डिग्रियों पर विवाद और ज्ञान की महिमा

अकसर तर्क अंहकार को जन्म देता है, जो अपरिपक्व ज्ञान पर आधारित होता है। हमारे देश में प्रमाण-पत्र और उपाधि (डिग्री) आधारित शिक्षा यही कर रही है। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने के कारण महज कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ही ज्ञान का अधिकारी मान लिया है। जबकि परंपरा अथवा काम के प्रति श्रमसाध्य समर्पण के बूते कौशल – दक्षता हासिल कर लेने वाले राजनेता,समाजसेवी, फिल्म, टीवी व लोक कलाकार, शिल्पकार मारवाड़ी व्यापारी और किसान को अशिक्षित व अज्ञानी माना जाता है। डिग्री बनाम योग्यता जैसे विवादास्पद मुद्दे से जुड़े ऐसे  मामले हाल ही में महात्मा गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संदर्भ में सामने आए हैं।

इसी समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 23 फर्जी विश्वविद्यालय और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची जारी की है।क्या हम इन संस्थानों से अपेक्षा रख सकते हैं कि उनका डिग्री बांटने का आधार योग्यता रहा होगा?जिन केंद्रीय विश्वविद्यालयों को उत्तम शिक्षा देने के लिए खड़ा किया गया था, उनमें से बीते पांच साल के भीतर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के 19 हज़ार से ज्यादा छात्र बीच में ही संस्थान छोड़ गए।केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री सुभाष सरकार ने हाल ही में राज्यसभा में यह जानकारी दी है।जिस देश में उच्च शिक्षा के ऐसे बदतर हाल हों,वहां के सत्ता के कर्णधार उन लोगों की डिग्रियों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं, जो देश-दुनिया में अपनी महानता के बहुआयाम स्थापित कर चुके हैं।इसे उच्च डिग्रीधारियों की सोच की विडंबना ही कहा जाएगा।

सफल टीवी कलाकार व राजनेत्री स्मृति ईरानी के संदर्भ में भी यह सवाल ने उस समय तूल पकड़ा था,जब मात्र बारहवीं कक्षा पास होने के बावजूद  नरेंद्र मोदी ने उन्हें शिक्षा की सभी संभावनाओं से संबद्ध मानव संसाधन विकास मंत्री बना दिया था। उच्च शिक्षा से लेकर सभी भारतीय तकनीकी संस्थान इसी मंत्रालय के अधीन हैं। इसलिए सवाल उठाया गया था कि जो व्यक्ति खुद इंटर तक पढ़ा है, वह शिक्षा के उच्चतम मानकों को कैसे समझेगा ? इस सोच में डिग्री आधारित आभिजात्यवादी मानसिकता रही थी। आधुनिक व अंग्रेजी शिक्षा की इस देन ने हमारे मष्तिस्क के दायरे को संकीर्ण किया है। इससे उबरे बिना कल्पनाशील प्रतिभाओं को उनकी मेधा के अनुरुप स्थान मिलना मुश्किल है।अब यह मुद्दा जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा नरेंद्र मोदी की डिग्री पर उठाए सवालों पर गर्माया हुआ है।सिन्हा ने आइटीएम ग्वालियर में डॉ राममनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यानमाला में अकारण महात्मा गांधी शैक्षिक योग्यता पर बात करते हुए कहा कि  ‘उनके पास एक भी विश्वविद्यालय की डिग्री नहीं थी।उनके पास केवल हाइ स्कूल का डिप्लोमा था।उन्होंने वकालत करने के लिए अर्हता प्राप्त की थी,कोई कानूनी डिग्री उनके पास नहीं थी।’

हालांकि देश और दुनिया ने उनका लोहा किसी कथित डिग्री से नहीं आजादी के संघर्ष और सत्य व अहिंसा के सिद्धांत से माना।इस सिद्धांत के आदर्श किसी पाठ्यक्रम की किताब से नहीं ,बल्कि भारतीय दर्शन के मूल से उन्होंने आत्मसात किए थे।’गीता’ उनकी प्रेरणा की मुख्य आधार रही है।तत्पश्चात भी गांधी के परपोते तुषार गांधी ने जबाव देते हुए कहा कि ‘उन्होंने 10 वीं की परीक्षा राजकोट के अल्फ्रेड हाई स्कूल से उत्तीर्ण की थी।लंदन से भी दसवीं परीक्षा के समकक्ष मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास की थी।यही नहीं लंदन विश्वविद्यालय से संबद्ध इनर टेंपल विधि महाविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और परीक्षा उत्तीर्ण की।इसके अलावा उन्होंने लातिन और फ्रेंच में दो डिप्लोमा हासिल किए थे।’यानी या तो एमटेक होने के बावजूद सिन्हा का ज्ञान अधूरा है या वे पूर्वग्रही मानसिकता से ग्रस्त हैं।

