भारतीय संस्कृति में महिलाओं की स्थिति पुरुषों के समान ही रही लेकिन 11वीं सदी से लेकर 19वीं सदी के मध्य के संक्रमण काल में यहां महिलाओं की स्थिति अत्यधिक बुरी हो गई। एक बार फिर उसमें तेजी आई है लेकिन इसमें बढ़ाव की आवश्यकता है ताकि समाज की प्रगति में बाधा न उत्पन्न हो।
आज भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में काफी विरोधाभास देखने को मिलता है। एक तरफ तो भारतीय समाज महिला सशक्तीकरण, महिला विकास तथा महिलावाद के जुमलों को हवा देकर महिला समर्थन का दावा करता है। वहीं दूसरी ओर, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, ऑनर किलिंग, दहेज हत्या, बलात्कार,घरेलू हिंसा, इव टीजिंग आदि के जरिये महिलाओं की बुलंद होती आवाजों को दबाने का प्रयास करता है। समाज की इस मानसिकता से निश्चित ही महिलाओं की स्थिति प्रभावित होती है।
प्राचीन भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति एवं विदेशी प्रभाव
वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में महिलाओं को समाज में गरिमामय स्थिति प्राप्त थी। साथ ही, उन्हें अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे धार्मिक क्रियाओं में भाग ही नहीं लेती थीं बल्कि, क्रियाएं सम्पन्न कराने वाले पुरोहितों और ऋषियों का दर्जा भी उन्हें प्राप्त था। उस समय महिलाएं धर्म, शास्त्रार्थ इत्यादि में पुरूषों की तरह ही भाग लेती थीं। उसे ‘देवी’, ‘सहधर्मिणी’, ‘अर्द्धांगिनी’, ‘सहचरी’ माना जाता था। स्मृतिकाल में भी ’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ कह कर सम्मानित किया गया है। पौराणिक काल से ही स्त्री को ‘शक्ति’ का स्वरूप मानकर उसकी आराधना की जाती रही है। शिक्षा, धर्म, व्यक्तित्व और सामाजिक विकास में उसका महान योगदान था। इस्लामिक आक्रमण के दौरान समाज में बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, वेश्यावृत्ति प्रथा, भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा और सबसे अंत में सती प्रथा जैसी कुप्रथाएं समाज में शामिल हुईं। 11वीं से 19वीं शताब्दी के बीच का काल महिलाओं के सम्मान, विकास और सशक्तीकरण के लिए अंधकार युग था। मुगल शासन, सामंती व्यवस्था, केंद्रीय सत्ता का विनाश, विदेशी आक्रमण और शासकों की विलासितापूर्ण प्रवृत्ति ने महिलाओं को उपभोग की वस्तु बना दिया। इस दौरान भारत में महिलाओं की स्थिति दयनीय होती गयी। इसकी वजह से बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा आदि विभिन्न सामाजिक कुरीतियों का समाज में प्रवेश हुआ, जिसने महिलाओं की स्थिति को हीन बनाने के साथ ही उनके निजी व सामाजिक जीवन को कलुषित कर दिया।
वैश्विक वातावरण से भारतीय महिलाओं में आया परिवर्तन
पश्चिम में नारी चेतना का विकास फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई.) के प्रभाव स्वरूप हुआ। उस दौरान मनुष्य ने ईश्वर और धर्म के मुद्दों पर सवाल उठाना शुरू किया तथा मनुष्य को ही अपना नियंता घोषित किया। फ्रांसीसी क्रांति का प्रमुख नारा था- ‘स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व।’ इस क्रांति में स्त्रियों ने भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित की थी, लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने महसूस किया कि ये तमाम सामाजिक सुविधाएं केवल पुरुषों के लिए ही आरक्षित हैं। पुरुषों के अधिकारों के लिए ‘विंडिकेशन ऑफ राइट्स ऑफ मैन’ जैसी किताब भी लिखी गयी थी। इसके जवाब में मेरी वुल्सनक्राफ्ट नामक महिला ने ‘विंडिकेशन ऑफ राइट्स ऑफ वुमेन’ नामक किताब लिखी, जिसके माध्यम से स्त्रियों द्वारा पुरुषों के समान हक की मांग की गयी। यहीं से पश्चिमी नारीवाद की शुरुआत मानी जाती है। इसका प्रभाव भारतीय जनमानस की विचारधारा पर भी पड़ना शुरू हुआ।
