इसीलिये आज भी कॉन्वेंट शालाओं में लड़कियों को बिंदी लगाना, मेहंदी लगाना मना है। यह जानबूझकर हमारे मन में बिठाया जाता है, ताकि हम अपने ही प्रतीकों से, अपनी ही परम्परा से दूर हो जाएं।

आपको यदि मैं बिंदी और आत्मविश्वास का एक और उदाहरण दूं, तो यह बात और अधिक अच्छे से स्पष्ट होगी। आप सभी को हमारे देश की पूर्व विदेश मंत्री स्व. सुषमा स्वराज याद होंगी, संसद में गूंजते उनके भाषण याद होंगे। आत्मविश्वास के साथ उनके द्वारा विदेशों में रह रहे भारतीयों की, की हुई मदत याद होगी। सालों से स्व. सुषमा स्वराज को हमने साधारण कॉटन की साड़ी, एक जैकेट और बड़ी सी बिंदी माथे पर लगाए देखा है। क्या उन पर किसी तरह का बंधन था? या क्या उनका यह पोशाक उनके किसी भी काम के आड़े आया? क्या उन्हें बड़े-बड़े देशों के महारथियों से संवाद करते वक्त अपने चहरे को छुपाने की आवश्यकता महसूस हुई? नहीं। वरन् उनका यह लिबास उनके आत्मविश्वास का कारण बना। उनके इसी लिबास ने हमारे देश की बड़ी-बड़ी समस्याएं हल की हैं। भारत के बाहर रहने वाले भारतीयों को आत्मविश्वास दिया है, कि चाहे जो हो भारत उनके साथ हमेशा खड़ा है।

यह ताकत है, हमारे प्रतीकों की, हमारी परम्परा की, हमारी संस्कृति की, हमारे पारम्परिक पोशाक की, हमारी पारम्परिक बिंदी, और मेंहदी की। इसके पीछे विज्ञान है, सामाजिक स्वतंत्रता है और आत्मविश्वास है। तो फिर आप ही सोचिये ये प्रतीक बंधन कैसे हो सकते हैं? उलटे ये तो हमारी अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम हैं, और हमेशा रहेंगे।

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