सुपर पावर : चीन का दिवास्वप्न

चीन की खुराफातों का अंत नहीं है। अमेरिका के घटते कद के बीच वह अपने आप को ‘सुपर पावर’ समझने लगा है जबकि, चीन के अंदरूनी हालात काफी खराब हैं। तिब्बत, मंगोलिया और शिंजियांग जैसी जगहों पर अनाधिकार कब्जे के कारण कागज पर उसकी भौगोलिक स्थिति काफी सुद़ृढ़ दिखती है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है।

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् अमेरिका और सोवियत यूनियन जैसे देश दुनियाभर में मठाधीश के तौर पर उभरे। आगे चलकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध शुरू हुआ जो 1991 में सोवियत यूनियन के टूटने के साथ समाप्त हो गया। पिछले दो दशकों में अमेरिका की चमक भी कम हुई है। ऐसे में चीन ने अपने ड्रैगन की पूंछ एशिया और अफ्रीका में फैलानी शुरू कर दी है। श्रीलंका और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था डुबाने के बाद चीन मुगालते में आ गया है कि वह अमेरिका और सोवियत यूनियन की ही भांति ‘सुपर पावर’, यूं कहें मठाधीश बनने की कगार पर है। परंतु उसके इस दिवास्वप्न के बीच भारत जैसा मजबूत हिमालय है, जिसकी ओर आज कल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सभी बड़े देशों की नजर अपने आप उठ जाती है।

इसलिये गलवान और तवांग में मुंह की खाने के बाद इस बार उसने किताबी खुराफात की है, जिस पर भारत या संयुक्त राष्ट्र केवल शाब्दिक विरोध ही दर्शा सकते हैं। इस बार चीन ने अरुणाचल प्रदेश में ग्यारह स्थानों के नाम बदल दिये हैं। इसके माध्यम से चीन भारत को दबंगई दिखाना चाहता है। उसे पता है कि अमेरिका पर भी दबाव डालना पड़ेगा इसलिए चीन ने साइबर सिक्योरिटी का हवाला देते हुए अमेरिकी चिप मेकिंग कम्पनी माइक्रॉन टेक्नोलॉजी के खिलाफ जांच शुरू कर दी है। इसे चीन और अमेरिका के बीच चल रहे प्रॉक्सी टेक्नोलॉजी वॉर का हिस्सा माना जा रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन इस तरह की हरकतों से दुनिया को अपनी ताकत का अहसास कराना चाहता है, ताकि उसे ‘सुपर पावर’ का दर्जा मिल जाए। चीन का आर्थिक पक्ष इस समय बहुत मजबूत है। उसे लगता है कि इसके बलबूते वह ‘सुपर पावर’ बन जाएगा। यह दिवास्वप्न कुछ ऐसा ही है, जैसे भारत का कोई सबसे ज्यादा पैसे वाला व्यक्ति पैसों के बल पर एक राजनीतिक दल बनाकर देश का प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा बना ले, जबकि लोगों के बीच उसकी लोकप्रियता शून्य हो।

ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि, आखिर किसी देश को ‘सुपर पावर’ कहने का अर्थ क्या होता है? यह दर्जा हासिल करने के लिए किन कसौटियों पर किसी देश को परखा जाता है, और क्यों चीन ‘सुपर पावर’ नहीं बन सकता? यह सत्य है कि वर्तमान में इकोनॉमी के आकार के आधार पर विश्व की दो धुरियां जरूर हैं। एक धुरी अमेरिका और दूसरी धुरी चीन है। मगर बाकी हर पैमाने पर चीन अभी बहुत कमजोर है। आगे हम ‘सुपर पावर’ बनने के मापदंडों यानी डेमोग्राफी(जनसांख्यिकी या जनसंख्या वितरण), जियोग्राफी(भूगोल), संसाधन, आर्थिक क्षमता, सैन्य ताकत, राजनीतिक स्थायित्व और नीतिगत योग्यता पर चर्चा करेंगे। साथ ही, पता करने की कोशिश करेंगे कि चीन इन मापदंडों पर कितना खरा उतरता है।

डेमोग्राफी

(जनसांख्यिकी या जनसंख्या वितरण)

