कर्नाटक चुनाव में भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत का विश्लेषण तमाम राजनीतिक पंडित अपने-अपने ढ़ंग से कर रहे हैं। कोई इसे राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय मुद्दों की जीत बता रहा है तो कोई पिछली सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को इसका मूल कारण बता रहा है। हमेशा की तरह क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादी धड़ा इसे सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण की राजनीति पर एकता व भाईचारे की जीत बता रहा है। भाजपा की चाहे हार हो या जीत यह धड़ा सदैव यही राग अलापता है। भाजपा यदि जीती तो ये उसे ध्रुवीकरण व सांप्रदायिक गोलबंदी की जीत और यदि हारी तो सांप्रदायिकता, ध्रुवीकरण व नफ़रत की राजनीति की हार बताते हैं। ये क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादी विश्लेषक ऐसी सुविधावादी, सरलीकृत एवं एकपक्षीय व्याख्या व विश्लेषण के माहिर खिलाड़ी हैं। वहीं वे बड़ी चतुराई से कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों द्वारा किए जाने वाले घनघोर तुष्टिकरण को जान-बूझकर नजरअंदाज कर देते हैं।
कर्नाटक में हुए इस चुनाव में भी बजरंग-दल पर प्रतिबंध लगाने की बात कर कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का खेल खेला और उसका उसे भरपूर लाभ भी मिला। हद तो तब हो गई जब उसने पीएफआई जैसे आतंकी एवं जिहादी संगठन के साथ बजरंग-दल की तुलना की। इसका सीधा असर अल्पसंख्यक मतदाताओं पर पड़ा और पारंपरिक रूप से जेडीएस के प्रभाव वाले क्षेत्रों में भी उन्होंने लामबंद होकर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। जेडीएस को 5 प्रतिशत कम और कांग्रेस को 5 प्रतिशत अधिक मतों का सामूहिक व रणनीतिक हस्तांतरण अल्पसंख्यकों की नीति एवं मंशा को पूर्णतया स्पष्ट करता है।
दरअसल लगभग सभी चुनावों में उनकी सबसे बड़ी नीति या रणनीति भाजपा को हराने वाले दल को एकमुश्त वोट देने की रहती है। अल्पसंख्यकों का वोट बटोरने के उद्देश्य से कांग्रेस ने उस हिज़ाब-आंदोलन का भी खुलकर समर्थन किया था, जिसके विरोध में ईरान से लेकर पूरी दुनिया की प्रगतिशील एवं न्याय व समानता में विश्वास रखने वाली स्त्रियाँ आज भी संघर्षरत हैं। जिस टीपू सुल्तान के शासन- काल में बड़ी संख्या में बहुसंख्यकों का नरसंहार हुआ, उसे भी कांग्रेस एक नायक की तरह प्रस्तुत करती रही है और इस चुनाव में भी उसने अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए उसकी जयंती मनाने का बढ़-चढ़कर वादा किया था।
दरअसल भारतीय राजनीति में सेकुलरिज्म का अर्थ ही अल्पसंख्यकों का भयावह तुष्टिकरण है। सेकुलरिज्म के नाम पर अजब-गजब फ़ैसले किए जाते हैं, तमाम समझौते-समीकरण-व्यूह रचे व गढ़े जाते हैं। भारत की राजनीति में सेकुलरिज्म उस गंगोत्री की तरह है, जिसमें डुबकी लगाने के बाद राजनीतिक दलों और नेताओं के न केवल सारे पाप धुल जाते हैं, बल्कि चुनावी वैतरणी भी पार लग जाया करती है। सेकुलरिज्म की आड़ में नितांत अनैतिक, अव्यावहारिक, अस्वाभाविक गठजोड़ को भी तार्किक, स्वाभाविक, प्रभावी, परिणामदायी एवं चामत्कारिक बताया जाता है। इसका आवरण ओढ़ते ही स्वार्थपरक, सत्तालोलुप एवं सिद्धांतविहीन राजनीति को भी महानतम विचारों एवं सिद्धांतों का जामा पहनाया जाता है।
