मध्य प्रदेश की साहित्यिक राजधानी

इंदौर न केवल एक अर्थ समृद्ध शहर है, अपितु यहां पर साहित्यिक विकास भी प्रचूर मात्रा में हुआ। इंदौर की साहित्यिक संस्थाओं एवं साहित्यकारों ने हिंदी, मराठी सहित अन्य भाषाओं को समृद्ध करने में भरपूर योगदान दिया है।

मालवा की धीर, वीर, गम्भीर और रत्नगर्भा धरती की यह एक खासियत है कि यहां की तासीर में प्रेम, सौहार्द्र और मिठास घुली हुई है। मालवा की खुबसूरती और शाम का दीवाना शहर इंदौर अपने आप में अहिल्या की धरती के नाम से प्रसिद्ध है। शासन व्यवस्था की अद्भुत मिसाल के रूप में देशभर में सर्वमान्य शासिका पुण्यश्लोका अहिल्या के नगर के रूप में इंदौर स्वीकार्य है। भौगोलिक दृष्टि से इंदौर 22 डिग्री 43 उत्तर अक्षांतर और पूर्व में 75.50 देशांतर पर स्थित है।

इंदौर से जब नीचे की तरफ रुख किया जाता है तो विंध्याचल एवं सतपुड़ा की सुंदर पर्वत शृंखलाएं बावनगजा के यहां मिलती हुई लगती हैं। इंदौर के इर्द-गिर्द छोटी-छोटी पर्वत शृंखलाएं वस्तुत: विंध्याचल पर्वत शृंखला की ही शाखाएं हैं, जो मांडवगढ़ के यहां विराट हो जाती हैं। जलवायु की दृष्टि से इंदौर शब-ए-मालवा के तहत आता है, जहां का समशीतोष्ण मौसम खुशनुमा रहा है। इंदौर की उत्पत्ति, जूनी इंदौर से मानी जाती है। ऐसे भौगौलिक विस्तार के साथ-साथ इंदौर संस्कृति, कला और साहित्य का तीर्थ स्थल भी है।

हिंदी पत्रकारिता और हिंदी साहित्य के स्वर्णाक्षर में अंकित इंदौर प्रारम्भ से साहित्य, कला और सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश का समन्वय माना जाता रहा है। इसके इतिहास की नींव में नामचीन कलाधर्मियों और साहित्यकारों का पसीना शामिल है। हिंदी पत्रकारिता की नर्सरी के साथ-साथ हिंदी साहित्य की दीपमालिका का प्रज्वल्लित दीप इंदौर को माना जाता रहा है। इंदौर के बारे में यह माना जाता है कि इंदौर कस्बे का प्रभाव 17वीं शताब्दी में शुरू हुआ। इतिहासकार रघुवीर सिंह के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में 17वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों के सनदों में कस्बा इंदौर का उल्लेख मिलता है। 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में एक प्रमुख प्रशासनिक मुख्यालय के रूप में इंदौर परगने यानी तहसील का उल्लेख मिलता है। तब इंदौर, सरकार उज्जैन, सूबा मालवा का परगना था। उज्जैन में मालवा का प्रशासनिक मुख्यालय था, जो मुगलों की सल्तनत में ही था। ऐेसे उल्लेख लगभग सन् 1720 के दस्तावेजों में मिलते हैं। इसके बाद सन् 1724 के दस्तावेजों के संदर्भों में परिवर्तन मिलता है और तब इंदौर को सूबा इंदौर, सरकार उज्जैन, परगना कम्पेल कहा जाने लगा। उस समय तक होलकर सत्ता का उत्कर्ष नहीं हुआ था।