2022 में चीन में 1.41 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई, जबकि सिर्फ 95.6 लाख बच्चों ने जन्म लिया। 60 सालों में ऐसा पहली बार हुआ कि चीन में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या, मरने वालों से कम थी। इस वर्ष यह अंतर और बढ़ने की सम्भावना है। लम्बे समय तक ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ को सख्ती से लागू करने वाले चीन के सामने अब दिक्कत खड़ी हो गई है। 2016 से इस नीति में छूट देते हुए ‘थ्री चाइल्ड पॉलिसी’ भी आ गई है, लेकिन अब युवा शादी और परिवार से दूर भाग रहे हैं। 2035 तक चीन की एक तिहाई आबादी, यानी 40 करोड़ लोग, 60 वर्ष की उम्र से ऊपर के होंगे। मतलब ये कि चीन में कमाने वाले कम और पेंशन पाने वाले ज्यादा होंगे। इसका असर यह होगा कि सरकार की सालाना आमदनी खर्चे से कम होती जाएगी। 2012 में अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस काउंसिल ने अपनी रिपोर्ट ग्लोबल ट्रेंड्स 2030 में भविष्यवाणी की थी कि चीन अमीर होने से पहले बूढ़ा हो जाएगा।

जियोग्राफी(भूगोल)

चीन का कुल क्षेत्रफल 97,06,961 वर्ग किमी. है। मगर उसकी 71% आबादी सिर्फ 46 लाख वर्ग किमी. में रहती है। यही वो इलाका है जिसे चीन का हार्टलैंड कहा जाता है। यह क्षेत्र येलो और यांग्त्से नदियों के बीच में फैला है, जबकि क्षेत्रफल में अमेरिका का आधा है। चीन के कुल भूभाग का 40% हिस्सा 3 सबसे बड़े राज्यों शिंजियांग, तिब्बत और इनर मंगोलिया में समाया है। ये तीनों ही इलाके चीन ने बंदूक के दम पर कब्जा रखे हैं। इन तीन राज्यों को हटा दें तो चीन का क्षेत्रफल लगभग भारत के बराबर हो जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी जरा भी कमजोर दिखी तो यहां कभी भी विद्रोह हो सकता है।

संसाधन

चीन के पास हर संसाधन आवश्यकता से कम है। साल में दो फसलें भी पूरे देश में नहीं उगायी जा सकती। सिर्फ येलो और यांग्त्से नदियों के बीच का हिस्सा ही ऐसा है जहां साल में दो फसलें उगाई जा सकती हैं। मगर औद्योगीकरण के कारण ये नदियां भी इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि अक्सर समुद्र में मिलने से पहले सूख जाती हैं। चीन की कुल जमीन के सिर्फ 10% हिस्से में ही खेती हो सकती है। ज्यादातर इलाकों में पहाड़ों पर सीढ़ीदार खेत ही हैं। खेती की जमीन ही नहीं, जंगल, खाद, खनिज और ईंधन जैसे संसाधन भी चीन में जरूरत से कहीं कम हैं। इसी कमी को पूरा करने के लिए चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट पर इतना जोर देता है।

आर्थिक क्षमता

चीन जीडीपी के आधार पर विश्व में अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर है। इसी आधार पर वह खुद को एक ‘सुपर पावर’ मानता है। लेकिन जुलाई, 2021 में चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग ने खुद एक आर्टिकल में लिखा था कि चीन को इनफ्लेटेड (हवाई) जीडीपी की बजाय सचमुच के आर्थिक विकास पर ध्यान देना होगा, क्योंकि चीन का इनफ्लेटेड कर्ज उसकी जीडीपी के 273% से ज्यादा है। आइएमएफ का कहना है कि 2028 तक चीन की अर्थव्यवस्था की ग्रोथ रेट 4.5% के आस-पास बनी रहेगी। वहीं 2028 से 2037 के बीच ये घटकर 3% रह जाएगी, जबकि सतत विकास के लिए इसका 4.7% रहना आवश्यक होगा। चीन एक्सपोर्ट पर निर्भर है। एक्सपोर्ट बढ़ता है तो युआन की कीमत बढ़ेगी और प्रोडक्शन महंगा हो जाएगा। वहीं, अगर एक्सपोर्ट घटा यानी दुनिया ने चीन से चीजें खरीदना बंद किया तो बेरोजगारी काबू के बाहर हो जाएगी।

