धृतराष्ट्री आचरण से धूमिल हो गई प्रतिष्ठा

शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने जीवन भर अपने नियमों एवं आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया परंतु उनके पुत्र उद्धव ठाकरे ने सत्ता के लोभ में उन आदर्शों को मिट्टी में मिला दिया। आज स्थिति यह है कि वे शिवसेना से हाथ धो चुके हैं और शायद शिवसेना की सारी सम्पत्तियां भी छोड़नी पड़ें। साथ ही, न्यायालय का आदेश चाहे जो भी आए परंतु अब उद्धव की खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त करना असम्भव है।

महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री का पद पाने के लिये शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने जो आचरण किया था, वो राजनीति के दलदली इतिहास में तो नया नहीं है, लेकिन इसने वर्तमान राजनीति की लिजलिजी दशा को उजागर करने के साथ ही वैचारिक प्रतिबद्धताओं को तिलाजंलि देने की ऐसी परम्परा प्रारम्भ कर दी है, जो भविष्य में बेमेल गठजोड़ और निज स्वार्थ कामना के, वशीभूत होकर आदर्शों को रसातल में गाड़ देने का नया सिलसिला शुरू कर देगी। लेकिन, इस सबसे उस ठाकरे को कोई फर्क नहीं पड़ता, जो कहलाता तो महाराष्ट्र के बब्बर शेर बालासाहेब ठाकरे का पुत्र है, किंतु उनके नाखून बराबर चरित्र की मजबूती नहीं रख पाया। अपने धृतराष्ट्री आचरण की बदौलत उद्धव ने महाराष्ट्र की सत्ता से हाथ धो ही डाला, साथ ही महाराष्ट्र के करोड़ों लोगों की मराठी चेतना और हिंदुत्व की भावना को भी कुचल कर रख दिया। शिवाजी महाराज, संत गाडगे महाराज जिस पुण्य भूमि से निकले, वहां अफजल खान की मानसिकता वाले उद्धव ठाकरे ने समूची वैचारिक प्रतिबद्धता की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर दिया।

उद्धव के व्यवहार को लेकर इतना ही कहा जा सकता है कि उसने सत्ता-हवस में मदांध होकर नीति, आदर्श, शुचितापूर्ण आचरण को सार्वजनिक जीवन में आवश्यक मानने वालों को बुरी तरह से निराश किया। यह तब और अफसोसजनक और चिंता पैदा करने वाला हो जाता है, जब उसके नाम के आगे ठाकरे जुड़ा हो। भारतीय राजनीति के इतिहास में वह करीब पौने तीन साल राजनीतिक मूल्यों की गिरावट का कालिख भरा अध्याय रहेगा, जब उद्धव महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे। यह आज शायद अतिशयोक्तिपूर्ण लगे, लेकिन इतना तय मानिये कि महाराष्ट्र की राजनीति में उद्धव का पराभव ठाकरे युग पर पूर्ण विराम साबित होगा। जबकि बालासाहेब ठाकरे ने मराठीवाद और हिंदुत्व की अतिवादी विचारधारा को अपनाकर भी कभी मूल्यपरक राजनीतिक अस्मिता से खिलवाड़ न किया, न करने दिया। सामाजिक सरोकारों से प्रारम्भ अपने सामाजिक जीवन में राजनीति को भी अविभाज्य अंग बना लेने के बावजूद कभी सत्ता के सीधे मोह में नहीं रहे। फिर भी ऐसा प्रभाव रहा कि सत्ता उनकी चौखट पर नाक रगड़ती रही और वे परिवार प्रमुख का बड़प्पन दिखाते हुए अपने प्रभाव क्षेत्र को विस्तार देते रहे। गनीमत है कि बालासाहेब ठाकरे अपने वैचारिक शिशु शिवसेना को अपने जैविक पुत्र उद्धव के हाथों बलि देते नहीं देख पाये। अपने जीवित रहते पुत्र मोह में वे उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने के जतन यदि कर भी लेते तो कांग्रेस-राकांपा जैसे दलों के साथ तो किसी कीमत पर नहीं जाने देते। तब सम्भव था कि वे भाजपा नेतृत्व को झुकाते, मनाते या उसमें तोड़फोड़ भी कर लेते, लेकिन अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को तिलाजंलि तो बिल्कुल नहीं देते।