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री मांगने पर गुजरात उच्च न्यायालय ने अरविंद केजरीवाल पर 25 हजार का जुर्माना लगा दिया।तब भी उन्होंने एक बार फिर मोदी की शैक्षिक योग्यता पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि ‘आज देश के सामने एक ही प्रश्न है कि क्या इक्कीसवीं सदी में देश के प्रधानमंत्री पढ़े लिखे होना चाहिए या नहीं?यदि पीएम पढ़े होंगे तो  कोई बहलाकर कहीं भी उनसे हस्ताक्षर नहीं करा पाएगा।’केजरीवाल वही मुख्यमंत्री हैं,जिनके सरकार के शिक्षा मंत्री शराब नीति घोटाले में और सत्येंद्र जैन मनी लांड्रिंग के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में हैं।इस सिलसिले में भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने ठीक ही कहा है कि सत्येंद्र और मनीष से तो दस्तखत किए जाएंगे, लेकिन केजरीवाल खुद केवल पढ़ेंगे और भ्रष्टाचार कराएंगे, ताकि कोई दूसरा निपटे।’खैर इस लेखक का उद्देश्य डिग्री से योग्यता की तुलना करना नहीं है, बल्कि जन्मजात योग्यता का मूल्यांकन करना है।

कुछ दिन पहले खबर आई थी कि मंगलुरू के किसान गणपति भट्ट ने नारियल और सुपारी के पेड़ों पर चढ़ने वाली बाइक बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसी तरह द्वारिका प्रसाद चौरसिया नाम के एक युवक ने पानी पर चलने के लिए जूते बनाए हैं। उत्तरप्रदेश के इस युवक की इस खोज के पीछे की कहानी थी कि उसने सुन रखा था,साधु संत साधना के बाद पानी पर चल सकते हैं। द्वारिका ने तप का आडंबर तो नहीं किया, लेकिन अपनी कल्पनाओं को पंख देकर एक ऐसा जूता बनाने की जुगाड़ में जुट गया, जो पानी पर चल सके। इस तकनीक को इजाद करने में वह सफल भी हुआ और पानी पर चलने वाले एक जोड़ी जूतों का आविष्कार कर लिया। इन दोनों खोजों को ‘नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन‘ ने मान्यता भी दी है।

इस प्रतिष्ठान के प्रोफेसर अनिल गुप्ता और उनकी टीम देश में मौजूद ऐसे लोगों को खोज रहे हैं, जो कम मूल्य के ज्यादा उपयोगी उपकरण बनाने में दक्ष हैं। इस अनूठी खोज यात्रा के जरिए यह दल देश भर में 25 हजार ऐसे आविष्कार खोज चुके हैं, जो गरीब लोगों की मदद के लिए बनाए गए हैं। इसके पहले विश्व प्रसिद्ध फोर्ब्स पत्रिका भी ऐसे 7 भारतीयों की सूची जारी कर चुकी है, जिन्होंने ग्रामीण पृष्ठभूमि और मामूली पढ़े-लिखे होने के बावजूद ऐसी नवाचारी तकनीकें इजाद की हैं, जो समूचे देश में लोगों के जीवन में आर्थिक स्तर पर क्रांतिकारी बदलाव ला रही हैं। लेकिन डिग्री को ज्ञान का आधार मानने वाली हमारी सरकारें ऐसी जकड़बंदी में रही हैं कि वह इन अनूठी खोजों को आविष्कार ही नहीं मानती, क्योंकि इन लोगों ने अकादमिक अर्थात डिग्रीधारी शिक्षा प्राप्त नही की है।

डिग्री ही योग्यता की गारंटी हो, यह ज्ञान को मापने का पैमाना ही गलत है। देश में ऐसे बहुत से पीएचडी और डिलीट हैं, जो प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। सरकारी नौकरी पाने में असफल रहे, ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जिन्होंने कोचिंग संस्थाएं खोलकर लाखों चिकित्सक व अभियंता बना दिए। दूसरी तरफ हमारे यहां उच्च तकनीकी शिक्षा के ऐसे भी संस्थान हैं, जो बतौर लाखों रुपए कैपीटेशन फीस, मसलन अनियिमित प्रवेश शुल्क लेकर हर साल हजारों डाॅक्टर-इंजीनियर बनाने में लगे हैं। इनकी योग्यता को किस पैमाने से नापा जाए ? मध्यप्रदेश में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) का घोटाला सामने आया है। इसके माध्यम से हजारों लोग रिश्वत के बूते डाॅक्टर, इंजीनियर और पुलिस निरीक्षक बन गए। इस घोटाले में भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के उच्च अधिकारी व उनकी संतानों पर भी मामले दर्ज हुए हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जो डिग्रियां लेकर सरकारी नौकरी में भी आ गए थे। रिश्वत के बूते हासिल इस योग्यता को किस कसौटी पर परखा जाए ?

