समलैंगिक विवाह एक मानसिक बुराई

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अदालतों में जब लाखों प्रकरण लंबित बने रहने का रोना रोया जा रहा हो, तब देश की शीर्ष न्यायालय के न्यायमूर्तियों की पीठ एक ऐसे मुद्दे की माथापच्ची में लगी हो, जिसका वैवाहिक समानता के अधिकार से कोई सीधा वास्ता ही नहीं है। वास्तव में भारत में प्राचीन काल से चली आ रही, विवाह की जो अवधारणा है, उसके अंतर्गत एक जैविक पुरुष और जैविक स्त्री अर्थात विपरीत लिंगियों के बीच विवाह संपन्न होता है। यह मान्यता वयस्क स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंध को सामाजिक मान्यता देती है। इस सर्वमान्य परंपरा में धर्म कर्तव्य के रूप में रति-सुख नैसार्गिक काम-भावना की तृप्ति के रूप में और इसी के प्रतिफल के रूप में जैविक संतान की प्राप्ती है। हिंदू विवाह संस्था की यह सामाजिक संरचना को बनाए रखने का व्यावहारिक और विधि-सम्मत संहिता है। अतएव कहना पड़ेगा कि भारतीय समाज और कानून लैंगिक मुद्दों पर स्पश्ट रुख रखता है।

धर्म इसे केवल सामाजिक स्वीकार्यता देता है, जबकि वास्तव में यह संस्कार प्रकृति की ही एक शारीरिक अवस्था है। नृतत्वषास्त्रियों और प्राणीविदों के अनुसार विपरीत लिंगी मानव समुदाय में यौन संबंधों की शुरुआत बिना किसी सामाजिक संस्कार अथवा बिना विवाह के हुई थी। वैदिक युग में नारियों को अनेक पुरुषों से यौन संबंध बनाने की स्वतंत्रता थी। किंतु विकसित हो रही सभ्यता को एक संहिता से बांधने और संतान के जैविक पिता की निष्चिितता को बनाए रखने की दृश्टि से उद्दालक ऋशि के पुत्र श्वेतकेतु ने चली आ रही सामाजिक स्वीकार्यता को अस्वीकार कर स्त्री-पुरुश को सात वचनों के साथ लिए सात फेरों के माध्यम से परिणय बंधन में बांधा। ये सात वचन परस्पर एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहते हुए कर्तव्य पालन से जुड़े है। अब इस सांस्कृतिक व्यवस्था को कथित बौद्धिक ध्वस्त करने के उपक्रम में लगे हैं। विवाह टूटा तो परिवार की इकाई भी टूट जाएगी। परिवार नियंत्रण की अवधारणा को अपनाकर कौटुंबिक सामुदायिकता को तो हम पहले ही बीती सदी में समाप्त कर चुके हैं।

समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के नजरिए से हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में 2020 में दायर याचिकाओं पर नियमित सुनवाई प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की पांच सदस्यीय पीठ में चल रही है। जबकि यह समझ से परे है कि आखिर इस गैर जरूरी और अप्राकृतिक संबंधों को वैधता देने की जल्दी में अदालत क्यों है ? जिस देश में उच्च आदर्श नैतिक मूल्यों को दुनिया अपनाने को आतुर रहते हुए अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने में लगी है, तब चंद कुलीन तबके के ‘गे‘ और ‘लैस्बियन‘ की अप्राकृतिक स्थिति को वैवाहिक मान्यता की तत्परता क्यों ? इस कड़ी की पहली बाधा न्यायलय भारतीय दंड संहिता की धारा-377 को अपराध के दायरे से 2018 में ही बाहर कर चुका है। हालांकि इस फैसले के समय यह दलील दी गई थी कि एक विषेश मानवीय व्यवहार को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया है। इस आदेष में न तो समलैंगिक विवाह का उद्देष्य अंतर्निहित है और न ही इस आचरण को वैध बनाने की मंषा है। इसकी मान्यता केवल वयस्कों के बीच सहमति से निर्मित संबंधों को एकमत से अपराध के दायरे मुक्त करना रहा है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीष की संवैधानिक पीठ ने सुनाया था। इस याचिका पर एक सौ से ज्यादा ऐसे लोगों ने हस्ताक्षर किए थे, जिनमें विक्रम सेठ, ष्याम बेनेगल, झुम्मा लाहिड़ी और कौषिक बसु  जैसे बुद्धीजीवियों ने दस्तखत किए थे। जबकि दस्तखत करने वालों में ज्यादातर का समलैंगिकता से कोई वास्ता नहीं है।

यह जनहित याचिका समलिंगियों को शारीरिक संबंध बनाने एवं वैवाहिक वैधता की मांग के लिए की गई है। इसे वैवाहिक समानता का अधिकार भी कहा जा रहा है। इसीलिए विशेष विवाह अधिनियम 1954 की इबारत से पति-पत्नी जैसे शब्द-युग्म को विलोपित करने की मांग के साथ दलील दी जा रही है कि ‘स्पाउस‘ अर्थात जीवन-साथी शब्द का इस्तेमाल हो। यह शब्द समलिंगी विवाह को समानता का हक देगा। इसे व्यक्ति का मौलिक अधिकार कहा जा रहा है। जबकि मौलिक अधिकार अनुच्छेद-21 के अंतर्गत अब तक स्थापित प्रक्रिया के आधार पर समलैंगिक विवाह को मौलिक अधिकार के दायरे में संसद की स्वीकार्यता के बिना नहीं रखा जा सकता है। संविधान का अनुच्छेद-21 जीवन के अधिकार की तो गारंटी देता है, लेकिन उसमें समलिंगी अर्थात अप्राकृतिक विवाह का कोई प्रावधान नहीं है।