सैन्य ताकत

ताइवान पर हमला करना हो तो चीन के पास पर्याप्त नावें तक नहीं हैं। ताइवान एक द्वीप है जिस पर आक्रमण करने के लिए चीन को करीब एक लाख सैनिकों को नावों के जरिए भेजना होगा। यानी चीन खुद को सैन्य ताकत के रूप में दिखाना चाहता है, लेकिन एक्सपर्ट मानते हैं कि वह अभी सैन्य तकनीक में काफी पिछड़ा है। अमेरिका का साल 2023 का डिफेंस बजट करीब 70 लाख करोड़ रुपए है। इसकी तुलना में चीन का बजट मात्र एक चौथाई ही है। चीन की सेना में एक बड़ी खामी भी है। इधर के दशकों में उसके पास किसी भी बड़े युद्ध का अभ्यास नहीं है। यही कारण है कि यूक्रेन युद्ध में चीन रूस का खुले तौर पर सहयोग नहीं कर पा रहा।

राजनीतिक स्थायित्व

चीन में शांति सिर्फ छलावा है। वहां लोगों के प्रदर्शन दबा दिए जाते हैं। चीन की सरकार ने देश में सूचना तंत्र को पूरी तरह से अपने कब्जे में रखा है। बाहर के किसी भी मीडिया का चीन में घुसना मना है। हांगकांग से लेकर तिब्बत और शिंजियांग तक हर साल हजारों विरोध प्रदर्शन होते हैं। कोरोना के सख्त लॉकडाउन और आर्थिक मंदी के विरोध में शहरों में लोग सड़कों पर उतर आए, लेकिन बाहरी मीडिया को इसकी सिर्फ थोड़ी ही जानकारी मिल पाई। कोविड नीति आज राजनीतिक अस्थिरता का कारण बन रही है। जनता में रोष है और पार्टी में भी जिनपिंग के लिए चुनौतियां उभरने लगी हैं।

नीतिगत योग्यता

चीन में पॉलिसी ज्यादातर तात्कालिक समस्या को देखकर बना दी जाती है। उसका भविष्य पर असर क्या होगा, ये नहीं सोचा जाता। इसका एक बड़ा उदाहरण है उसकी ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’। इसकी वजह से आज चीन की सेना के पास जवानों की कमी हो गई है। दरअसल, वन चाइल्ड पॉलिसी की वजह से ज्यादातर चीनी परिवार बेटा चाहने लगे। आज स्थिति यह है कि ज्यादातर परिवारों में सिर्फ एक बेटा ही है और परिवार नहीं चाहता कि वो सेना में जाकर शहीद हो जाए। ऐसे में लोग अपने बच्चों को सेना में भेजते ही नहीं हैं। इसी तरह, चीन का वैक्सीन पूरी तरह से नाकाम रहा है और इसलिए चीन में अभी भी लोग लॉकडाउन झेल रहे हैं। चीन में 140 करोड़ से ज्यादा की आबादी एक आदमी के दिमाग पर निर्भर हो गई है।

चीन पूरे विश्व में अपने ड्रैगन की पूंछ पहुंचा देना चाहता है। लेकिन दिन ब दिन बढ़ते ड्रैगन के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ‘देश के सर्वांगीण विकास का संतुलित आहार’ अति आवश्यक है, जिसकी ओर वहां के कम्युनिस्ट प्रशासन का कोई ध्यान ही नहीं है। जिस पैसे का उपयोग अपने देश की जनता के विकास हेतु करना चाहिए, वह पैसा चीन छोटे या कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों को कर्जजाल में फंसाने के लिए कर रहा है। जाहिर सी बात है, ड्रैगन लगातार अंदर से कमजोर हो रहा है, उसके अंदरूनी अंग बीमार हैं लेकिन अर्थ का रंग रोगन लगाकर उसकी चमक से दुनिया को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है। इसलिए चीन को समझ जाना चाहिए कि भविष्य अंधकारमय है। वैश्विक महाशक्ति बनने की बजाय अपने जनता जनार्दन के विकास पर ध्यान दें क्योंकि भविष्य में चीन जैसे राष्ट्र का दिवालिया होना वहां के लिए तो भयावह है ही, वैश्विक संतुलन के लिए कम खतरनाक नहीं होगा।

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