योग्यता को डिग्री से जोड़कर परखने की यह अभिजात्यवादी सोच ऐसे लोगों की है, जो अपनी संतानों के लिए अनियमित प्रवेश के सभी स्त्रोत खुले रखना चाहते हैं। भारत में सोच की यह मानसिकता कोई नई नहीं है, वर्ण और जाति के आधार पर सनातन चली आ रही है। पुरातन युग में जब भी जाति व वर्ण विषेश व्यक्ति की योग्यता उभरी, तब-तब उसे या तो शंबूक की तरह मार दिया गया या एकलव्य की तरह अंगूठा दक्षिणा में ले लिया गया। महाभारत के सूतपुत्र कर्ण दान में अग्रणी होने के साथ धनुर्विद्या में भी दक्ष थे, लेकिन द्रोपदी-स्वयंवर में यही कर्ण जब मछली की आंख भेदने को धनुष उठाने को तत्पर हुए तो कृष्ण तुरंत ताड़ गए कि कर्ण लक्ष्य साधने में सफल होंगे और फिर कृष्ण के संकेत पर द्रोपदी ने कर्ण से सूतपुत्र होने के कारण विवाह न करने की इच्छा जताकर कर्ण को लक्ष्यभेद करने से रोक दिया। तय है, सत्ता-तंत्र से जुड़े सक्षमों के लिए वास्तविक योग्यता को नकारने के उपाय हमेशा होते रहे हैं।

स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्री बनाए जाने के परिप्रेक्ष्य में दंभ भरा गया था कि यह वही मंत्रालय है, जिसके मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, डाॅ त्रिगुण सेन, प्रो. नूरुल हसन, बीके आरवी राव, पीवी नरसिंह राव, माधवराव सिंधिया, डाॅ मुरली मनोहर जोशी, अर्जुन सिंह और कपिल सिब्बल जैसे उच्च शिक्षित मंत्री रहे । इनके कार्यकाल का आकलन करने पर क्या कहीं ऐसे कोई नीतिगत दस्तावेज मिलते हैं, जिनमें शिक्षा से असमानता दूर करने की स्थायी कोशिशें हुई हों ? बल्कि इस असमानता को और मजबूत करने की दृष्टि से 13 प्रकार की शिक्षा देने वाले विद्यालय खोले गए। इनमें से किसी भी विद्यालय में नवाचार और मौलिक ज्ञान को प्रोत्साहित करने के उपाय नहीं किए जाते। केंद्रीय विद्यालय पब्लिक स्कूलों के सरकारी संस्करण बनकर  रह गए हैं। इनमें केंद्रीय व राज्य सरकार के कर्मचारियों के बच्चों को ही प्रवेश में प्राथमिकता दी जाती है। अन्य वर्ग के बालकों को तभी प्रवेश मिलता है, जब कोई सीट खाली रह जाए। यह भेद केवल समर्थ लोगों के बच्चों को पढ़ाई की अच्छी सुविधा व माहौल मिले, महज इसीलिए नहीं बरता जा रहा ?

हमारे पुर्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दीक्षांत समारोहों में अकसर कहते रहे हैं कि हमारी उच्च शिक्षा गुणवत्तापूर्ण नहीं है, इसलिए विश्व के दो सौ विश्व विद्यालयों में हमारा कोई भी विवि शामिल नहीं है। क्या यहां यह सवाल खड़ा नहीं होता कि जब इतने दिग्गज और उच्च शिक्षा प्राप्त मानव संसाधन विकास मंत्री रहे, तब क्यों शिक्षा गुणवक्तापूर्ण नहीं हो पाई ? भारत में आर्थिक उदारवाद लागू होने के बाद शिक्षा का ऐसा नीतिगत निजीकरण किया गया कि देखते-देखते औपनिवेशिक मानसिकता के अनगिनत विश्वविद्यालयों के टापू खड़े कर दिए गए बावजूद शिक्षा से गुणवत्ता नदारद है, तो इसका दोषी कौन है ? दरअसल शिक्षा बनाम ज्ञान का हश्र इसलिए हुआ, क्योंकि इनमें प्रवेश की पहली शर्त प्रतिस्पर्धी योग्यता न रहकर, पच्चीस-पचास लाख रुपए बतौर शुल्क देने की अनिवार्यता कर दी गई। वह भी इस पूर्वग्रही मानसिकता से जिससे वंचित तबके के लोग पढ़ने ही न पाएं ?तिस पर फर्जी विश्वविद्यालयों ने दखल देकर शिक्षा का और बंटाधार कर दिया।

