चार युगों की आध्यात्मिक भूमि

पूर्वांचल अर्थात् पूर्वी उत्तर प्रदेश के नाम से प्रचलित क्षेत्र उत्तर   प्रदेश के चार क्षेत्रों में एक है। विकास की दृष्टि से उत्तर प्रदेश-पूर्वांचल, मध्यांचल, पश्चिमांचल और बुन्देलखण्ड में विभक्त है। पूर्वांचल लगभग ८,८४४ वर्ग किलोमीटर में फैला है। उत्तर प्रदेश के कुल ७५ जिलों में से अट्ठाइस(२८) जिले पूर्वांचल में आते है। पूर्वांचल की सीमा में-इलाहाबाद, संत रविदासनगर, कौशाम्बी, फतेहपुर, मीरजापुर, सोनभद्र, वाराणसी, चंदौली, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर, आजमगढ़, गाजीपुर, मऊ, संत कबीर नगर, फैजाबाद, आम्बेडकर नगर, बलिया, देवरिया, गोरखपुर, महराजगंज, कुशीनगर, सिद्धार्थ नगर, बलरामपुर, श्रावस्ती, आजमगढ़, बस्ती, गोंडा एवं बहराइच-सहित २८ जिले हैं। भोजपुरी और अवधी भाषा का यह क्षेत्र उद्योग एवं व्यापार के क्षेत्र में अति उन्नत नहीं है। लेकिन पूर्वांचल की आध्यात्मिक विरासत अति श्रेष्ठ, पुरानी एवं विकसित है। सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग में अनेक संतों- महंतों की यह कार्यस्थली रही है। इसी धरती पर भगवान श्रीराम की लीला तथा रामराज्य का व्यवहार परणित हुआ। रामराज्य आज भी आदर्श है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना रामराज्य का ही था। इसी प्रकार चारों युगों की आध्यात्मिक स्मृति पूर्वांचल में है।

पूर्वांचल में सतयुग की आध्यात्मिक स्मृति:

हिन्दू सनातन परम्परा में काल गणना विश्व की सबसे अनूठी एवं प्राचीनतम गणना है। निमिशि से प्रारम्भ होकर कल्प पर्यन्त गणना में वर्ष/संवत् के स्थान पर युग को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। क्योंकि संवत् (वर्ष) युग का एक भाग है। युग का भी विभाजन चार भागों में है। सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग। सनातन मान्यता के अनुसार चारों युगों का आधार त्रिगुण अर्थात्-सत्, रज एवं तम है। सतयुग में सत्गुण की प्रधानता रहती है। त्रेता में रजोगुण की प्रधानता रहती है। द्वापर में रज एवं तम मिश्रित रूप में भूमिका निभाते हैं। कलियुग तो तमोगुण प्रधान है।

सतयुग में सत् की ही प्रधानता रहती है। सतयुग के गुण व्यवहार हमें बलि एवं वामन कथा में मिलते हैं। कहा जाता है कि बलि के यज्ञ का क्षेत्र पूर्वांचल ही था। पूर्वांचल में स्थित मीरजापुर जिले में प्रमुख तांत्रिक स्थल विन्ध्याचल के समीप ओझलानार नामक स्थान पर बलि ने यज्ञ किया था। इसी यज्ञ में वामन रूप में भगवान विष्णु ने तीन पग में त्रैलोक तथा आधे पग में बलि को नापा था। उस स्मृति को समेटे आज भी भगवान वामन का मंदिर विंध्याचल के समीप ओझलानार के पास है। इतना ही नहीं शुम्भ-निशुम्भ आदि की कथा से जुड़ा विंध्याचल क्षेत्र सतयुग से ही धरती पर अध्यात्म की सुगंध बिखेर रहा है। समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश की बूंद से अमर तीर्थराज प्रयाग में हर बारह वर्ष पर पूर्ण कुंभ एवं छह वर्ष पर अर्धकुंभ का आयोजन होता है। यह प्रयाग भी पूर्वांचल का भाग है।

पूर्वांचल में त्रेतायुग की आध्यात्मिक स्मृति:

पूर्वांचल में सर्वाधिक स्मृति त्रेतायुग की है। साक्षात धर्म स्वरूप श्रीराम जी का अवतार त्रेता में अयोध्या में हुआ था। वर्तमान में अयोध्या पूर्वांचल के फैजाबाद जिले में है। श्रीराम की स्मृति से जुड़े प्रमुख स्थान पूर्वांचल में हैं। श्रीराम के वनवास की अवधि में भरत जी ने सिंहासन पर श्रीराम की चरणपादुका रखकर जहां से अयोध्या का राज्य संचालित किया था वह ‘नंदीग्राम’ आज भी विद्यमान है। भरत जी ने नंदीग्राम में इस कारण निवास किया, क्योंकि भगवान श्रीराम ने वनवास के समय अयोध्या से बाहर यहीं प्रथम रात्रि विश्राम किया था। श्रीराम के वनवास के पश्चात् अयोध्या आगमन का समाचार भी भरत जी को पवनसुत हनुमान ने इसी ‘नंदीग्राम’ में ही दिया था।

इसके अतिरिक्त वनवास के समय श्रीराम ने प्रयाग में भारद्वाज आश्रम में निवास किया था। भारद्वाज आश्रम इस समय भी प्रयाग (इलाहाबाद) में है। इसके अतिरिक्त भगवान श्रीराम ने अयोध्या से आदर्श राजा के रूप में शासन किया। उस शासन का केन्द्र अयोध्या आज त्रेता की स्मृति के साथ है। एक आदर्श राजा के रूप में प्रजा के लिए राजमहिषी सीता का परित्याग किया। परित्याग की अवधि में सीता माता जहां रहीं वह वाल्मीकि स्थल वाराणसी के समीप स्थित है। कहा जाता है कि यहीं पर माता सीता ने धरती में प्रवेश किया था। इतना ही नहीं भगवान श्रीराम के वाराणसी आगमन की प्रतीक सीता रसोइयां इस समय भी सारनाथ, वाराणसी में है। महर्षि वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ की रचना का आधार एवं केन्द्र भी पूर्वांचल है।

पूर्वांचल में द्वापर की आध्यात्मिक स्मृति:

द्वापर युग भगवान श्रीकृष्ण की स्मृति एवं ज्ञान का युग था। इस युग में ही ‘गीता’ का दुर्लभ उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने दिया था। पूर्वांचल में द्वापर युग की भी स्मृति है। काशीराज परिवार से कौरव-पाण्डव का रिश्ता जग विख्यात है। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि भीष्म ने काशीराज की पुत्रियों का अपहरण कर अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य से दो काशीराज कन्याओं का विवाह कराया था। वह काशीराज परिवार परम्परा में यात्रा करता इसी पूर्वांचल में विद्यमान है। इतना ही नहीं वेदों के रचयिता तथा कौरव-पाण्डवों के पितामह महर्षि व्यास जी ने काशी में लम्बे समय तक निवास किया। वे एक समय नाराज होकर काशी से बाहर चले गए। बाद में भगवान शिव एवं माता अन्नपूर्णा के आग्रह पर महर्षि व्यास प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि महर्षि व्यास ने काशी वासियों को क्रोधित होकर श्रापित किया था। इस श्राप में प्रमुख है कि काशी में बसने वाला मात्र तीन पीढ़ियों तक ही अपने वैभव को प्राप्त होगा। व्यास जी का यह श्राप अब भी है। तीन पीढ़ियों के बाद किसी का भी वह स्थान नहीं रह जाता, जो पहली पीढ़ी में था।

काशी छोड़ने के बाद व्यास जी जहां बसे वह स्थान व्यास काशी के नाम से प्रसिद्ध है। व्यास काशी मां गंगा के पूर्वी छोर पर स्थित तथा काशी के घाटों के दूसरी ओर है। वास्तव में यह स्थान वर्तमान में रामनगर का भाग है। यहां व्यास जी का विशाल मंदिर आज भी है।

गोरखपुर में भगवान गोरक्षनाथ मंदिर परिसर में पांडवों के आगमन की स्मृति को संजोया एक विशाल स्थल है। यहां भीष्म की स्मृति का विशेष अवशेष भी है। इस प्रकार पूर्वांचल में द्वापर कालीन स्मृतियों के अवशेष वर्तमान में भी हैं।