इस समय जबकि चुनाव आयोग शिव सेना से अलग होकर स्वयं को वास्तविक दल बताने के एकनाथ शिंदे के दावे को मान चुका है और उसे तीर-कमान चुनाव चिह्न भी दे दिया है, तब उन हालातों की पड़ताल करना समयोचित है, जिसने उद्धव को जमीर विहीन बन जाने की ओर अग्रसर किया। इसकी शुरुआत नवम्बर 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद हुई, लेकिन अब ऐसा लगता है कि उद्धव के मन में इसकी भूमिका पहले ही लिखी जा चुकी थी। चुनाव पूर्व भाजपा-शिवसेना के बीच गठबंधन हो चुका था। यानी बहुमत आने पर सरकार बनाना था। चूंकि 288 सदस्यीय सदन में भाजपा 105 सीटें लाकर सबसे बड़ा दल थी और शिव सेना के 56 सदस्यों के साथ वे दो तिहाई बहुमत ला चुके थे तो मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक लाभ या हकदार भाजपा थी। यही वो पेंच था, जो उद्धव के कथित अवांछित सपने के आड़े आ रहा था। वे शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने के मुद्दे पर हठधर्मिता की ऐसी हदें लांघ गये, जो इस तरह के राजनीतिक दल से अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। उन्होंने सिद्धांतहीन राजनीति का निकृष्ट उदाहरण पेश करते हुए आजन्म विरोधी और घनघोर वैचारिक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और राष्ट्वादी कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाकर मुख्यमंत्री पद पा लिया और तब जनता ने देखा कि उनकी जिद दल के लिये नहीं अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिये थी। हद तो यह थी कि अपने बेटे को भी मंत्री बना डाला। इसकी जो कीमत उन्होंने चुकाई, उसे दरअसल वे कभी कमाने गये ही नहीं थे। यह तो बालासाहेब की पुण्याई से मिला ऐसा खजाना था, जिसे बिगड़ैल संतान ने पलक झपकते उड़ाकर रख दिया।

यूं देखा जाये तो इक्कीसवीं सदी राजनीति में गठबंधन की है, जो सत्ता प्राप्ति के लिये कमोबेश हर दल कर रहा है। कभी चुनाव से पहले तो कभी चुनाव परिणाम आने के बाद। इसके सही-गलत की कोई परिभाषा नहीं है, न ही कोई कानूनी शक्ल। यह दो जरूरतमंदों के बीच तात्कालिक लाभ-हानि के मद्देनजर बनने वाली सहमति है, जो स्वार्थ पूर्ति तक जारी रहती है और जब मतलब निकल जाये तो पहचानते नहीं, वाली बात हो जाती है। भाजपा भी इससे अछूती नहीं। बस अंतर इतना है कि भाजपा ने न्यूनतम वैचारिक प्रतिबद्धता से समझौता नहीं किया, जबकि शेष तमाम मान्यताओं को तिलाजंलि देकर भी यदि सत्ता मिल रही हो तो चिंतन-मनन नहीं करते। उद्धव ठाकरे का कांग्रेस-राकांपा से तालमेल उस बेमेल गठबंधन की ऐसी मिसाल है, जो वैचारिक शून्यता और आदर्शहीन राजनीति में हमेशा पहले क्रम पर रहेगी। यह और बात है कि उद्धव अभी या शायद कभी यह समझ ही नहीं पायें या समझ जायें तो भी स्वीकार नहीं करें कि उनके हस्ते कैसी अक्षम्य और अतुलनीय चूक हुई है, जो उनके राजनीतिक सफर पर पूर्ण विराम लगा देगा। यह घटना महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे परिवार के दबदबे को पूरी तरह मटियामेट कर ही चुकी है, साथ ही राजनीतिक परिवारों के प्रति लोगों की निष्ठा पर भी वज्रपात साबित होगा।