डिग्रीधारी शिक्षा का षड्यंत्र इसलिए भी रचा गया, जिससे परंपरा से ज्ञान हासिल करने वाले लोग सरकारी नौकरियों से वंचित बने रहें। आज फिल्म और टीवी से जुड़े ज्यादातर कलाकारों की शैक्षणिक योग्यता न्यूनतम है, लेकिन कलाकार श्रेष्ठतम हैं। यदि फिल्म में अभिनय को अकादमिक शिक्षा की बाध्यता से जोड़ दिया जाए तो सिनेमा जगत से  उत्कृष्ट कला का वैसे ही लोप हो जाएगा, जैसे शिक्षा से गुणवत्ता का लोप हो गया है। हमारे प्रसिद्ध लोक गायक और खिलाड़ी भी उच्च शिक्षित नहीं हैं। राष्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह, के. कामराज और बीजू पटनायक भी पढ़े-लिखे नहीं थे। अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकार  और पत्रकार भी पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन उनके रचनाकर्म पर विवि उपाधियां दे रहे हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव भी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं,लेकिन अपने-अपने क्षेत्रों में उन्होंने झंडे गाड़े हुए हैं।

दरअसल, आधुनिक शिक्षा और शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम ने प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की मौलिक कल्पनाशीलता को कुंद करने का काम किया है। माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी के मालिक और दुनिया के प्रमुख अमीर बिल गेट्स गणित में बेहद कमजोर थे और इस विषय में दक्षता हासिल करने की बजाय गैराॅज में अकेले बैठे रहकर कुछ नया सोचा करते थे। तब उनके पास कंप्यूटर नहीं था, लेकिन विलक्षण सोच थी, जिसने कंप्युटर की कृत्रिम बुद्धि के रूप में माइक्रोसाॅफ्ट को जन्म दिया। यदि बिल गणित में उच्च शिक्षा हासिल करने में अपनी मेधा को खफा देते तो साॅफ्टवेयर की कल्पना मुश्किल थी।मदन मोहन मालवीय ने जब काशी हिंदू विवि को स्थापित किया तब उन्होंने विषय विषेशज्ञों को ही संस्थान का प्राध्यापक और रीडर बनाया था। रामचंद्र शुक्ल (इंटर), श्यामसुंदर दास (बीए) आयोध्या सिंह उपध्याय हरिऔध (मिडिल) थे, लेकिन इनके योगयता के आधार पर इन्हें विभाग प्रमुख बनाया गया था। इसी तरह स्नातक नहीं होने के बावजूद देवेंद्र सत्यार्थी को प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘आजकल‘ का संपादक बनाया गया था। प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी महज दसवीं तक पढ़े थे, लेकिन उनकी असाधारण योग्यता के बूते इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका ने उन्हें ‘जनसत्ता‘ का संस्थापक संपादक और ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ का संपादक बनाया था।

प्रसिद्ध लेखक आरके नारायण दसवीं कक्षा में अंग्रेजी में अनुत्तीर्ण हो गए थे, लेकिन कालांतर में यही आरके नारायण अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक बने। डाॅ राधाकृष्णन ने कहा है कि नौकरियों में उपाधि को महत्व नहीं देकर विषय की परीक्षा लेनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति विषय में पारंगत है तो उसे नौकरी में लेना चाहिए। लेकिन नौकरशाही ने इन विद्धानों के कथनों और प्रयोगों को नकार कर मैकाले की डिग्री आधारित पद्धति को आजादी के बाद भी बनाए रखा। जाहिर है, संकल्प के धनी और परिश्रमी लोग औपचारिक शिक्षा के बिना भी अपनी योग्यता साबित कर सकते हैं। उपाधि पढ़ाई-लिखाई निर्धारित संकायों का प्रमाण जरुर होती हैं, किंतु वह व्यक्ति की समग्र प्रतिभा,अंतर्दृष्टि और बहुआयामी योग्यता का पैमाना नहीं हो सकती ?अतएव महात्मा गांधी और नरेंद्र मोदी की डिग्री आधारित योग्यता पर सवाल उठाने वाले बड़े डिग्रीधारी अपनी योग्यता का केवल दंभ भर रहे हैं। कम शिक्षित होने के नाते जन्मजात प्रतिभा को नकारना वास्तविक योग्यता के अनादर के अलावा कुछ नहीं है।

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