पृथक, स्वायत्त सत्ता प्रमुख के रूप में होलकरों का आधिपत्य इंदौर पर वर्ष 1730 में कायम हुआ, जब पेशवाओं ने उन्हें जागीर प्रदान की। स्व. डॉ. वि. श्री. वाकणकर तथा म. प्र. पुरातत्व विभाग के पूर्व उप-संचालक विद्वान पुरातत्वविद् स्व. एस.के. दीक्षित की यह मान्यता है कि राष्ट्रकूट शासक इंद्र, जिसका कि मालवा पर शासन रहा था, के नाम पर इस नगर का नाम इंद्रपुर पड़ा, जो आगे चलकर इंदूर और फिर इंदौर हो गया। अन्य किंवदंतियों के अनुसार 1741 में इंद्रेश्वर मंदिर की स्थापना हुई। इस मंदिर के नाम पर इस स्थान का नामकरण संस्कार पहले इंद्रेश्वर और बाद में इंद्रपुर रखा गया, किंतु ऐतिहासिक तत्व कुछ अन्य हैं, क्योंकि इंद्रेश्वर मंदिर के निर्माण के 8 वर्ष पूर्व 1732 में ही इंदौर कस्बा होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होलकर को पेशवा द्वारा जागीर में दिया गया था। कालांतर में मराठा साम्राज्य के प्रभाव के कारण इंद्रपुर, इंदूर कहलाने लगा होगा। फिर जब 19वीं शताब्दी में पाश्चात्य शिक्षा व अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ा, तब ‘इंदूअर’, ‘इंदुअर’ कहलाते-कहलाते इंदौर हो गया।

1931 में डॉ. धारीवाल द्वारा प्रकाशित तत्कालीन राज्य के अधिकृत गजेटियर के अनुसार, अहिल्याबाई को इंदौर इतना पसंद आया कि मल्हारराव (प्रथम) के स्वर्गवासी होने के बाद जब पहली बार उन्होंने यहां अस्थायई मुकाम किया, तब जिला अधिकारियों को आदेश दिया कि वे कार्यालय कम्पेल से इंदौर स्थानांतरित करें और तब उन्होंने कान्ह नदी के पार पुराने शहर के सामने नए शहर की स्थापना की। अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव को यह स्थान इतना पसंद आया कि नदी को रोककर उन्होंने स्नान करने के लिए एक तालाब बनाया, जो हाथीपाला कहलाया। अहिल्याबाई द्वारा इंदौर को राज्य का सैनिक केंद्र बनाने के फलस्वरूप इस स्थान का विकास हुआ। किंतु वे स्वयं तब भी स्थाई तौर पर महेश्वर में ही रहती थीं। उसी को उन्होंने 1766 में सत्ता प्राप्ति के बाद नागरिक राजधानी के रूप में चुना था। यह स्थिति उनके जीवनकाल तक बनी रही। 1766 में मल्हारराव (द्वितीय) के गद्दी पर आने के बाद उन्होंने इंदौर को राज्य की राजधानी बनाया। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव एवं औद्योगिक विकास से इंदौर अछूता नहीं रहा। 19वीं सदी से ही इस नगर का औद्योगिक विकास प्रारम्भ हो चुका था। इसी की वजह से कालांतर में इंदौर एक प्रमुख औद्योगिक नगर बन गया। इसका श्रेय संगठित मजदूर संघों को भी है, जिन्होंने इंदौर को राष्ट्र के नक्शे पर स्थापित किया। कपड़ा उद्योग नगर के विकास की बुनियाद रहा। इस उद्योग की स्थापना 1871-72 में तत्कालीन शासक महाराज तुकोजीराव (द्वितीय) ने शासकीय स्तर पर की थी। इससे इस प्रमाण को बल मिलता है कि शासक एवं व्यवसायियों में बेहतर समन्वय था, जिसकी वजह से यहां वस्त्र व अन्य उद्योग विकसित हुए। एम.टी. क्लॉथ मार्केट आज तक इसका साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा है।