तथाकथित सेकुलरिज्म का यह खेल स्वतंत्रता-प्राप्ति के ठीक बाद से ही चलता आया है और न केवल राजनीतिक बल्कि कला, सिनेमा, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति एवं इतिहास-लेखन आदि के क्षेत्र में भी यह सफलता, स्वीकार्यता, प्रशंसा एवं प्रसिद्धि की गारंटी माना जाता है। विभाजन, पलायन, उत्पीड़न, मतांतरण एवं तुष्टिकरण आदि का दंश झेलकर भी कथित सेकुलरिज्म के सुर में सुर मिलाना – इस देश में उदारता और प्रगतिशीलता का पर्याय और प्रतिमान बना दिया गया है। बात-बात पर पंथनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले दल, राजनेता एवं तथाकथित बुद्धिजीवी इस वास्तविकता की बिलकुल अनदेखी व उपेक्षा कर देते हैं कि भारत का मूल चरित्र व प्रकृति यदि पंथनिरपेक्ष एवं बहुलतावादी है तो उसमें सर्वाधिक योगदान इस देश के बहुसंख्यकों का ही है।
बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों में आए दिन होने वाले दंगे-फ़साद, हिंसा-आतंक-उपद्रव, तोड़-फोड़ एवं आगजनी आदि को देखकर सार्वजनिक विमर्श व वातावरण में प्रायः यह भय, संशय व प्रश्न तैरता मिल जाता है कि क्या जनसांख्यिकीय संतुलन बिगड़ने के बाद – भारत का पंथनिरपेक्ष चरित्र व स्वभाव बना और बचा रह सकेगा? पंथनिरपेक्षता का एकतरफा ढ़ोल पीटने वाले लोग आख़िर क्यों कैराना, केरल, कश्मीर और बंगाल का नाम ग़लती से भी अपनी जुबाँ पर नहीं लाना चाहते? क्या पंथनिरपेक्षता को बनाए व बचाए रखने की जिम्मेदारी केवल बहुसंख्यकों की बनती है या यह सभी वर्गों व समुदायों की साझी व सामूहिक जिम्मेदारी है?
बहरहाल, भारतीय राजनीति में भाजपा इसके अपवाद के रूप में जानी व पहचानी जाती थी। विकास, सुशासन, सर्वसमावेशी हिंदुत्व व राष्ट्रीयता उसकी मूलभूत पहचान रही है। व्यक्ति से बड़ा दल व दल से बड़ा देश उसका उद्घोष रहा है। न्याय सबके लिए, पर तुष्टिकरण किसी का नहीं – उसकी रीति व संस्कृति रही है। सर्वस्पर्शी विकास, समान व्यवहार व क़ानून का राज उसका घोषित लक्ष्य रहा है। परंतु गत वर्ष राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद से भाजपा अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को रिझाने-लुभाने की दृष्टि से तमाम कोशिशें कर रही है। इस दृष्टि से उसने मुस्लिम समुदायों के बीच सूफ़ी संवाद महाअभियान, स्नेह-यात्रा आदि का औपचारिक आयोजन तो किया ही, बोहरा, बरेलवी, शिया एवं हाल ही में पसमांदा मुसलमानों को साथ लाने के लिए भी अनेक लुभावने कार्यक्रम आयोजित किए और उन्हें बढ़-चढ़कर प्रचारित भी किया
‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास व सबका प्रयास’ के स्थान पर ‘तृप्तीकरण’ व ‘संतृप्ति’ की बात जोर-शोर से कही जाने लगी। भाजपा के स्वाभाविक एवं परंपरागत मतदाताओं व कार्यकर्त्ताओं को उसकी यह बदली-बदली चाल रास नहीं आई। उसके बदले रवैये के कारण वे स्वयं को ठगा-छला महसूस कर रहे हैं। इस बदलाव ने उन्हें खिन्न, क्षुब्ध, निराश, हताश एवं निष्क्रिय कर दिया, जिसका खामियाजा उसे कर्नाटक की हार के रूप में भुगतना पड़ा। भाजपा के इस बदले रवैये के कारण ही प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनाव के अंतिम चरण में दिए गए वक्तव्य – ”कांग्रेस रामलला के बाद बजरंगबली को भी ताले में बंद करना चाहती है” का कोई व्यापक असर नहीं पड़ा। दरअसल आज का मतदाता गोल-मटोल व दुहरी बातें बिलकुल पसंद नहीं करता। उसे नीति व नीयत में सर्वथा खरा एवं स्पष्ट तथा इरादों में अटल व अडिग नेता चाहिए। योगी और हिमंत बिस्वा सरमा को चुनाव-दर-चुनाव मिलने वाली सफलता बहुत कुछ कहती है, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को उस सफलता में निहित सार व संदेश को समय रहते समझना चाहिए, अन्यथा छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान की जीत की राह भी उसके लिए आसान नहीं होगी।