पूर्वांचल में कलियुग की आध्यात्मिक स्मृति:

कलियुग तो वास्तव में भक्तियुग है। अन्य युगों में बड़े-बड़े यज्ञों से प्राप्त फल कलियुग में सिर्फ भगवान के नाम जप से संभव है। भगवान बुद्ध ने वैदिक यज्ञों के स्थान पर नई परम्परा का उपदेश किया। भगवान बुद्ध की उपदेश स्थली सारनाथ पूर्वांचल में स्थित है। तथागत् भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण की स्मृति से जुड़ी स्थली कुशीनगर भी पूर्वांचल में है। उक्त के अतिरिक्त तांत्रिक पंथ का श्रेष्ठ पीठ ‘गोरक्षपीठ’ पूर्वांचल के गोरखपुर में है। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय का धर्म साहित्य आदि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं। राजा से योगी बने भतृहरि (भर्थरी) इसी सम्प्रदाय के थे। शब्द एवं व्याकरण, योग आदि पर इनके ग्रन्थ अनुपम हैं। वास्तव में नाथ सम्प्रदाय के तपस्वी योगी के रूप में विख्यात थे। हठयोग वास्तव में नाथ सम्प्रदाय की मुख्य देन है। इस प्रकार योग को सिद्धांत एवं व्यवहार में जीने वाले नाथ सम्प्रदाय का केन्द्र पूर्वांचल ही है।

मध्यकाल में  भक्ति आंदोलन पूरे भारत में प्रमुख रहा। ज.गु.रामानन्द ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में नाम जप का भक्ति उपदेश किया। स्वामी रामानन्द जी ने ईश्वरनाम जप से मुक्ति के भक्ति मार्ग का प्रारम्भ पूर्वांचल स्थित ‘काशी’ से किया। इस प्रकार पूर्वांचल भक्ति आंदोलन का केन्द्र रहा। इस भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तक स्वामी रामानन्द जी रहे। उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण कर भक्ति एवं नाम जप का प्रचार किया। भक्ति आंदोलन के प्रमुख पे्ररक एवं विस्तारक संत कबीर, संत रविदास रहे। इनका भी केन्द्र पूर्वांचल स्थित काशी ही था। आज भी यह प्रचलित है कि – ‘उपजी भक्ति द्रविणी, लायो रामानन्द।’ इससे स्पष्ट है कि भक्ति आंदोलन का केन्द्र पूर्वांचल ही रहा। इसके अतिरिक्त काशी में संत कीनाराम, संत लोटा दास, तैलंग स्वामी, स्वामी विशुद्धानन्द, गोपीनाथ कविराज, माता आनन्दमयी की तपस्थली भी पूर्वांचल स्थित काशी ही रही।

इस क्रम में यह भी महत्वपूर्ण है कि काशी, जो दुनिया का सबसे प्राचीनतम जीवित शहर है, वह पूर्वांचल में ही है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म के ५१ शक्तिपीठ, सभी तीर्थ, सभी धाम, सभी कुंड, देवी देवताओं के विग्रह एवं केन्द्र काशी में है। इसी कारण काशी तीनों लोकों से अलग है। मां गंगा का सान्निध्य पूर्वांचल को प्राप्त है। गोरखपुर स्थित गीता प्रेस सनातन पौराणिक साहित्य एवं आध्यात्मिक प्रकाशनों का प्रमुख केन्द्र है। इसके परिसर में देवर्षि नारद का मंदिर है। इसी प्रकार के अनेक रहस्य तथा स्मृतियां अभी भी पूर्वांचल में विद्यमान हैं। विश्वनाथ की नगरी के रूप में विद्यमान काशी स्वयं में अलौकिक तथा विविध रहस्यों का केन्द्र तथा अध्यात्म की गंगा का गोमुख है। पूर्वांचल की आध्यात्मिक परम्परा युगों-युगों से चली आ रही है। इस प्रकार पूर्वांचल यज्ञ भूमि, तप भूमि एवं अध्यात्म भूमि है।

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