19 जून 1966 को जब दहाड़ते बाघ का प्रतीक चिह्न रखकर बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना नाम से सामाजिक संगठन बनाया था, तब सम्भवत उसके राजनीतिक चरित्र में परिवर्तित हो जाने की कल्पना न रही हो, किंतु यह महाराष्ट्र के जीवन में अपरिहार्य-सा बना गया था। बेशक, उसका प्रभाव मुंबई और कोंकण तक खास व शेष महाराष्ट्र में सीमित था, किंतु उसने अपने संगठन की जड़ों की मजबूती का साफ संदेश तो दिया ही था। ठाकरे साहेब की वैचारिक दृढ़ता, स्पष्टता और नीति-नियम साफ थे। इस संगठन की परिपक्वता के बाद राजनीति में इसके दखल के बाद भी ठाकरे के विचारों में न कहीं भटकाव था, न ठहराव था। सत्ता प्राप्ति का लक्ष्य तो रखा, लेकिन कभी खुद को सामने नहीं रखा। वे चंद्रगुप्त बनकर सत्ता संचालन करने से बेहतर चाणक्य बनना मानते थे और आजन्म किया भी। महाराष्ट्र, मराठी भाषी, हिंदुत्ववादियों और भाजपा के बीच उनकी यह छवि हमेशा बरकरार रही, और सम्मानित भी। राम जन्म भूमि आंदोलन हो, मुंबई से दादा-भाई लोगों के दबदबे को नकेल लगाना हो, मराठी अस्मिता को ऊंचा उठाना हो, हिंदी फिल्म जगत को गुंडों-माफिया से मुक्ति दिलाकर उन्हें भयमुक्त करना हो, बालासाहेब ठाकरे ने कदम पीछे नहीं खींचे। जैसा कि पारिवारिक राजनीतिक दलों में होता है, शिवसेना में भी यह बुराई धीरे-धीरे पनपने लगी। हालांकि महाराष्ट्र विधानसभा, लोकसभा और बृहन्नमुंबई महानगर पालिका में कभी-भी ठाकरे परिवार ने चुनाव नहीं लड़ा, न ही किसी सदस्य को मनोनीत किया। दबदबा तो पूरी तरह से ठाकरे परिवार का ही रहता था, किंतु सत्ता में सीधी भागीदारी से बालासाहेब बचते रहे, कामयाब रहे और इसीलिये उनका मान-सम्मान बढ़ता ही रहा।

यूं तो बाल ठाकरे का निधन 17 नवम्बर 2012 को हुआ, लेकिन उनके उत्तराधिकारी के लिये विवाद प्रारम्भ हो चुका था। बाल ठाकरे ने जब अपने उत्तराधिकारी के लिये मन बनाया तो वास्तविक हकदार उनके भतीजे राज ठाकरे थे, लेकिन हमेशा की तरह पुत्र मोह में बालासाहेब भी उलझ गये और उन्होंने 2004 से अपने बेटे उद्धव को आगे करना प्रारम्भ कर दिया। इससे नाराज होकर शिवसेना के दूसरे स्तंभ माने जाने वाले राज ठाकरे ने बालासाहेब का साथ छोड़कर दिसम्बर 2005 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम से राजनीतिक संगठन खड़ा कर लिया। हालांकि यह महाराष्ट्र की राजनीति में अपना प्रभाव कायम नहीं कर पाया। बालासाहेब के निधन के बाद पारिवारिक विवाद सड़क पर आ गया और 2019 में बेमेल गठबंधन कर सरकार बनाने के बाद उद्धव की जो थुक्का-फजीहत हुई, उसने रही-सही कसर पूरी कर दी । इसके बाद 21 जून 2022 को शिवसेना में नम्बर दो एकनाथ शिंदे ने अनीतिपूर्ण गठबंधन के खिलाफ बगावत कर दी और 56 में से 40 विधायकों को साथ ले भाजपा के सहयोग से सरकार बना ली। राजनीति में ठाकरे परिवार के वारिस को इस तरह से बेइज्ज्त होकर सत्ता से हटना पड़ेगा, यह पांच दशकों में किसी ने नहीं सोचा होगा, लेकिन अति महत्वाकांक्षी उद्धव ने अपने पिता के गौरवशाली अतीत पर कालिख पोत दी। अंतत: ठाकरे परिवार का पांच दशक तक चला राजनीतिक दबदबा खत्म सा हो गया ।

फरवरी 2023 में चुनाव आयोग एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को असल मानकर चुनाव चिन्ह तीर-कमान भी दे चुका है और सारी सम्पत्तियों का हकदार भी ठहरा चुका है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय में याचिका विचाराधीन है। जो भी फैसला आये, अब इतना तो तय है कि ठाकरे परिवार अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। जिस हिंदुत्व और मराठी अस्मिता की राह पर चलकर शिव सेना इस मुकाम तक पहुंची थी, उसे उद्धव ने मुस्लिम तुष्टीकरण और कथित धर्म निरपेक्षता का चोला ओढ़कर मिट्टी में मिला दिया, जिससे महाराष्ट्र की वह जनता भी उससे दूर छिटक गई, जो बालासाहेब के विचारों से प्रभावित होकर जुड़ी थी। उद्धव वो दिन तो अब शायद ही कभी देख पायें।

Leave a Reply