वैसे भी भारतीय परिवार की अवधारणा एक पति, एक पत्नी और इनके परस्पर समागम से उत्पन्न संतान पर आधारित है, जिसकी तुलना समलैंगिक परिवार और गोद लिए बच्चे से नहीं की जा सकती है। विवाह की यही मान्यता हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई इत्यादि भारतीय धर्मावलंबियों में है। यही नहीं मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूडीएचआर) के अनुच्छेद-16 के अनुसार बालिग स्त्री-पुरुष को बिना किसी जाति, राष्ट्रीयता अथवा धार्मिक बाधाओं के बिना आपस में विवाह कर अपनी परिवारिक इकाई को अस्तित्व में लाने का अधिकार है। इन्हें विवाह के परिप्रेक्ष्य में वैवाहिक जीवन और विवाह-विच्छेद के सिलसिले में भी समानता के अधिकार हासिल हैं। अतएव न्यायालय की पीठ का बलात हस्तक्षेप विवाह के बाद स्थापित होने वाली पारिवारिक इकाई के नाजुक संतुलन को तार-तार करने वाली प्रक्रिया भी साबित हो सकती है ?

भारत सरकार भी समलैंगिक विवाह के पक्ष में नहीं है। नतीजतन केंद्र सरकार ने महाधिवक्ता तुशार मेहता के जरिए षीर्श न्यायालय से आग्रह किया है कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मंजूरी देने की मांग करने वाली याचिकाओं में उठाए गए प्रष्नों को संसद पर छोड़ देने का विचार करे। क्योंकि यह एक जटिल मूद्दा है। इसे मान्यता दी गई तो इसके समाज पर गहरे प्रभाव पड़ सकते हैं। इसके प्रभाव केवल समाज पर ही नहीं बल्कि वैवाहिक राज्य स्तरीय कानूनों पर भी पडेंगे, जो समान नागरिक संहिता लागू नहीं होने के कारण एकरूपता में नहीं ढाले जा सके हैं। अनेक जनजातीय प्रथाओं को भी संवैधानिक वैधता प्राप्त है। इसलिए इस गंभीर और नाजायज माने जाने वाले विशय पर सभी राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों, सामाजिक संस्थाओं और अन्य समुदायों के बीच विचार-विमर्श के बाद निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।

विशेष विवाह कानून और अन्य राज्य सरकारों द्वारा निर्मित विवाह कानूनों के अलावा 160 ऐसे कानून हैं, जो समलैंगिक विवाह की वैधता के बाद अप्रासंगिक हो सकते हैं ? इसलिए इस विशय को संसद पर छोड़ना ही बेहतर होगा। दरअसल 400 अभिभावकों के समूह ने प्रधान न्यायाधीष को पत्र लिखकर अपने एलजीबीटीक्यूआइए अर्थात लेस्बियन गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, पैनसेक्सुअल, टू स्प्रीट, एसेक्सुअल और अन्य बच्चों के लिए विवाह में समानता का अधिकार मांगा है। पत्र के अनुसार हम अपने जीवनकाल में अपने बच्चों के सतरंगी विवाह पर कानूनी अधिकार की इच्छापूर्ति की उम्मीद कर रहे हैं। हमारी इच्छा है कि हमारे बच्चों और उनके जीवनसाथी के संबंधों को देश में प्रचलित विशेष विवाह अधिनियम के तहत मान्यता मिले। यह याचिका ‘स्वीकार द रेनबो पैरेंट्स‘ संस्था की ओर से दाखिल की गई है।

इस इंद्रधनुषी ‘स्वीकार‘ समूह की स्थापना भारतीय समलैंगिक बच्चों के माता-पिता ने की है। ये बच्चे गोद लिए हुए हैं। वे इन बच्चों को भी समलिंगी बनाए रखना चाहते हैं, इसलिए वैवाहिक वैधता की मांग कर रहे हैं। इस विवाह को मान्यता देना सरकार के लिए निष्चित ही एक बड़ी चुनौती है, लेकिन वह इनके मानवीय, वित्तीय और सामाजिक कल्याण से जुड़े हितों को साधने का काम कर सकती है। इनमें समलैंगिक जोड़ो को संयुक्त बैंक खाता, बीमा पाॅलिसी में जीवनसाथी को नामित करने के अधिकार के साथ, इनके बच्चों के षैक्षिक प्रमाण-पत्रों में जैविक माता-पिता के स्थान पर समलिंगी अभिभावकों के नाम जोड़ने की अनुमति दे सकती है। परंतु विडंबना है कि जब ये अधिकार मिल जाएंगे, तो इनकी समलिंगी विवाह को कानूनी आधार देने की और मजबूत पृश्ठभूमि बन जाएगी। इसलिए सरकार दुविधा में है।

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