होलकर राज्य एक तंत्रीय शासन होते हुए भी यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन होलकर राज्य के शासकों ने राज्य में स्वायत्त शासन के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। 1870 में इंदौर में नगर पालिका की स्थापना हुई। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी इंदौर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 1857 के पहले संग्राम के समय से ही इंदौर लोकतांत्रिक परम्पराओं के प्रति संवेदनशील रहा है। 1893 में जब पुणे में बाल गंगाधर तिलक ने पहला गणपति उत्सव मनाया था, उस प्रजातांत्रिक चेतना को इंदौर में भी अभिव्यक्ति मिली थी। इंदौर में तिलक से प्रेरित होकर 1896 में गणपति उत्सव मनाया गया था। आजादी की लड़ाई के लिए संस्थाएं सक्रिय होना शुरु हो गई थीं और 1907 में ज्ञान प्रसारक मंडल नाम की संस्था बनी थी। इसके साथ इंदौर के कलाधर्मी होने के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। 1918 में पहली बार जब महात्मा गांधी इंदौर आए थे तो हिंदी साहित्य समिति भवन की स्थापना का संकल्प लिया गया था। गांधीजी ने इंदौर से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का शंखनाद किया था। दूसरी बार गांधीजी 1935 में इंदौर आए थे। इंदौर के साहित्यिक सौष्ठव के बारे में चर्चा करने से पूर्व इंदौर के गौरवशाली इतिहास की ओर नजर डालना अनिवार्य है। यही वो शहर है जहां से महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लिया था।

हिंदी प्रचार-प्रसार हेतु कार्यरत देश की प्राचीनतम और शीर्षस्थ संस्थाओं में से एक श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर में ही है। सारे देश में राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार-प्रसार कर देशवासियों में सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के उद्देश्य से समिति की स्थापना 29 जुलाई 1910 को इंदौर में हुई थी। मध्यभारत की विख्यात शिक्षण संस्था डेली कॉलेज के प्राध्यापक प. कृष्णानंद मिश्र और श्यामलाल शर्मा ने एक पुस्तकालय के रूप में समिति का बीजारोपण किया था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित इस संस्था का एक शताब्दी का इतिहास आज भी साहित्यधर्मा इंदौर की बानगी कहता है। 1915 में मुम्बई और फिर सूरत में हुए साहित्य सम्मेलनों में समिति के तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉ.सरजूप्रसाद तिवारी और प्रोफेसर दुर्गाशंकर रावल ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का संकल्प पारित कराया था। इसके पश्चात समिति ने देशी रियासतों और राज्यों में हिंदी के प्रचार के लिए एक व्यापक जन-आंदोलन खड़ा किया। डॉ.तिवारी और उनके सहयोगियों के प्रयास से रीवा, दतिया, झाबुआ, देवास, सैलाना, रतलाम, पन्ना, चरखारी, अलीराजपुर, राजगढ़, प्रतापगढ़, नरसिंहगढ़, झालावाड़, डूंगरपुर, खिलचीपुर, मैहर, धार और बड़वानी सहित मध्यभारत और राजस्थान की लगभग तीस रियासतों के राजाओं ने हिंदी को अपने राज्य मेें राजकाज की भाषा घोषित कर दिया था।

इनमें से कई राजाओं ने समिति के संरक्षक का दायित्व भी स्वीकार किया था। 1915 में समिति द्वारा उद्घोषित स्वर को अपना समर्थन देते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1918 में समिति के इंदौर स्थित परिसर से ही सबसे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आह्वान किया था। यहां हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन में तत्कालीन मद्रास प्रांत में हिंदी प्रचार सभा की स्थापना का संकल्प लेकर उसके लिए धन एकत्रित किया गया। इस तरह दक्षिण भारत के राज्यों में हिंदी भाषा के प्रचार के पहले प्रयास में श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति ने अत्यंत उल्लेखनीय और प्रभावशाली भूमिका निभाई। वर्धा स्थित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना में भी समिति की ऐतिहासिक भूमिका रही है। हिंदी भाषा के इतिहास में इस अधिवेशन को मील का पत्थर माना जाता है।