19वीं सदीं के पूर्वार्द्ध में भारत के कुछ समाजसेवियों जैसे राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, ज्योतिबा फुले, पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले आदि ने अत्याचारी सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठायी। उन्होंने तत्कालीन अंग्रेजी शासकों के समक्ष स्त्री-पुरूष समानता, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा पर रोक तथा बहुविवाह प्रथा पर रोक की आवाज उठायी। नतीजतन कई सारे कानून (सती प्रथा निषेध अधिनियम, हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, वेटिव मैरिज एक्ट, शारदा एक्ट आदि) पारित हुए, जिनका समाज पर दूरगामी परिणाम पड़ा और वर्षों से स्त्रियों की स्थिति में आनेवाली गिरावट पर रोक लगी। इस तरह हम कह सकते हैं कि महिलाओं के पुनरुत्थान का द्वितीय अध्याय ब्रिटिश काल में लिखा गया। नारी शिक्षा के विकास हेतु कई कदम इसी काल में उठाए गये।
महिलाओं का विकास, स्वावलम्बन एवं सशक्तीकरण
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी समाज हमेशा से ही महिला अधिकारों के मामले में उदार था। ईश्वरीय तथा शाही राजसत्ता के अधिपत्य को स्वीकार करने वाले पश्चिमी समाज में भी 19वीं सदी तक कई ऐसे मुद्दे थे, जिनके लिए महिला आंदोलन तथा महिला समर्थक कानूनों की जरूरत महसूस की गयी। ऐसी कुछ प्रमुख मांगों में लैंगिक समानता, समान काम के लिए समान वेतन, महिलाओं के लिए तलाक का अधिकार, छात्राओं के लिए धर्मनिरपेक्ष व पेशेवर शिक्षा, विवाहित स्त्री तथा रखैलों, वैध एवं अवैध संतानों के बीच बरते जानेवाले भेदभाव को समाप्त करना आदि शामिल थे।
20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में फ्रांसीसी महिलाओं को पूर्ण नागरिकता का अधिकार सहित मताधिकार प्राप्त हुआ, जिसे वैश्विक स्तर पर महिला आंदोलन का प्रथम चरण माना जा सकता है। महिलाओं का मताधिकार के लिए संघर्ष केवल राजनीतिक समानता तक सीमित नहीं था, बल्कि यह उन्हें एक इंसान के रूप में राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में मान्यता दिलाने में भी सहायक सिद्ध हुआ। धीरे-धीरे इन आंदोलनों की धमक देश-दुनिया के अन्य हिस्सों में भी फैलती गयी, जिसका नतीजा है कि आज की महिलाएं काफी हद तक अपने अधिकारों के बारे में जानने लगी हैं। उनमें से कई ऐसी भी हैं, जो अपने साथ-साथ अन्य महिलाओं को भी इस दिशा में जागरूक करने का दायित्व निभा रही हैं।
कमियां और चुनौतियां
नारी आंदोलन के समक्ष सबसे प्रमुख व्यवहारिक चुनौती स्त्रियों के प्रति प्रचलित रूढ़िवादी अवधारणाएं और पूर्वाग्रह, जो कि सार्वजनिक जीवन में सैकड़ों-हजारों वर्षों की स्त्री विरोधी मानसिकता का परिणाम हैं। असंख्य सुधार कार्यक्रमों के बावजूद आज भी लैंगिक भेदभाव सार्वजनिक जीवन की एक कड़वी हकीकत है। इसके अलावा, समाज में विद्यमान असमानता और स्त्रियों के शोषण की समाप्ति के विचार को लेकर आंदोलन से जुड़े विचारकों के मध्य असहमति भी एक प्रमुख चुनौती है।
सम्भावनाएं
महिला सुधारों की दिशा में उत्तरोत्तर सुधार हो रहा है, परंतु अभी भी आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पीछे हैं, जबकि वैज्ञानिक चिंतन के वर्तमान युग में यह साबित हो चुका है कि स्त्री-पुरुष की मानसिक-शारीरिक क्षमताओं तथा योग्यताओं में कोई अंतर नहीं है। जहां भी स्त्रियों को अवसर मिला है, वहां वे अपने आपको साबित कर चुकी हैं। विचारकों का मानना है कि स्त्रियों की हीन स्थिति प्राकृतिक व्यवस्था की देन नहीं है, बल्कि कुंठित सामाजिक व्यवस्था की उपज है। ऐसी स्थिति में आज आवश्यकता है स्त्री-पुरुष के मध्य के प्राकृतिक अंतर को स्वीकार करते हुए उनके सामर्थ्य का सम्पूर्ण उपभोग करने तथा समाज द्वारा स्थापित कृत्रिम असमानताओं को दूर करने की, क्योंकि स्त्री-पुरुष समानता स्थापित करके ही किसी भी समाज का सम्पूर्ण विकास सम्भव है।