इसी अधिवेशन में बापू ने अपने पुत्र देवदास गांधी, पंडित हरिहर शर्मा और पंडित ऋषिकेश शर्मा को हिंदी दूत बनाकर दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार करने भेजा था। सम्भवतः यह विश्व का पहला ऐसा उदाहरण है जब किसी महापुरुष ने धर्म या विचार का नहीं बल्कि भाषा का प्रचार करने के लिए दूत भेजे थे। इस अधिवेशन में  एकत्रित राशि से ही तत्कालीन मद्रास प्रांत में हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई थी। इस तरह देश के अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रचार का पहला प्रयास समिति से ही प्रारम्भ हुआ। आज दक्षिण और पूर्वी राज्यों में हिंदी का जो स्वरूप दिख रहा है, उसका बीजारोपण समिति ने ही किया है। इसी अधिवेशन के दौरान बापू ने 29 मार्च 1918 को समिति के भवन का भूमि पूजन भी किया था।

इसके बाद 1926 में समिति ने हिंदी विद्यापीठ की स्थापना की। इस विद्यापीठ के माध्यम से समिति ने कई वर्षों तक हिंदी शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य किया। समिति में इस विद्यापीठ की स्थापना का श्रेय पं.श्रीनिवास चतुर्वेदी को जाता है। वे ही इस विद्यापीठ के पहले अधिष्ठाता बने। उनके अलावा पण्डित कमलाद्गांकर मिश्र और वीणा के सम्पादक पं.कालिकाप्रसाद दीक्षित कुसमाकर ने भी विद्यापीठ की स्थापना और संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गांधीजी 1935 में पुनः इंदौर आए। उन्होंने समिति द्वारा किये जा रहे कार्यों की समीक्षा की और पदाधिकारियों को दिशा निर्देशित किया। हिंदी साहित्य सम्मेलन के 24 वें अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए बापू ने पुनः हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प दोहराया। इसी सम्मेलन में आचार्य काका साहेब कालेलकर ने वर्धालिपि का प्रस्ताव रखा और साहित्य परिषद् के अध्यक्ष आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने काव्य में अभिव्यंजनावाद विषय के स्वरूप का निर्धारण किया। इस अधिवेशन की बचत की राशि से ही वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हुई। इसके बाद 1940 में हिंदी विद्यापीठ की स्थापना की गई।

स्वतंत्रता के ठीक बाद 1948 में (17 से 19 जनवरी तक) समिति का वार्षिकोत्सव एवं राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित किया गया। इस वैचारिक आयोजन में साहित्य, शिक्षा और पत्रकारिता के क्षेत्र को नई दिशा देने के उद्देश्य से सार्थक चिंतन हुआ, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं प्रधान मंत्री को भेजा गया।

इंदौर के साहित्यिक गौरव में दर्ज है पुस्तकालय, जिसमें है 50 हजार किताबों का संग्रह। समिति की शुरुआत ही पुस्तकालय से हुई थी। 1910 से पुस्तकालय का संचालन शुरू हुआ और अब यहां करीब 50 हजार किताबें हैं। इनमें हिंदी साहित्य की कई दुर्लभ किताबें भी यहां मिल जाएंगी। कई प्रमुख लेखकों, रामधारीसिंह दिनकर, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त की किताबों का बड़ा संग्रह है।

बात हिंदी पत्रकारिता की आरम्भ करें तो इंदौर हिंदी पत्रकारिता का भी गढ़ रहा है। हिंदी पत्रकारिता में देश को श्रेष्ठ सम्पादक और पत्रकार देने का श्रेय इंदौर को जाता है, उन मूर्धन्य सम्पादकों और पत्रकारों में हैं: राहुल बारपुते, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर, शरद जोशी, माणिकचंद वाजपेयी मामाजी सहित डॉ. वेदप्रताप वैदिक, जयकृष्ण गौड़, कृष्ण कुमार अष्ठाना, आदि।

हिंदी साहित्य की परिधि में भी इंदौर सदा से ही उल्लेखनीय रहा है। देश के जाने-माने साहित्यकार हरि कृष्ण प्रेमी से लेकर डॉ. गणेश दत्त त्रिपाठी, श्यामसुंदर व्यास, आनंद राव दुबे, कृष्णकांत मंडलोई, चन्द्रसेन विराट, डॉ. सतीश दुबे, प्रमेश व्यास, परमेश्वर दत्त शर्मा, गजानंद शर्मा के साथ ही अनेक साहित्यकार इंदौर के साहित्यिक परिदृश्य को जीवंत रखने में अपनी भूमिका निभाते थे। वर्तमान में मालती जोशी, राजकुमार कुम्भज, सरोज कुमार इत्यादि नामचीन साहित्यकारों का जोहर भारत मानता रहा है।

इंदौर शहर से ही राजकुमार कुम्भज भी अपनी विशिष्ट छवि और कविताओं के लिए जाने जाते थे, अज्ञेय ने चौथा सप्तक में इंदौर से राजकुमार कुम्भज की कविताओं का चयन कर इस बात पर मोहर लगा दी थी कि हिंदी कविता के कुम्भ भी इंदौरी हैं। हिंदी की वाचिक परम्परा में भी कई शीर्ष कवियों को इंदौर ने पल्लवित और पोषित भी किया, महादेवी वर्मा उनमें से एक हैं। वर्तमान दौर में सत्यनारायण सत्तन का जिक्र करना भी बेहद जरूरी है। इंदौर के नगर निगम में रमेश महबूब, रघुनंदन राय अनुरागी और श्याम कुमार श्याम बेहद सक्रिय कवि थे, खासकर रमेश महबूब तो अपनी एक अलग ही पहचान रखते थे।

इसी साहित्यिक अवदान में इंदौर ने पुस्तक संस्कृति को भी पल्लवित और पोषित किया है। इंदौर के पुस्तक भंडार भी देश के लिए अमूल्य रहे, जिसमें सर्वोदय पुस्तक भंडार, पुस्तक सदन जैसे कई नामचीन पुस्तक भंडार इंदौर की धरोहर हैं। इसी के साथ उर्दू साहित्य में भी इंदौर सदैव से गर्वित रहा, उस्ताद परम्परा का बखूबी निर्वहन करते हुए इंदौर ने नामचीन शायर देश और दुनिया को दिए हैं। इनमें से साबिर गोवालयरी, सादिक इंदौरी, सुदीप बनर्जी, संतोष खिरवड़कर, शाहनवाज अंसारी, शादां इंदौरी, राहत इंदौरी, राजिक अंसारी, नूर इंदौरी, काशिफ इंदौरी महमूद नश्तरी, मसीहुद्दीन शारिक, पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक बहुत प्रसिद्द रहे। राहत इंदौरी के शे’र और गजलें तो पूरी दुनिया में छाई रहीं, उन्होंने फिल्मों में गीत भी लिखे हैं। हिंदी साहित्य में इंदौर का जितना योगदान है, उसी समकक्ष मराठी साहित्य और कला में भी इंदौर के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता।

इंदौर मूलतः व्यावसायिक नगरी है, इसलिए यहां पंजाबी, मराठी और सिंधी सहित कई भाषाभाषियों ने रहना आरम्भ किया और इसके साथ वहां की संस्कृत आदि भाषाओं के इस कारण इंदौर बहुभाषी शहर बना। अन्य राज्यों के लोगों के साथ वहां की संस्कृति, परिवेश, खानपान सहित भाषा भाषाई रहने लगे, इसी के साथ वहां की साहित्यिक समिधा ने भी इंदौर शहर में ख़ासा हस्तक्षेप रखा। इंदौर की ही मातृभाषा उन्नयन संस्थान ने देशभर में हिंदी का प्रचार आंदोलन खड़ा किया, वहीं क्षितिज, विचार प्रवाह ने लघुकथा के क्षेत्र में कार्य कर मानक स्थापित किए, हिंदीपरिवार, मालवी जाजम, वामा, लेखिका संघ इत्यादि संस्थाएं भी लगातार आयोजनों के माध्यम से शहर की साहित्यिक फसल को उन्नत कर रही हैं। प्रचुर साहित्यिकी अवदान के कारण शहर इंदौर को मध्यप्रदेश की साहित्यिक राजधानी भी कहा जाता है। और इसी तरह साहित्य का महनीय कर्म शहर में चलता रहा तो एक दिन देश की साहित्यिक राजधानी के रूप में इंदौर सिरमौर बनेगा।

– शिखा जैन 

Leave a Reply